“हिंसक होकर आप नेताओं के तलवे चाटें, राजनीति कहे तो आप भौंकें, राजनीति कहे तो आप काटें” विवेक विद्यार्थी की उपर्युक्त पंक्तियां वर्तमान समय में राजनीति के बदलते परिवेश पर युवाओं के लिए सटीक बैठती हैं।
साधारणतः युवाओं के बारे में ऐसी बातें प्रचलित हैं कि उनकी इच्छाशक्ति हिमालय से भी विशाल होती है, वे जो कुछ ठान लें तो उनके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है परन्तु वर्तमान समय में युवाओं की इच्छाशक्ति समाप्त होती जा रही है और उसकी मुख्य वजह है उनमें स्वविवेक का नितांत अभाव होना।
युवाओं से उम्मीद की जाती रही है कि उनका अतीत से रिश्ता कमज़ोर रहेगा और वे सुनहरे भविष्य को पाने हेतु नए दुर्गम रास्तों को चुनेंगे। मगर वास्तव में वर्तमान समय में युवा ‘लकीर के फकीर’ बनते दिख रहे हैं। उनके सोचने और समझने की शक्ति आज भी अपने अतीत के साथ ही बढ़ रही है।
अतीत के साथ चलना बुरा नहीं है मगर अतीत को ही वर्तमान में ज़ारी रखना कहीं-ना-कहीं रूढ़िवादिता है और रूढ़िवादिता आपके सर्वांगीण विकास में अहम बाधक है। गांधी उन्नीसवीं शताब्दी में प्रासंगिक थे और उनके विचार अनुकरणीय थे, परन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में जब दुनिया मिसाईल बना चुकी है और परमाणु बम की धमकियां हर रोज़ मिल रही हों, तो ऐसे में अहिंसा के बल पर दुश्मन से दो हाथ करना कहीं भी तर्कसंगत नहीं है।
जब विश्व में इंसानों से ज़्यादा हथियार हो गए हों, तो ऐसे में आप निहत्थे होकर हथियार वालों को डरा तो नहीं सकते हैं, हां उनके रहमोंकरम पर जीवित ज़रूर बच सकते हैं।
कॉंग्रेस ने भारत पर लगभग साठ वर्षों तक एकनिष्ठ शासन किया। उसने अपने स्तर तक विकास में भी कोई कोताही नहीं बरती मगर कॉंग्रेस ने भी अहिंसा को उतना ही महत्व दिया, जितनी आवश्यकता थी। उसने भी ज़रूरत पड़ने पर 1962 में हुआ भारत-चाइना युद्ध हो, 1965 में हुआ भारत-पाकिस्तान युद्ध हो, 1971 में हुआ भारत-पाकिस्तान युद्ध हो या फिर 1975 का ऐतिहासिक इमरजेंसी हो किसी भी कड़े निर्णय को लेने से गुरेज नहीं किया, क्योंकि तत्कालीन शासकों ने इस बात को समझ लिया था कि गांधी के विचार अनुकरणीय हैं मगर सर्वदा नहीं।
भारत में सत्ता परिवर्तन के उपरांत एक ऐतिहासिक माइंडेड के साथ नरेंद्र मोदी का सत्ता में आगमन हुआ और देश की जनता ने उन्हें इस उम्मीद के साथ ऐतिहासिक जीत दिलाई, क्योंकि उन्हें देश के लिए एक ऐसे सशक्त शासक की आवश्यकता थी, जो आवश्यकता पड़ने पर कड़े-से-कड़े फैसले लेने में ना हिचके।
इस जीत की जो अहम आधार स्तम्भ थी। वह इस देश की ऊर्जावान युवा शक्ति थी, जिन्होंने अपनी इच्छाशक्ति को सशक्त किया और विशाल जीत के भागीदार बने। हालांकि, शुरुआती दौर में मोदी ने जनता के विश्वास को खूब जीता और जनता के फैसले को सही साबित किया परन्तु सत्ता की कुर्सी में ही दोष है, जो भी इस पर बैठता है, उस व्यक्ति में सत्ता का मोह इस पर ज़्यादा देर तक बैठने की लालसा जगा देता है। यह लालसा ही सत्ता की इस कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को आम जनमानस के विरोध में लिए गए गलत फैसलों को भी मंजूरी देने को मज़बूर कर देती है, जिसे हम सत्ता की सहिष्णुता कह सकते हैं।
वर्तमान मोदी सरकार ने भी सत्ता की सहिष्णुता को ही अपनाया है और उसने एक-के-बाद देश के आम जनमानस के विरोध में गलत फैसले लिए मगर दुर्भाग्य है देश के युवाओं का उन्होंने उन फैसलों का बिल्कुल भी विरोध नहीं किया।
वो चाहते तो देश की सत्ता की कुर्सी पर बैठे प्रमुख को यह एहसास दिला सकते थे कि आखिर हमने विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की सत्ता की बागडोर आपको क्यों सौंपी है मगर देश की युवा शक्ति ने सत्ता प्रमुख द्वारा लिए गए आम जनमानस विरोधी गलत फैसलों को या तो सहजता से स्वीकार कर लिया या फिर सत्ता के विरोध के नाम पर दो-चार सोशल साइट्स पर कुछ पोस्ट कर दिया और अपनी इति श्री कर ली।
देश की युवा शक्ति सत्ता प्रमुख को लेकर एक लम्बे समय से उपजे असंतोष को विरोध के रूप में कभी धरातल पर लाई ही नहीं। इन जनविरोधी फैसलों में अब चाहे किसान विरोधी किसान कानूनों की मनमानी नीतियां रही हों या फिर सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी एक्ट को बदलने का फैसला लेकिन इन जनविरोधी सत्ता के फैसलों पर देश में कभी भी युवाओं द्वारा कोई विरोध दर्ज नहीं कराया गया और ना ही सत्ता प्रमुख से आम नागरिक के प्रति उसकी ज़वाबदेही पूछी गई।
सत्ता के इन जनविरोधी फैसलों का विरोध केवल बुजुर्गों ने किया, वे बुजुर्ग जो देश के अतीत के अंश सेजुड़े हुए थे।अतीत कभी भी वर्तमान के संग मिलकर नहीं रह सकता, क्योंकि अतीत का दाग वर्तमान के साथ-साथ चलता है परन्तु यह जानते हुए भी देश के युवाओं ने उनसे आंदोलन अपने हाथों में नहीं लिया। युवाओं ने बस सोशल मीडिया से अपना आंदोलन जारी रखा।
कल जब भारत के प्रधानमंत्री की चुनावी रैली पंजाब में सुनियोजित थी और मौसम के हाल को देखते हुए रूट डाइवर्जन की वैकल्पिक सुविधा उपलब्ध थी। ऐसे में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक कहीं-ना-कहीं सरकारी व्यवस्था की लचर कानून व्यवस्था को उजागर करता है और ऐसे में केंद्र सरकार और पंजाब सरकार के बीच एक-दूसरे पर ज़िम्मेदारी थोपने की प्रक्रिया पूर्णत: गैरज़िम्मेदाराना है।
आखिर आप देश के प्रधानमंत्री हैं और आपके पास एक ऐतिहासिक जनमत की सरकार है फिर आप राजनैतिक इच्छाशक्ति क्यों नहीं दिखा रहे हैं? क्यों नहीं कोई सशक्त निर्णय ले रहे हैं? आखिर क्यों अपने आप को असहाय साबित कर रहे हैं? देश की जनता ने एक सशक्त शासक को सत्ता की कुर्सी दी थी, एक असहाय राजनेता को नहीं।
यदि कड़े निर्णय ले पाना आपके लिए संभव नहीं है, तो फिर आप सत्ता की कुर्सी और सत्ता की अभिलाषा को छोड़ दीजिए, क्योंकि सत्ता की अभिलाषा ही एक शासक को नपुंसक बना देती है।
देश के युवाओं ने सुरक्षा में हुई इस चूक को मज़ाक में ले लिया और अपने अतीत का अनुसरण किया जबकि वास्तव में युवाओं को इस चूक के लिए केंद्र और राज्य दोनों से सवालात करने थे कि आखिर जब देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक हो सकती है तो फिर आम नागरिक की सुरक्षा का क्या होगा?
अब इसके कुछ भी राजनैतिक कारण बताए जाएं कि उनकी राजनैतिक रैली में भीड़ बहुत कम थी या फिर अचानक मार्ग परिवर्तन से ऐसा हुआ परन्तु वास्तविकता यही है कि जब भारत ने सुरक्षा कारणों में हुई चूक के कारण अपने दो-दो प्रधानमंत्री गवां दिए और साथ-ही-साथ ताशकंद की घटना जगजाहिर है ऐसे में इस प्रकार की असावधानी को हम मजाक का विषय कैसे बना सकते हैं?
आखिर इस हुई चूक की ज़िम्मेदारी कब तय होगी? जब कुछ बहुत बड़ी अनहोनी घटना घटित हो जाएगी तब? जबकि पुलुवामा से लेकर, प्रथम सीडीएस के प्लेन क्रैश तक में कोई ज़िम्मेदार तय अब तक नहीं हुआ है, क्यों?
आखिर अब किस बात का इंतज़ार है? देश की सत्तारूढ़ सरकार के लिए यह एक सबक है कि यदि वो इसी तरह अपनी ज़िम्मेदारियों से भागती रहेगी, तो समस्याएं और विकराल रूप धारण करती जाएंगी और युवाओं को भी यह सोचना होगा कि सोशल मीडिया की क्रांति यदि धरातल पर नहीं आई, तो कभी भी किसी की भी ज़िम्मेदारी तय नहीं होगी फिर आप भेड़चाल में पक्ष-विपक्ष के लिए लड़ते रह जाएंगे। इसलिए यह आवश्यक है कि ज़िम्मेदारों की ज़िम्मेदारी तय की जाए और उन पर कार्यवाही होनी चाहिए।