तुम भी सूखी रोटी में यकीन करने वाले हो! जिसने हमेशा पुलाव खाएं हो, उसे सूखी रोटी में कविता नज़र आती है, जो गरीबी से कोसों दूर रहा हो उसे गरीबी में ‘रोमांस’ नज़र आता है लेकिन कविता और रोमांस अमीरों के दिल बहलाव की चीज़े हैं और सूखी रोटी, उसे चबाना पड़ता है, निगलना पड़ता है, पचाना पड़ता है।
गरीबी ज़िन्दगी का एक श्राप है आनंद साहब! जिससे निकलना इंसान का फर्ज़ है, जानबूझकर पड़ना हिमाकत! जो अपने प्यार की खातिर सौ रुपए तक की नौकरी ना पा सका, वह प्यार का मतलब समझाने आया है। तुम आए हो मीता (साधना) से उसका आराम और सुख छीनने, एक सूखी रोटी का वादा लेकर, तो ले जाओ! वह तो है ही नादान। कितने दिनों तक अपने साथ रखोगे, तुम ज़िन्दगी भर उसे इतना नहीं दे पाओगे, जितना मीता अपने एक जन्मदिन पर खर्च कर देती है।
रोज़गार के बिना प्यार मुकम्मल नहीं होगा की सच्चाई आनंद जानता था। मीता के पिता की चुभती बात किंतु ज़िन्दगी की एक हकीकत को अनुभव कर आनंद (देव आनंद) बाहर निकल जाता है। रोज़गार के बिना ज़िन्दगी को जीना कभी मुमकिन नहीं होगा यह सच्चाई और प्यार व ज़िन्दगी को लेकर एक बदलाव उसमें घटित हो गया था। खुद को ज़िन्दगी की हकीकत के लायक बनाने का संकल्प लेकर वह पुराने आनंद को पीछे छोड़ आया था। फौज में भर्ती का विज्ञापन दिखाई देना हीरो के जीवन में नयापन को दिखाने के लिए काफी सटीक था।
हम देखते हैं कि आनंद फौज में दाखिल हो जाता है। वहां उसकी मुलाकात अपने ‘हमशक्ल’ मेजर वर्मा से होती है। एक ही शक्ल, एक फौज और एक शहर का संयोग दोनों को नज़दीक ले आता है। इस मोड़ से आनंद व मेजर वर्मा की कहानियां आकर मिल जाती हैं। हमशक्ल होने की वजह से दो अलग इतिहास अनजाने में ही एक दूसरे के जीवन में प्रवेश कर जाते हैं।
आनंद व खुद को एक जगह देखकर मेजर वर्मा कहते हैं-
भगवान में मुझे यकीन नहीं लेकिन किस्मत ज़रूर कोई चीज़ है! वर्ना एक से चेहरे, एक फौज, एक जगह, बड़ी खुशी की बात है!
देश की रक्षा करते हुए, जंग के दौरान मेजर वर्मा गंभीर रूप से घायल हो गए। दुश्मनों के हमलों का डटकर सामना करते हुए इस नाज़ुक हालात को पहुंचे थे। इस हालत में वो अभिन्न मित्र आनंद से अपनी गैर-मौजूदगी या मारे जाने की स्थिति में उनके घर की ज़िम्मेदारी निभाने का वादा लेते हैं। दोस्ती की खातिर आनंद को ना चाहते हुए भी उनकी बात माननी पड़ती है। इस मोड़ से कहानी में नए दिलचस्प मोड़ बनते हैं। उस दिन के बाद मेजर वर्मा यकायक लड़ाई के मोर्चे से गायब हो गए। कुछ दिनों बाद उनके लापता और मारे जाने की खबर मिलती है।
फौज से छूटकर आनंद मेजर और खुद के दायित्वों को निभाने के लिए मेजर के परिवार के पास आया, जहां मेजर की धर्मपत्नी रूमा (नंदा) पति की वापसी का इंतज़ार कर रही थी। इंतज़ार में रूमा बीमार हो चुकी थी। वो आनंद को अपना खोया हुआ पति मान रही, आनंद भी सच नहीं बता सकता क्योंकि रूमा शायद इसे बर्दाश्त ना कर सकेगी। रूमा से हकीकत ज़ाहिर नहीं करना हालात के मद्देनजर उसे ठीक लगा।
अब आनंद को धर्म-संकट से गुज़रना होगा। वो रूमा से पत्नी से ऊपर का नाता रखने का निर्णय लेता है। असली नकली के विपरीत दायित्वों की परीक्षा से गुज़रते वो बहुद हद तक सफल हो रहा था लेकिन इस मोड़ पर एक अप्रत्याशित हकीकत सामने आती है। दर्शकों के नज़रिए से लेकिन आनंद तो उस दिन के इंतज़ार में जी रहा था।
फिल्म के तीसरे हिस्से में मेजर वर्मा को जीवित दिखाया जाता है। मेजर अब वो नहीं रहा, जंग में लापता हुआ मेजर अब अपाहिज था, हारे हुए सिपाही की कमज़ोरी में उलझा हुआ शख्स सा।
बहकावे में व अपनी कमज़ोरी में फंसकर वो रूमा-आनंद के रिश्ते पर शक करने लगा था। पति का मज़ा लेना आनंद की जगह पर होकर आसान था, गलत भावनाएं लेकिन आनंद को डिगा नहीं सकी। वो रूमा का पति नहीं जीवन का देवता होकर जी रहा था। आनंद को इस परीक्षा में सफल होना होगा क्योंकि मीता उसी के इंतज़ार में दुनिया को ठुकराए हुए थी। मेजर को डर था कि अपाहिज हो जाने बाद क्या रूमा अब भी पहले जितना प्यार उसे देगी?
असली-नकली या यूं कहें एक जैसे चेहरों के धर्मसंकट से उभरने के लिए आनंद एक योजना बनाता है। हकीकत से रूबरू करने के लिए वो रूमा मीता व मेजर वर्मा को एक जगह बुलाता है। दूसरे की हकीकत से रूबरू होकर पूरी बात को जानना तीनों के लिए ज़रूरी था। स्वयं के प्रति रूमा का असीम समर्पण देखकर मेजर को किए पर पछतावा होता है। सुखद समापन में रूमा को उसका असली पति मेजर वर्मा जबकि मीता को आनंद का साथ मिल जाता है।
साठ दशक में रिलीज़ ‘हम दोनों’ में भारतीय आदर्श व मूल्य कहानी का अहम हिस्सा थे। आस्था-विश्वास एवं पारिवारिक मूल्यों का महत्व बताया गया। दोस्ती वफा में विश्वास कायम किया गया। हमशक्ल के इत्तेफाक पर बनी पटकथाओं में अहम पात्रों के व्यक्तित्व को परखने के लिए कथा में संघर्ष का भाव था। किरदार इसमें विजयी होकर सामने आए। अब उनका व दर्शकों का एकात्म हो गया था। यही खूबसूरती किसी कहानी को सफल बनाती है।
यूं तो यह देव आनंद की फिल्म थी फिर भी नंदा व साधना की भूमिकाओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। रूमा व मीता के किरदार आनंद व मेजर वर्मा के किरदारों को मुकम्मल कर रहे थे। पतिव्रता नारी के रूप में नंदा का अभिनय उम्दा था। उधर आनंद की खातिर जीवनभर इंतज़ार करने का संकल्प लिए हुए मीता का किरदार भी।
साहिर के गीतों ‘हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया’, ‘अभी ना जाओ छोड़कर’, ‘कभी खुद पर कभी हालात पर रोना आया’ और ‘सदाबहार भजन’. ‘अल्लाह तेरो नाम, इश्वर तेरो नाम’ को बार-बार गुनगुनाया जा सकता है। यह गीत आज भी रेडियो टीवी पर प्रसारित होते हैं। आज भी लोकप्रिय हैं।
अभिनेत्री नंदा पर फिल्माया गया भजन हिंदी सिनेमा के बेहतरीन भजनों में एक है। देव आनंद पर फिल्माया ‘कभी हालात कभी खुद’ को भी साहिर के सबसे बेहतरीन गीतों में रखा जा सकता है। जयदेव का संगीत अपने उत्तम स्तर पर था। विजय आनंद की पटकथा हमशक्लों की उलझन को दिलचस्प अंदाज़ में पेश करने में सफल था।