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सदियों पुरानी सामाजिक रूढ़ि जाति व्यवस्था को नकारती हमारी नई पीढ़ी

सदियों पुरानी सामाजिक रूढ़ि जाति व्यवस्था को नकारती हमारी नई पीढ़ी

“जब मैं बड़ी हो रही थी, मुझे जाति व्यवस्था के बारे में कुछ भी नहीं पता था। मैं लोगों के नाम से उनकी जाति को पहचान भी नहीं पाती थी। मुझे जाति पदानुक्रम का कोई ज्ञान नहीं था और ना ही आदिवासी एवं दलितों के साथ होने वाली हिंसा और शोषण के बारे पता था।

ऐसा इसलिए था, क्योंकि मैं एक उच्च जाति से आती थी। दलित बच्चों के पास ये सुख कहां? उन्हें तो जन्म से ही अपनी जाति का पता होता है, क्योंकि वह उनके लिए एक जीवंत सत्य है। दलित बच्चों को स्कूल में ताने सुनने पड़ते हैं और उन्हें धमकाया जाता है। यह हकीकत 29 साल की प्राची विद्या द्वारा व्यक्त की गई है, जो मुंबई की एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जातिवाचक भेदभाव के खिलाफ काम करने वाली संगठन की सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं।

यह सच है कि बहुत सारे बच्चों के लिए उनकी जाति एक जीवंत नरक बन जाती है। महाराष्ट्र के पालघर ज़िले के विरार की निवासी 19 वर्षीय स्वाति मधे का जाति के कटु सत्य से तब सामना हुआ था, जब वह चौथी कक्षा में पढ़ रही 9 साल की बच्ची थी। वह स्कूल की वार्षिक परीक्षा में प्रथम आई थी और अपने दोस्तों को उत्साहित होकर अपनी रिपोर्ट कार्ड दिखाना चाहती थी, जब उसके पिता ने उसे यह कहकर रोक दिया कि, “इसमें हमारी जाति लिखी हुई है, इसलिए इसे किसी को दिखाने की ज़रुरत नहीं है।”

उस समय स्वाति अपने पिता से बहुत नाराज़ हुई थी, क्योंकि तब उसे जाति का मुद्दा समझ में नहीं आया था, लेकिन आज जब वह इसे अच्छे से पहचानती है, तो कहती है, “मुझे कोई शर्म नहीं है अपनी जाति पर उच्च जाति वालों को अपने जातिवाद पर शर्म आनी चाहिए, मुझे नहीं लेकिन पिता द्वारा कहे गए उन शब्दों के चोट का निशान आज भी मेरे मन मस्तिष्क में हैं।”

इस घटना का प्रभाव उसके जीवन पर इस प्रकार पड़ा कि उसने समाज से जातिवाद के खात्मे को अपना लक्ष्य बना लिया, वही विचार जो 90 साल पहले डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने रखा था। 

यह छुपा नहीं है कि उच्च जाति वाले अपने विशेषाधिकारों के बारे में बात नहीं करते हैं। वे अपनी जाति के कारण एक अच्छे स्थान पर हैं और जब भी उन्हें मिल रहे जाति संबंधी लाभों की बात होती है, वे तर्क देते हैं कि ‘योग्यता’ सब कुछ होती है।

कास्ट ब्लाइंडनेस (जाति की समझ न होना) एक विशेषाधिकृत व्यक्ति की निशानी है। उच्च जाति के विद्यार्थियों को जब आईआईटी, आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिलता है, तो वो सकारात्मक कार्यवाही को दोष देने लगते हैं। 

उच्च जातियों के अपने नेटवर्क और सामाजिक पूंजी होती है, जो रिश्तेदारी और पहचान से बनती है। वे एक छोटी मंडली बना कर एक-दूसरे को ही सहयोग देते हैं और जाति के नाम पर हो रहे अत्याचारों पर उच्च जाति की सार्वजनिक बातचीत कहीं नहीं दिखती है। “अब कहां है जात-पात? वह तो कब का खत्म हो गया है, नहीं?”

इस तरह से आप उन्हें बोलते हुए सुनेंगे  लेकिन हमने अमेरिका के सिस्को केस में देखा है कि किस प्रकार से जाति का प्रभुत्व अभी भी कायम है, जहां एक उच्च जाति के कर्मचारी सुन्दर अय्यर ने एक ‘नीची जाति’ के कर्मचारी की जाति के बारे में दूसरे सहकर्मियों को बताते हुए कहा कि उसमें कोई योग्यता नहीं है, उसे तो अपनी नीची जाति का लाभ मिला है। 

अमेरिका स्थित आंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय सेंटर ने इस भेदभाव के केस को केलिफोर्निया की अदालत में दर्ज़ किया और केस जीता। इस केस ने अमेरिका में भी हो रहे जाति आधारित सामाजिक और संस्थागत प्रक्रियाओं में खामियों को उजागर किया है। हैरत की बात यह है कि प्रतिभा के आधार पर समानता की बात करने वाली उस कंपनी ने अय्यर का साथ दिया ना कि उस दलित कर्मचारी का।

एक समाज के रूप में हमें यह समझना आवश्यक है कि जातिवाद हमारे समाज में विद्यमान है। इसके बावजूद हमें खुद को जातिवादी होने से बचाए रखना है, ताकि हम आने वाली पीढ़ी के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। 

स्वाति की तरह गुजरात के 15 साल के रमेश (बदला हुआ नाम) को भी अपने स्कूल में शिक्षक और सहपाठियों द्वारा किए गए भेदभावों का सामना करना पड़ा था। इस स्कूल में पीने के पानी की दो टंकियां थी, एक सवर्ण बच्चों के लिए और एक टंकी दलित बच्चों के लिए।

एक बार दलित बच्चों के पानी वाली टंकी में पानी खत्म हो गया, जब रमेश पानी लेने गया तो उसे पानी नहीं मिला। यह देखते हुए उसके दोस्त भुवन ने सवर्ण बच्चों वाली टंकी से एक गिलास पानी लाकर रमेश को दे दिया और  यह देख कर दूसरे बच्चे भौंचक्का रह गए, क्योंकि इससे पहले उन्होंने इस अलिखित नियम को कभी टूटते हुए नहीं देखा था।

उन्होंने यह बात कक्षा अध्यापक को बताई जिसने भुवन को नियम तोड़ने के लिए सज़ा दी लेकिन भुवन इस बात से बिल्कुल भी डरा नहीं। उसने कहा कि इस तरह से दो अलग-अलग टंकियां रखना सरासर भेदभाव और असंवैधानिक है।

कक्षा अध्यापक ने भुवन के पिता को स्कूल आने का नोटिस भेजा लेकिन उन्होंने ना केवल स्कूल आने से साफ इंकार कर दिया बल्कि उन्होंने अपने बेटे के कार्यों का खुलकर समर्थन किया। यह बात सब जगह फैल गई और भुवन के गाँव के दोस्तों ने उससे बात करना बंद कर दिया। भुवन इस बात से परेशान नहीं हुआ, उसने कहा, “कोई बात नहीं, मेरे पास रमेश जैसा दोस्त है बात करने के लिए।”

अफसोस की बात यह है कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी भारत में जातिवादी व्यवस्था हावी है और बहुत सारे गाँवों में आज भी दलित बच्चों को सवर्ण बच्चों से पानी मांग कर पीना पड़ता है, क्योंकि उन्हें पानी की टंकी को छूने की अनुमति नहीं होती है।

यह दमन सदियों से चला आ रहा है लेकिन सुखद बात यह है कि अब नई पीढ़ी इसे स्वीकार करने की जगह इसमें बदलाव के लिए तैयार हो रही है। धीरे-धीरे ही सही, एक परिवर्तन आ रहा है, क्योंकि एक ओर जहां भुवन जैसे निम्न जाति के बच्चे इसके विरुद्ध जागरूक हो गए हैं और अपने दैनिक जीवन में जातिवाद को खारिज करने को तैयार हैं वहीं प्राची जैसी उच्च जाति की लड़कियां आगे बढ़ कर इस लकीर को मिटाने के लिए प्रयासरत है यानि ताली दोनों हाथों से बज रही है।  (चरखा फीचर)

अलका गाड़गिल, महाराष्ट्र (यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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