महिलाओं के शरीर में खास पोषक तत्वों की कमी के कारण कई मुश्किलें खड़ी होती हैं। हम गौर से देखें, तो इसके पीछे हमारी परंपरागत सोच के साथ-साथ आधुनिक जीवनशैली की आदतें भी हैं। मसलन जहां एक तरफ काम की वजह से देर रात तक जागना, सुबह उठकर खाली पेट चाय पी लेना, पोषक खान-पान की जगह पर चिप्स, बिस्किट या जंक फूड पर निर्भर रहना।
वहीं दूसरी तरफ अधिकांश घरों में अंतिम कौर खाने वाली औरतें सेहत के मामले में भी आखिरी सिरे पर होती हैं। कम खाना और सबको खिलाने के बाद बचा-खुचा खाना हमेशा से हमारे समाज के सामाजिक परिवेश में स्त्रियोचित समझा जाता रहा है।
जाहिर है आदर्श भारतीय नारी बनने का दबाव में, उन्हें बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है। महिलाओं का घर-परिवार और समाज में आदर्श भारतीय नारी के कारण ही देश की पचास फीसदी से अधिक महिलाओं में खून की कमी की शिकायत है और अधिकतर कुपोषण से उपजी बीमारियों का सामना कर रही हैं। यह एक कठोर सामाजिक यथार्थ है जिसके सामने आंखे बंद तो नहीं की जा सकती हैं।
एक अनुमान के अनुसार, आज़ादी के बाद के दशकों में महिलाओं की औसत उम्र इतनी कम थी कि कोई महिला 32 साल तक ही जीने का ख्याल कर सकती थी। उस समय उनकी ज़िन्दगी भगवान-भरोसे थी, देश की स्वास्थ्य सेवा बेहतर नहीं थी, बाल मृत्यु-दर अधिक होने के कारण महिलाओं पर संतान पैदा करने का दवाब भी अधिक था।
आज हम स्वास्थ्य सेवा में थोड़े बेहतर हुए हैं, तो महिलाओं की औसत आयु 63 वर्ष तो हो गई है परंतु सेहतमंद ज़िन्दगी अब भी उनकी पहुंच से कोसों दूर है। महिलाओं के स्वास्थ्य एवं उनसे सम्बन्धित कई समस्याओं पर तो आज भी हमारे समाज में खुलकर बात भी नहीं होती है, कई समस्याओं के लिए डाक्टरी सलाह, तो दूर की कौड़ी लाने के बराबर है।
आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि महिलाओं का स्वास्थ्य किसी परिवार की आर्थिक क्षमता पर निर्भर नहीं करता बल्कि कई कारण हैं, जो उनकी ज़िन्दगियों की घड़ियां तय करते हैं। मसलन कोई महिला अगर केरल में पैदा हुई है, तो वह 75 साल तक भी जीने की सोच सकती है लेकिन वही महिला अगर हिंदी हार्ड लैंड में पैदा हुई है, तो 65 से ज़्यादा जीने की उम्मीद नहीं कर सकती।
अगर शहरी और ग्रामीण महिलाओं की तुलना करें, तो उसमें तीन-चार साल जीने का सुख जोड़ा जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं की मृत्युदर का परिवार की आय या आर्थिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। परिवार व सामाजिक दृष्टिकोण ही उन्हें बीमार और एक अविकसित ज़िन्दगी जीने को मज़बूर करता है। घर-परिवार में महिलाओं के अस्वस्थ होने पर डाक्टरी सलाह लेने का चलन शहरी मध्यवर्गीय परिवार तक ही सीमित है।
भारत सरकार के महिला आयोग द्दारा किया गया एक सर्वेक्षण बताता है कि भारत में 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनीमिया ग्रस्त हैं। एनीमिया अब महिलाओं की ही बीमारी बन गई है। एनीमिया का विस्तार केवल ग्रामीण भारत में ही नहीं शहरी मध्यवर्गीय महिलाओं के बीच में भी है।
सही पोषण और संतुलित आहार ना मिलने के कारण अक्सर महिलाओं को आलस्य, भूख की कमी और सांस फूलने की शिकायत होती हैं। इसे आमतौर पर हमारे समाज में महिलाओं के नखरे कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है लेकिन यही एनीमिया के प्रारंभिक लक्षण हैं। हीमोग्लोबिन की कमी या शरीर में हीमोग्लोबिन ना बनना भी एक प्रमुख लक्षण है।
गर्भावस्था या बीमारी के दौरान सही पोषण ना मिलने, कुपोषण और कम अंतर से बच्चे पैदा करना, ऐसे कुछ प्रमुख कारण हैं, जो एनीमिया के लिए मुख रूप से ज़िम्मेदार हैं। एनीमिया पीड़ित होने के कारण महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान भी कई तरह की परेशानियां होती हैं।
कई मामलों में सामान्य से कम वजन के बच्चे पैदा होने की आशंका रहती है। इस तरह कुपोषण का एक चक्र चलता रहता है। भारत में माँ बनने योग्य आयु में एक चौथाई महिलाएं कुपोषित हैं और उनक बॉडी मास इंडेक्स 18.5किलोग्राम/एम से कम है। (स्त्रोत: NFHS4 2015-16) यह सभी को पता है कि एक कुपोषित माँ अवश्य ही कमज़ोर बच्चे को जन्म देती है और कुपोषण चक्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।
कई महिलाएं जो एनीमिया से पीड़ित हैं, उनसे बात करने पर पता चलता है कि उन्हें खाने-पीने में कोई दिक्कत नहीं है पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि खाना वो पेट भरने के लिए खाती हैं या स्वाद के लिए या अच्छी सेहत के लिए नहीं शायद इसलिए भी घर वाले भी इस बात पर ध्यान नहीं देते है।
ऐसा बहुत कम ही घर देखने को मिलते है, जहां घर के सभी सदस्य एक साथ मिलकर खाना खाते है। यह भी सही है कि बहुत कम ही घर हैं जहां पौष्टिक भोजन पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। एनीमिया की अधिक शिकायत और जागरूता अभियान के बाद इस बात में तेज़ी आई है कि घर के बाकी सदस्य भी महिलाओं के खाने पर ध्यान देने लगे हैं जिसके कारण गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की मृत्युदर में कमी आने लगी है।
विमेन्स हार्लिक्स जैसे उत्पाद का प्रचार आने के बाद सीमित संख्या में महिलाओं के लिए एनर्जी ड्रिक लेने का चलन बढ़ा है परंतु जिस भारतीय समाज में अपनी आर्थिक समस्याओं के कारण महिलाओं में माहवारी के दौरान सैनेटरी पैड्स नहीं कपड़ों का इस्तेमाल करने का चलन ज़्यादा है। वहां एनर्जी ड्रिक के लिए विमेन्स हार्लिक्स जैसे उत्पाद का इस्तेमाल की बात करना महज़ एक कोरी कल्पना है।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के नतीजे बताते हैं कि देशभर में 15 से 24 साल के बीच 62 प्रतिशत युवतियां अब भी मासिक धर्म के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं।
चिकित्सा के क्षेत्र में हो रहे बदलावों के कारण स्थितियों में सुधार हो रहा है लेकिन सामाजिक मानसिकता में बदलाव की गति बहुत धीमी है। शहरी मध्यवर्ग इस दोहरे मार से धीरे-धीरे उबर रहा है लेकिन गाँवों में अभी भी बेटियों के बजाय बेटों को ह्र्ष्ट-पुष्ट बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाता है, जब तक यह मानसिकता नहीं बदलती है, तब तक महिलाओं के लिए सेहतमंद ज़िन्दगी जीने का सपना अभी कोसों दूर है।