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“आज भी हमारे देश में महिलाएं पितृसत्ता की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं”

"आज भी हमारे देश में महिलाएं पितृसत्ता की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं"

“बेटी जब जन्म लेती है, तो गाँव-समाज की आंखों से आंसू इसलिए नहीं निकलते हैं कि बेटी हुई हैं? बल्कि इसलिए निकलते हैं  कि बेटी अच्छे घर में ब्याह कर चली जाती है, तब उसके साथ-साथ उसके परिवार का जीवन सफल होता है।”

इस बात में कहां तक सच्चाई है? हम इस बात से मुकर नहीं सकते कि हमारे समाज के लोगों के जरिये ही यह धारणा बनाई गई है। यह धारणा आज से नहीं एक लम्बे समय से चली आ रही है, तब तो लड़कियों (बेटी) का ब्याह करना ही उनका (सिर्फ विवाह) कर्तव्य होता था।  

आप सोच रहे होंगें कि मैं ये बात क्यों कर रही हूं, क्योंकि ये हमारे समाज में एक अहम भूमिका निभाने वाले वर्ग के साथ हो रही है और ये मुद्दा तब तक हमारे और आपके बीच रहेगा जब तक इसमें सुधार ना हो जाए लेकिन सवाल यह है कि क्या यह कभी खत्म होगा?

यह सोच हमारे समाज में घात लगाए हुए है। आखिर कब तक चलेगा ऐसे? हम एक विशेष वर्ग को इन प्रथाओं में धकेल रहे हैं, जो हमारे और आपके साथ कदम मिलाकर ना सिर्फ अपने समाज में बल्कि देश में बदलाव के लिए अहम भूमिका निभा सकती हैं जिस पर हमारा ध्यान जाता ही नहीं और अगर जाता भी है, तब तक बहुत देर हो गई होती है।

जहां एक ओर देश की बेटियां ना सिर्फ देशों बल्कि विदेशों में भी अपने देश का नाम रोशन कर रही हैं। वहीं कभी हमने सोचा है कि अभी भी उनका एक ऐसा बड़ा हिस्सा है, जो समाज की कुरीतियों को अपना जीवन समझ उन्हें व्यतीत कर रहा है।

इस पितृसत्तात्मक वाले देश में बेटी/लड़कियों को शुरू से ही वंचितों का जीवन व्यतीत करने के लिए मज़बूर किया जाता है। आज भी कहीं-ना-कहीं ऐसी सामाजिक कुरीतियां एक बहुत बड़े हिस्स में पनप रही हैं। हमारे समाज का एक बहुत बड़ा तबका यह तय करता है कि उसे (बच्चियों) क्या करना है और क्या नहीं। 

गाँवों में आज भी पांच से छः साल की बच्चियों को खाना पकाना (वो भी जलावन पर), झाडू करना, घर-आंगन, लीपना, अपने से छोटे भाई-बहन की देखभाल करना, ये उनकी कार्यशैली हो जाती है। ये उच्च वर्ग में थोड़ा कम है लेकिन निम्न वर्ग में इसका स्तर काफी ज़्यादा है।

वहीं एक ओर उन्हें बताया जाता है कि पुरूष वर्ग चाहे उसका भाई हो, पिता हो या फिर उसकी ज़िन्दगी से जुड़े तमाम पुरूष वर्ग के अधीन रहना है और लड़कियों का शोषण वहीं से शुरू हो जाता हैं। लड़कियां /महिलाएं भी पुरूषों के अधीन रहना ही बेहतर समझती हैं। यह सोच लगातार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कायम रही है या यूं कहें की चलती रही है।

महिलाओं /लड़कियों का शोषण हमेशा से होता रहा है और यह उनके लिए तय उसी समाज के लोग कर रहे हैं जिनकी नियत दोहरी है। लड़कियों के लिए अलग यानि शिक्षा से दूर, उन्हें घरेलू परिवेश में घुल-मिलकर रहना ही बेहतर माना जाता है।

वहीं लड़कों के लिए हमारे समाज में (खासकर गाँवों में) औरतों के दिमाग में यह डाल दिया गया है कि वो (लड़का) समाज में, घरों में सवांग (वंश) होता है। यही वजह है कि भ्रूण हत्या में ना सिर्फ पुरूष बल्कि महिलाएं भी अपनी सोच को उसी तरफ रखती हैं। 

ये तमाम चीज़ें तब तक नहीं बदलेगी जब तक समाज लड़कियों को उनके हकों, अधिकारों के लिए जागरूक नहीं होने देगा। यह तब होगा जब उन्हें सबसे महत्वपूर्ण अधिकार ‘शिक्षा का अधिकार ‘जो हर वर्ग के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना की ‘जीवन का अधिकार ‘ यह कोई समाज तय नहीं करेगा कि हम उन्हें (लड़कियों) किन अधिकारों को दे सकते है और किनसे उन्हें वंचित रख सकते हैं। शिक्षा हमें जीवन जीना सिखाती है।

अब यह तय हमें करना है कि क्या हम उस तरह के समाज की परिकल्पना करते हैं जिसे निर्धारित चंद लोगों द्वारा बनाया गया है या फिर बदलाव के लिए ना सिर्फ लड़कों को बल्कि लड़कियों की भी बराबर की भागीदारी महत्वपूर्ण है। 

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