“अब पहुंची हो तुम” आखिर पहुंच ही गई मेरे पास। ज़ंजीर में जकड़े ताले से इसकी ज़ीनत की गई है। इस बंद दरवाज़े में हकीकत के खाद-पानी से सींची तख्लीक महफूज़ हैं। 55 तख़्लीक़। 124 पन्नों में समाई हुई हैं। तमाम घटनाओं, एहसासों और अनुभवों को कविता में पिरोया है महेश चंद्र पुनेठा ने और इन रचनाओं का ही मजमुआ है “अब पहुंची हो तुम।”
इस किताब का यह नाम संग्रह में शामिल “गाँव में सड़क” कविता से चुना गया है। ‘समय साक्ष्य’ द्वारा प्रकाशित इस किताब का आर्थिक मूल्य 150 रुपये है।
एक आधुनिक ज़टिल समाज में व्यक्ति के कई विभिन्न किरदार और पहचानें होती हैं। कवि की कविताएं उसकी हर एक अलग पहचान का दर्पण होती हैं। किन्हीं कविताओं में वो पहाड़ों के निवासी बन कर लिखते हैं, तो कुछ रचनाओं में उनमें एक नवाचारी शिक्षक की झलक झलकती है।
कहीं भारत का जागरूक नागरिक होना उसकी पहचान बन आई है, तो कुछ कविताएं एक बेटा और पति लिख रहा होता है और किन्हीं जगहों पर वो अपनी पैनी नज़र से समाज का अवलोकन कर रहा एक व्यक्ति भी नज़र आ रहा है। संक्षेप में कहूं तो, कविताओं में तसव्वुर का तड़का है और विषयवस्तु में विविधता की सुगंध भी।
हमारे समाज में महिलाएं दूसरों की खुशियों के लिए जीती हैं। उन्हें इस तरह तैयार किया जाता है कि वह अपना अस्तित्व ही भूल जाती हैं। त्याग की खाद और ज़िम्मेदारी व बोझ के पानी से उन्हें सींचा जाता है। काम के बोझ के तले उन्हें यूं दबाया जाता है कि उनकी सीमाएं घर की चारदीवारी तक ही सिमट जाती हैं।
हमारे समाज में महिलाओं के लिए तमाम तरीके की असमानताएं और विपरीत सामाजिक नियम तो हैं ही और इस बीच जब वो अपनी ज़िंदगी के कुछ हसीन पलों को लिखने बैठती हैं, तब कुछ याद ही नहीं कर पाती हैं। इस स्थिति को बयां करते हुए कवि लिखते हैं:
” फिर
वह दुख लिखने लगी
लिखती रही
लिखती रही
लिखती ही रह गई।”
सुंदर और खूबसूरत पहाड़ संसाधनों के मामले में तंग हैं। आधुनिक आबोहवा से कोसों दूर हैं, आप वहां विकास तो छोड़िए, न्यूनतम आधारभूत बुनियादी सुविधाओं की पहुंच भी उन तक नहीं हैं। सुंदरता और खूबसूरती किसी को दो वक्त की रोटी तो मुहैया नहीं करा सकती है।
इसीलिए वहां के बाशिंदे पलायन करने पर मज़बूर हैं। बुज़ुर्ग जो वहीं की हवा के आदी हैं, चाहतें हैं कि उनकी नई पीढ़ी बाहर जाए और नया मुकाम हासिल करे। कुछ लोग स्थाई रूप से पलायन करते हैं, तो कुछ का आना-जाना लगा रहता है। इसके साथ ही संयुक्त परिवारों के लोग भी एक-दूसरे से बिछड़ जाते हैं। कोई शहर तो कोई पहाड़ों में। कवि की कलम इस पर कहती है
” पहाड़ी गाँव
यानि बिछोह, मिलन, फिर बिछोह।”
एक महिला के लिए उसका मायका (माँ का घर) वह होता है, जो उसकी माँ का भी नहीं होता। शादी कर वह ससुराल जाती है। अब वही उसका घर-संसार है। वह अपने सपनों को मार देती है। उसके बचपन के खिलौने, कॉपी-किताबें और बचपन की हसीन स्मृतियां सब उसकी माँ के घर पर ही रह जाती हैं।
वहां भी वह केवल कबाड़ ही है। वह अपने इस नए संसार में भी वह दूसरों को तवज्जो देने में ही व्यस्त रह जाती है। उसके पास खुद के लिए सोचने का समय ही कहां है ! बराबरी का हव्वा कितना ही उड़ाया जाए, उसका वजूद वहां भी नगण्य ही है। कवि इस पर लिखते हैं कि
“आखिर कब आएगा वह दिन
जब पति के बगल में
पत्नी की भी
पुरानी चिट्ठियां, पुरानी डायरियां सजी होंगी?”
हमारे गैरबराबर समाज में औरत को काम के बोझ के तले पूरी तरह दबा दिया जाता है। हालांकि, लोगों की नज़रों में भले ही वह घास का तिनका हो, पर वह ना हो तो घर-परिवार के लिए एक पत्ता हिला पाना भी मुश्किल है। वह अपनी तबियत का ख्याल किए बिना सुबह से शाम तक जानवरों की तरह काम करती है। वह अपना दर्द यह सोचकर दबाती रहती है कि मैं पड़ गई तो मेरे परिवार का क्या होगा? वह अपनी तबियत की नज़ाकत को कोने कर अल्पकालिक राहत पर अधिक ध्यान देती है। लिहाज़ा इसका नतीजा यह होता है:
“नहीं लौट पाई वह
अबकी बार पेन किलर लेकर
पति को उसकी लाश लेकर लौटना पड़ा।
वह आज अचानक नहीं मरी
हां, आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तर गई।”
तसव्वुर की उड़ान का नतीज़ा है “मेरी रसोई-मेरा देश।” दुनिया बदल रही है, हमारा देश भी। समकालीन भारत के मौजूदा हालात का प्रतिबिंब खड़ा कर कवि 37 रचनाएं करते हैं। वह कहते हैं:
“उबलना और उबाल जाना
काफी अंतर है दोनों में
रसोई में उबाल भी जाता ही है
लेकिन रसोइया
उसे चुपचाप जाते हुए
नहीं देखता है
इस घटना का आम होना
रसोइये की लापरवाही का प्रतीक है।”
लोग अपनी पहचान के प्रति बड़े ही संकीर्ण रहते हैं। अपनी सोच के अर्ज़-ओ-तूल को बढ़ाने की बजाय छोटे-छोटे दायरे बनाए रहते हैं पर मनुष्य की तलाश तो कभी खत्म ही नहीं होती। वह तो हर नई चीज़ को जानने की जिज्ञासा रखता है, तभी तो वह इंसान है। “कुंए के भीतर कुंए” कविता लोगों में मर चुकी जिज्ञासा पर है। इसकी कुछ पंक्तियां यूं हैं
“मुझे शक है
कि तुम खुद को भी देख पाते हो या नहीं
लोग कहते हैं तुम जिन्दा हो
पर मुझे विश्वास नहीं होता है
एक जिन्दा आदमी
इतने संकीर्ण कुंए में
कैसे रह सकता है भला!”
समाज ही कवि की कलम को हर रंग की स्याही से भर रहा है। “माँ की बीमारी में” शीर्षक से 7 कविताएं लिखी गई हैं। औरतें बीमार माँ से भेंट करने आ रहीं हैं। इस बीच वे तमाम बातें करती हैं। कुछ उनकी हिम्मत बढ़ा रहीं हैं, तो कुछ हिम्मत पस्त कर रहीं हैं पर उनकी बातों के विषय पितृसत्ता के पहरेदार पिताजी को खुश कर रहे हैं। वह लिखते हैं:
“बूढ़े पिता मंद-मंद मुस्कुराते हैं
मैं कुढ़ता हूं मन-ही-मन
दासता से खतरनाक है
दासता की वकालत।”
ज़िंदगी में सहूलियत और संतुष्टि के लिए हम जीवन भर कई चीज़ें करते हैं। कई दुनिया के दिखावे के लिए, तो कई आत्मसंतुष्टि के लिए पर ज़िंदगी जीना और काट लेना एक ही सड़क के दो छोरों की तरह हैं और चुनना हमें है कि हम जीना चाहते हैं या काटना। छुपाना चाहते हैं या उघाड़ना। कवि के शब्दों में:
“वे भाषा में
रचनात्मकता चाहते हैं
मैं जीवन में।”
समाज में कई आधार पर धड़े बंटे हुए हैं। एक वो जिनकी थाली में छप्पन भोग हैं और दूसरे वो जिन्हें सूखी रोटी भी मुश्किल से मिलती है। समाज में इज़्ज़त, ओहदा और अवसर पाने के लिए आपकी आर्थिक स्थिति भी एक बड़ी भूमिका अदा करती है। बमुश्किल ही लोग तमाम ज़द्दोजहद के बावजूद भी अपनी परिस्थितियों में बदलाव ला पाते हैं। मुख्यतः जो लोग जाति पदानुक्रम में निचले होते हैं, उन्हें इन परिस्थितियों का सामना अधिक करना पड़ता है। वे लोग और उनकी कई पीढ़ियां इसी अंधेरे की काली चादर में लिपटी रह जाती हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी वह इसके आदी हो जाते हैं। कवि इस दर्द को बयां कर लिखते हैं:
“कितना खतरनाक है इस तरह
चोट-चुभन-आवाज़ का
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आदत में ढल जाना।”
अंधेरे को चीरते हैं दिवाली के दिये पर दीपक तले अंधेरा ही रह जाता है। त्यौहार में खुशियां भी बंटी हुई हैं। समाज में अलग-अलग आर्थिक वर्ग के लोग हैं। मोमबत्तियां, लड़ियां और दिया जलाना त्यौहार बनाना है पर कई लोग केवल इस उजाले को आंखों में ही भर पाते हैं। वह जब अपनी देहरी में उजाला करने ही वाले होते हैं, तब ही उनकी खुशी के दिये पर कोई फूंक मार जाता है। 3 कविताएं हैं “दीपावली” नाम से जिनकी चंद पंक्तियां हैं:
“गलती मोमबत्तियां मुझे
रोते हुए बच्चों के
आंसुओं की तरह दिखती हैं।”
राजनेता चमकती आंखों को सपनों से भर देते हैं और जनता सपनों के उन हवामहलों से ही खुश हो जाती है। क्षितिज की ओर देख बस वह उन सपनों के पूरे होने का इंतज़ार करती रह जाती है और राजनेता हर दिन उनके भरोसे की सेज पर आग तापते हैं।
यही हुआ भाखड़ा, रिहन्द, टिहरी और नर्मदा में। कवि को डर है कि यही पंचेश्वर में ना दोहराया जाए। डैम बनाना वहां से विस्थापित लोगों की ही नहीं बल्कि कुदरत की भी इसमें बलि चढ़ाना है। विकास का वर्तमान मॉडल, तो है ही कुदरत के खिलाफ। पंचेश्वर घाटी पर रचित कविता में कवि लिखते हैं
“ध्यान रखना
यही सपने दिखाए थे उन्होंने
भाखड़ा में
रिहन्द में
टिहरी में
नर्मदा में।”
लोकतंत्र शासन की सर्वोत्तम व्यवस्था है। लोकतंत्र के मायने केवल आम जन के मत देने तक ही सीमित नहीं हैं। लोकतंत्र में वोट देना केवल लोकतंत्र का एक प्रमुख तत्व है। देश का नागरिक होने के नाते देश में हो रही हर घटना को पैनी नज़र से देखना भी हर आम जन की ज़िम्मेदारी है। यही नहीं अगर नागरिकों को लगे कि यह उनके हित के खिलाफ है, तो बाकायदा वह विरोध करने का अधिकार भी रखता है। लोकतंत्र लोगों का शासन है। सत्ता में बैठे लोग जनता के फ़रिश्तें बन उनकी मर्ज़ी के खिलाफ चाहे उनकी भलाई के फैसले लें या उन्हें बर्बाद करने के, यह लोकतंत्र की रूह के खिलाफ है। इस पर कवि कहते हैं:
“लोकतंत्र के लोहे पर
आन्दोलन देते धार हैं।”
लॉकडाउन के दौरान हताश मज़दूरों के दर्द को भी कवि की कलम ने उकेरा है। समाज की हर परिस्थिति इस वर्ग विशेष के खिलाफ होती है। ये हमारे समाज के ऐसे संगतकार हैं, जिनकी आवाज़ हमारे कानों तक पहुंचती ही नहीं है। यही हमारे समाज को मुक्कमल करते हैं और समाज इन्हें पैरों तले कुचलने में दो पल भी नहीं लगाता है। लॉकडाउन की विपरीत स्थितियां, तो इनके लिए दुःख और तकलीफ का पहाड़ ही ले आईं थीं।
इस काव्य संग्रह में पर्यावरण, लोकतंत्र, नफरत, प्रेम, गैर-बराबरी से लेकर समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित कविताएं हैं। हर एक कविता रफाकत है हर दूसरी कविता की। हां, क्योंकि समाज के हर मुद्दे जुड़े हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति की समस्याएं समाज की देन हैं। महेश की कविताएं नवाचारी हैं। यह संग्रह केवल एक साहित्यिक कृति नहीं है बल्कि समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ भी है, जिसका ईंधन समाज से ही मिलता है।
कृति अटवाल (11वीं)
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल