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“डिजिटल शिक्षा के साथ-साथ विद्यार्थियों में मौलिकता का होना बहुत ज़रूरी है”

"डिजिटल शिक्षा के साथ-साथ विद्यार्थियों में मौलिकता का होना बहुत ज़रूरी है"

आज हम तेज़ी से अपने शिक्षा की ज़रूरतों के लिए एक नए माध्यम ‘डिजिटल माध्यम’ की तरफ बढ़ रहे हैं। डिजिटल माध्यम को शिक्षा क्षेत्र में हर समस्या के समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है, जब कोरोना की पहली लहर आई थी, तब उस चुनौती का सामना करने के लिए भारतीय शिक्षा जगत ने ऑनलाइन शिक्षा का विकल्प खोजा था। 

कोरोना की दूसरी लहर में उस विकल्प पर निर्भरता बढ़ी, परंतु ऑनलाइन बैठने, बोलने, उसे संयोजित करने, तकनीकी सहयोग प्रदान करने में कई चुनौतियां थी और साथ-ही-साथ स्कूलों में कंप्यूटर, इंटरनेट और बिजली जैसी आधारभूत बुनियादी सुविधाओं की भी भारी कमी थी।

वैसे, पीने के लिए स्वच्छ पानी, स्वच्छ टॉयलेट और शिक्षकों का अभाव पहले से मौजूद समस्या रही हैं जिसका समाधान नहीं हो सकता है। जाहिर है स्कूलों को डिजिटल अध्ययन के लिए परिपूर्ण एवं सशक्त बनाने के लिए सरकार को वृहद स्तर पर काम करने की ज़रूरत है। शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश में मात्र 22 फीसदी स्कूलों में ही इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है।

 

एनजीओ प्रथम की देश में ऑनलाइन शिक्षा पर रिपोर्ट।

डिजिटल डिवाइड की अज्ञानता और आर्थिक समस्याओं के कारण देश के एक बड़े समुदाय की उस तक पहुंच नहीं है।एनजीओ प्रथम की शिक्षा पर जो रिपोर्ट का दावा है कि 2020 में स्कूली शिक्षा से दूर होने वाले बच्चों का प्रतिशत 5.3 है। इसकी प्रमुख वजह कोरोना महामारी रही, जिसने ना केवल परिवारों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर की बल्कि उनके बच्चों को स्कूल से दूर कर दिया। 

इन सब में जो परिवार स्मार्ट फोन या कप्यूटर-लैपटॉप नहीं खरीद सकते थे, उन्होंने पढ़ाई ज़ारी रखने का विकल्प ना मिलने से बच्चों को स्कूल से बाहर कर लिया। बच्चे हमारे देश के भावी नागरिक हैं और स्कूल बच्चों को एक लोकतांत्रिक नागरिक बनाते हैं। उनका लगातार स्कूली शिक्षा से बाहर होना हमारे स्वस्थ लोकतंत्र के सामने कई चुनौतियां खड़ी कर देगा।

डिजिटल संसाधनों पर शिक्षा व्यवस्था को खड़ा करना और संसाधनों का वृहद स्तर पर तक पहुंचाना एक बात है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि डिजिटल शिक्षा या तकनीक पर आधारित शिक्षा व्यवस्था को वैकल्पिक माध्यम के रूप में विकसित किया जाना चाहिए ना कि मुख्य विकल्प के रूप में।  

भारतीय परिवेश में हमें यह हमेशा देखने को मिला है कि नई विकसित हुई तकनीक को हर समस्या का रामबाण उपाय या एकमात्र विकल्प मान लिया जाता है। हर दौर में नई तकनीक सामने आती रही है और उसको हमारे शिक्षाविदों ने शिक्षा के क्षेत्र में अभूवपूर्व बदलाव का घोतक माना है।

एक समय के बाद या नई तकनीक आने के बाद पुरानी तकनीक बेकार और निरर्थक सिद्ध हुई है, जो बार-बार यह सिद्ध करती है कि तकनीक के विकास के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र की जो समस्याएं हैं, वो इंसानी सूझबूझ से ही हल होने वाली है, तकनीक उसमें सहायक हो सकती है और अपना योगदान दे सकती है। तकनीक या प्रौद्योगिकी हमारी हर समस्या को हल कर देगी, यह सोच दूर की कौड़ी लाने के बराबर ही है।

सनद रहे, भारत को आज़ादी मिलने के बाद प्रौद्योगिकी विकास के हर चरण में यह बात कही जाती रही है फिर चाहे वह रेडियो युग हो, टेलीविजन युग हो, कंप्यूटर क्रांति का युग हो या आज का डिजिटल क्रांति का दौर हो, परंतु प्रौद्योगिकी के विकास का हर दौर या युग आम जनमानस के लिए किसी तिलिस्म से कम नहीं रहा है।

वह उस तिलिस्म को हैरानी-परेशानी और आश्चर्य से देखता ज़रूर है पर उस भरोसा करना चाहता है पर कर नहीं पाता है। प्रौद्योगिकी तक पहुंचने के लिए सूचना और शिक्षा के जिस पथ पर उसको चलना है, वह खाई उसके लिए नुकसानदेह है।

आज देश में सूचनाओं की कोई कमी नहीं है सिर्फ चालीस साल पहले तक चुनिंदा घरों में ही अखबार पढ़े जाते थे, रेडियो-टीवी होती थी। अब देश के हर घर में अखबार, रेडियो, टीवी, लैपटॉप, इंटरनेट और मोबाइल हैं लगभग सारा देश सूचनाओं के जाल में है, परंतु शिक्षा उस तरह से देश के आम जन तक नहीं पहुंच पाई है। 

प्रौद्योगिकी के हर संसाधन को आम जन तक शिक्षा पहुंचाने के लिए ज़रूरी समझ कर सरकारों ने कई नीतियां बनाईं, कई योजनाएं चलाई गईं। कुछ शैक्षणिक संस्थानों तक इसकी पहुंच हो सकी पर नई प्रौद्योगिकी या तकनीक का इस्तेमाल कैसे करना है? और इसके इस्तेमाल से शिक्षा का क्षेत्र कैसे समृद्ध हो सकता है? इन सब सवालों पर चेतना शून्य की स्थिति होती है। इस व्यावहारिक सोच के अभाव में लंबी जद्दोजहद्द के बाद संसाधन जब तक शिक्षा तंत्र तक पहुंचते हैं, तब तक वह या तो पुराने हो जाते हैं या उनकी प्रासंगिकता शून्य हो जाती है।

परिणामत: नई चीज़ें आती हैं और कुछ समय के बाद स्टोर रूम का हिस्सा बन जाती हैं। नई तकनीक हमेशा पुरानी को हमारे जीवन से हटा देती है। इसलिए आज के दौर में देश के तमाम स्कूलों के स्टोररूम्स में रेडियो, टीवी, डैस्कटाप और कई संसाधन धूल खाते देखे जा सकते हैं।

मैं दूसरे शब्दों का सहारा लूं, तो शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि तकनीक या प्रौद्योगिकी विकास हर समस्या का हल पैदा करने के बजाय हमारी उस पर निर्भरता बढ़ा रही है जिसके कारण हम मानवीय रूप से कम और यांत्रिक रूप से अधिक सोचने लगे हैं। मानवीय समाज में रहते हुए हमारा मानवीय होना अधिक ज़रूरी है ना कि यांत्रिक होना।

बेशक मौजूदा दौर में नई शिक्षा नीति की वजह से डिजिटल डिवाइड पर हमारी निर्भरता बढ़ रही है, जिसको अधिक व्यापक बनाने के लिए हमें एक अभी लंबी दूरी तय करनी है। डिजिटल डिवाइड पर निर्भरता के साथ-साथ अपने बच्चों को मौलिकता भी देनी ज़रूरी है, क्योंकि मौलिकता कभी खत्म नहीं होती है और मशीनें हमारी ज़रूरतों और उपलब्धताओं के हिसाब से बदलती रहती हैं।

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