मामलों की त्वरित सुनवाई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा है तथापि, लंबित मामलों की संख्या में लगातार वृद्धि से मामलों के निपटान में होने वाली देरी के कारण आम जन को इस अधिकार से वंचित होना पड़ता है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि 15 सितंबर, 2021 तक, भारत की सभी अदालतों में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लंबित थे। 2010 और 2020 के बीच, सभी अदालतों में लंबित मामलों में 2.8% की दर से वृद्धि हुई है।
बेबुनियाद और तुच्छ मामलों की बढ़ती संख्या और विवाद समाधान की वैकल्पिक विधियों के बारे में कम जन जागरूकता, भारतीय अदालतों में मामलों के लंबित रहने के दो प्रमुख कारण हैं।
बेबुनियाद और तुच्छ मामले
हर वर्ष बड़ी संख्या में बेबुनियाद और तुच्छ मामले दर्ज़ किए जाते हैं, जिससे केवल वादियों के ही नहीं बल्कि अदालतों के भी समय और धन दोनों की बर्बादी होती है। अदालतों की अधिकांश वाद सूचियों में ऐसे मामले होते हैं, जो सुनवाई के नियमित चरण तक आगे नहीं बढ़ पाते हैं।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर किए गए मामलों में से मात्र 11% मामले ही प्रवेश चरण से आगे बढ़कर सुनवाई के नियमित चरण तक पहुंच पाते हैं। यह संकेतित करता है कि उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के प्रारंभिक चरण में लंबित मामलों में वृद्धि हुई है और न्यायालय के समय का एक बड़ा भाग उन व्यर्थ मामलों का निपटान करने मे व्यतीत होता है, जो किसी महत्वपूर्ण मुद्दे को नहीं उठाते हैं।
बेबुनियाद और तुच्छ मामले न्याय वितरण प्रणाली की धमनियों को अवरोधित करने के साथ-साथ वास्तविक वादियों को त्वरित सुनवाई के अधिकार से भी वंचित करते हैं।
कानून और कानूनी प्रक्रिया के संबंध में वादियों का सीमित ज्ञान ही, उनके द्वारा बेबुनियाद या तुच्छ मामले दर्ज़ करने का मुख्य कारण है। आम आदमी कानून को आसानी से नहीं समझ पाता है। दूसरी तरफ, कानून जटिल होते हैं और उन्हें समझ पाना मुश्किल होता है।
विशेष रूप से भारत में, भाषा, शिक्षा और तकनीकी पहुंच की बाधाएं कानूनी जागरूकता की कमी की समस्या को और बढ़ाती हैं अतएव, वकील की ज़िम्मेदारी है कि वह मामला दर्ज़ करने से पहले अपने मुवक्किलों को उचित सलाह दे और जब तक मामला दर्ज़ करने के लिए कोई कानूनी आधार और तथ्य ना हो, तब तक किसी मामले को अदालत में ना लाया जाए। उन्हें अपने मुवक्किलों के प्रति अपने कर्तव्य के साथ-साथ अदालतों, समाज और कानून के प्रति अपने कर्तव्य को भी ध्यान में रखना चाहिए।
हालांकि, अक्सर यह देखा गया है कि बहुत से वकील मुवक्किलों को उनके मामले के गुण-दोष, अनुरक्षणता (मेन्टेनेबिलीटि) और संभावित परिणाम तथा उपलब्ध वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों के संबंध में सही सलाह नहीं देते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार वकीलों के अपने मुवक्किलों को अनुचित सलाह देने की प्रवृत्ति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
पिछले वर्ष दामोदरम संजीवैया नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में आयोजित एक दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश, एन वी रमन्ना ने कहा था कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में छात्रों के चरित्र का निर्माण करने या उनमें सामाजिक चेतना और ज़िम्मेदारी विकसित करने की क्षमता नहीं है।
उन्होंने यह भी कहा कि देश की अदालतों में लंबित मामलों के लिए, अन्य मुद्दों के साथ-साथ कानूनी शिक्षा की गुणवत्ता में कमी को भी ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
इसके अलावा, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष श्री मनन कुमार मिश्रा ने 2015 में कहा था कि भारत में लगभग 20% वकीलों के पास कानून की वैध डिग्री नहीं है। ऐसे अल्प शिक्षित और नैतिक रूप से भ्रष्ट वकीलों से उचित और ईमानदार सलाह पाने की आशा नहीं की जा सकती है।
विवाद समाधान की वैकल्पिक विधियों के संबंध में कम जन जागरूकता
भारत में विवाद समाधान की वैकल्पिक विधियों के बारे में जन जागरूकता बहुत कम है। वकील मुकदमे से पहले के चरण में ही अपने मुवक्किलों को विवादों को निपटाने की सलाह देकर, लंबित मामलों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। हालांकि, बहुत से वकील वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रिया में ठीक से प्रशिक्षित नहीं हैं और विशेषज्ञता की कमी के कारण, वे प्रभावी ढंग से इस तंत्र के बारे में सुझाव नहीं दे पाते हैं।
लंबित मामलों को कम करने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण मामला दर्ज़ करने से पहले के चरण में क्या भूमिका निभा सकते हैं?
यदि मामला दर्ज़ करने से पहले के चरण में एक स्वतंत्र विशेषज्ञ निकाय द्वारा उचित और निष्पक्ष कानूनी सलाह दी जाती है, तो कोई भी व्यक्ति कानूनी कार्रवाई शुरू करने से पहले अपने दावों की योग्यता और वैधता और उपलब्ध वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों की जांच कर सकता है।
विधिक सेवा प्राधिकरण निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करते हैं लेकिन वे केवल समाज के कमज़ोर वर्गों तक ही सीमित हैं। कोई भी मामला दर्ज़ करने से पहले के चरण में विधिक सेवा प्राधिकरणों द्वारा दी जाने वाली कानूनी सलाह सेवा समाज के सभी वर्गों के लिए उपलब्ध कराई जानी आवश्यक है।
तदनुसार, राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तर पर गठित विधिक सेवा प्राधिकरण, तालुका/उप-मंडल स्तर पर गठित विधिक सेवा समितियां और उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की विधिक सेवा समितियां, मामला दर्ज़ करने से पहले के चरण में सभी भारतीय नागरिकों के लिए निःशुल्क या न्यूनतम शुल्क पर कानूनी सलाह सेवा प्रदान करेंगी।
विधिक सेवा प्राधिकरणों/समितियों के अधिकारी मामले का प्रारंभिक मूल्यांकन कर, मामले के गुण-दोष, अनुरक्षणता (मेन्टेनेबिलीटि) और संभावित परिणाम पर सलाह और उचित वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों का उपयोग करने का सुझाव देंगे, साथ ही बेबुनियाद और तुच्छ मामलों को दर्ज़ करने के परिणामों के बारे में चेतावनी भी देंगे। मामला दर्ज़ करने से पहले के चरण में, संबंधित विधिक सेवा प्राधिकरण/समिति से लिखित, मौखिक या ऑनलाइन रूप से कानूनी सलाह देने का अनुरोध करने की अनुमति होगी। कानूनी सलाह प्रक्रिया गोपनीय होगी और यह सलाह, सलाह लेने वाले के लिए बाध्यकारी नहीं होगी
उचित और निष्पक्ष कानूनी सलाह सेवा, मामला दर्ज़ करने से पहले के चरण में, सलाह लेने वालों को कानूनी कार्रवाई शुरू करने या ना करने का निर्णय लेने मे मदद कर और उन्हें मुकदमा करने से पहले विवाद का निपटान करने के लिए प्रोत्साहित कर मामलों की लंबितता को कम करेगी।
अतएव, बेबुनियाद और तुच्छ मामले दायर करने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित और वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरणों को उनके द्वारा मामला दायर करने से पहले के चरण में दी जाने वाली कानूनी सलाह सभी भारतीय नागरिकों के लिए उपलब्ध करानी चाहिए।