129 साल पहले जब विदेशी मेहमानों के सामने शिकागो के मंच से स्वामी विवेकानंद ने भाषण दिया तो कई मिनटों तक तालियों की गूंज हर तरफ गूंजती रही। पूरी दुनिया के सामने भारत की सभ्यता, संस्कृति और गौरव का ऐसा परचम लहराया कि वह भाषण आज के दौर में भी बहुचर्चित और प्रासंगिक बना हुआ है।
व्यक्तित्व और युवाओं के प्रति निष्ठा की एक ऐसी सदी गुज़रने के बाद भी विवेकानंद जी का जन्मदिवस हर वर्ष 12 जनवरी को सम्पूर्ण देश में पूरे उत्साह के साथ “राष्ट्रीय युवा दिवस” के नाम से मनाया जाता है।
आज के युवा, जो कल के भविष्य हैं, उन्हीं के कंधो पर राष्ट्र के निर्माण की नींव खड़ी है, इन कंधो का मज़बूत होना बहुत आवश्यक है। देश के युवाओं को प्रेरित करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने बारम्बार कहा है,
“उठो मेरे शेरों, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो। तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो। तुम तत्व नहीं हो, ना ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है, तुम तत्व के सेवक नहीं हो।”
लेकिन आज का युवा स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष के सिद्धांतों पर अमल करना तो दूर उनके बारे में जानता तक नहीं। आज का युवा अंग्रेज़ी में बात करना अपनी काबिलियत और विदेशी संस्कृति का अनुसरण करना अपनी शान समझता है लेकिन वह यह भूल गया है कि इसी वेस्टर्न कल्चर के बुद्धिजीवी व्यक्ति भी स्वामी विवेकानंद द्वारा भारत की प्राचीनता, सभ्यता और संस्कृति पर दिए गए भाषण का लोहा मानते हैं।
1893 के समय जब भारत अंग्रेज़ों का गुलाम था, उस समय पराधीन भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखा जाता था। इस दृष्टिकोण के चलते शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व करते समय विवेकानंद के खिलाफ भी प्रयत्न किया गया कि उन्हें सर्वधर्म परिषद् में बोलने तक का समय नहीं दिया जाए लेकिन 11 सितम्बर, 1893 की शाम जब विवेकानंद ने पूरब का असल परिचय पश्चिम को कराया, तो दुनिया भर में भारत का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता का गौरव बढ़ा।
“लेडीज़ और जेंटलमेंट” के कल्चर का अनुसरण करने वालों से जब स्वामी ने “बहनों और भाईयों” कह कर सम्बोधित किया तो सम्पूर्ण सदन आह्लादित हो गया। विश्व पटल पर ऐसा पहला सुअवसर था कि जब भारतीयों को तुच्छ समझने वाले पश्चिमी लोग एक भारतीय सनातन संत की वाणी से चकित रह गए। उस वक्त भारत माता का सपूत और सनातन संस्कृति का वाहक, शेर की भांति दहाड़ रहा था और दुनिया मूकदर्शक बन उसे गौर से सुन रही थी।
विवेकानंद के युग का अस्त सही समय पर हुआ, क्योंकि आज के इस युग में जहां अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए इंसान दूसरे इंसान को नोच खाने में भी नहीं झिझकता, वहां अपने जीवन को दूसरों के लिए त्याग देने वाले विवेकानंद जी कहां टिकते?
आज का युवा जो धूम्रपान, शराब और नशे में धुत है। वहां युवाओं को लक्ष्य प्राप्ति, सिद्धांतवाद और निर्दिष्टता का ज्ञान देने वाले विवेकानंद जैसे दृष्टिगत व्यक्ति कहां से टिकते? आज जहां गरीबी मिटाने का काम केवल चुनावों के नारों तक ही सीमित रह गया है, वहां अपने जीवन को ही गरीबों के नाम करने वाले विवेकानंद जैसे सापेक्ष व्यक्ति कहां से टिकते?
आज का युवा जो मेहमानों को गाली देना अपनी ज़िम्मेदारी समझता है, वहां खुद बारिश में बाहर ज़मीन पर सो कर, मेहमानों को भगवान का दर्ज़ा देते हुए अपने बिस्तर पर सुलाने वाले विवेकानंद जैसे दयालु व्यक्ति कहां से टिकते?
देश में आज का नवयुवक जो अन्याय को होते देख अपना मुंह फेर लेता है, वहां निर्बल पर हो रहे अत्याचारों का मुंहतोड़ जवाब देने वाले विवेकानंद जैसे वीर सपूत कहां से टिकते?
आज के हालातों को दृष्टिपात करते हुए ऐसा लगता है कि देश की संस्कृति, गौरव और स्वाभिमान की रक्षा के लिए हर घर में एक बालक नरेंद्र का होना आवश्यक है, जो बड़े होकर स्वामी विवेकानद बन कर इस पाश्चात्य संस्कृति के अन्धकार में डूबे युवाओं का नेतृत्व कर सके और सम्पूर्ण देश को दिशागति दे सके।