मेरी नज़र कमज़ोर होने लगी थी। चश्मा था, लेकिन लैंस पर धूल जमी थी। बरसों पुरानी धूल साफ किए साफ नहीं होती है और सब कुछ धुंधला सा दिखाई देता था, जो हो रहा था अच्छा ही चल रहा था।
कभी सोचा नहीं मेरे सामने रोड़ पर रहने वाले लोगों की इस स्थिति का कारण सामाजिक भी हो सकता है। मैंने कभी गौर नहीं किया कि जिस समाज, संस्कृति, समुदाय का हम बिगुल बजाते फिरते हैं उसका असल मतलब क्या है?
यूं तो पिछली क्लासेस की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में बच्चे की समाज और अपने आसपास हो रही घटनाओं के प्रति समझदारी विकसित करने की भरसक कोशिश की जाती है लेकिन उस समय इतनी समझ नहीं थी कि काले अक्षरों में लिखी इन बातों की असल में क्या अहमियत है?
मैंने अपने समाज को वैसे ही देखा जैसा मेरे टीचर, घरवालों ने बताया। इन सब में नज़र तो मेरी थी, नज़रिया किसी और का! मैंने अपनी समझदारी की खिड़की से झांकने की कम कोशिश की। यही कारण रहा कि मुझे रौशनी मिली ही नहीं।
10वीं कक्षा में आकर लगा मानो, मैं बोर्ड एग्ज़ाम की नहीं, यूपीएससी के एग्ज़ाम की तैयारी कर रही हूं। मैं एक मशीन की तरह लगी सब कुछ ‘याद’ करने में लगी हुई थी। यदि मैं इस बात को सही शब्दों में कहूं, तो मैं बस ‘अच्छे नंबर’ लाने की दौड़ में भाग रही थी।
मैं अपनी पसंद-नापसंद, अपनी अभिरुचियों, अपनी इच्छाओं से समझौता कर बैठी थी। मेरी दो सबसे पसंदीदा अभिरुचियां हैं लिखना और पढ़ना। कक्षा 10वीं का तकरीबन आधा साल मैंने केवल उन पेपरों की तैयारी में गुज़ारा जिनमें ना तो रचनात्मकता के लिए और ना ही किसी भी प्रकार के नवाचार के लिए जगह थी। मैंने इन सब के चलते 6 महीने खुद को लिखने और पढ़ने से लगभग दूर ही कर लिया था।
मैं यह गलती 11वीं में नहीं दोहराना चाहती थी। इसलिए अब की बार जब सब्जेक्ट चुनने की बारी आई, तो बिल्कुल भी देर नहीं लगी मन को मनाने में कि मुझे सोशल साइंस या मानविकी लेना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मेरी साइंस से कोई दिली दूरी है लेकिन जियोग्राफी, पॉलिटी और सोशियोलॉजी से मेरा एक अलग ही जुड़ाव है।
छठी क्लास में मेरा पॉलिटी और जियोग्राफी जैसे दो विषयों से परिचय हो गया था। सोशियोलॉजी एक नया विषय है। भले ही सोशियोलॉजी विषय से हाल ही में परिचय हुआ लेकिन मैं इस खूबसूरत धरती में पहली सांस लेने से अभी तक उसी समाज का हिस्सा हूं, जिसका अध्ययन सोशियोलॉजी करता है।
मैं जैसे-जैसे सोशियोलॉजी पढ़ रही हूं, अपने समाज और खुद को बेहतर समझ पा रही हूं। सोशियोलॉजी वो आईना है जिसमें मेरा असल वजूद झलकता है। उसमें केवल रिया नहीं दिखती। हर उस शख्स की छाया नज़र आती है जिससे मिलकर रिया बनी है। हर इंसान कुछ लोगों के झुंड के साथ रहता है, जो एक समाज बनाते हैं। हर इंसान का समाज के बगैर कोई अस्तित्व ही नहीं है।
समाज में हो रही घटनाओं पर हम गौर ही नहीं कर पाते हैं, क्योंकि हम उनके आदी हो चुके होते हैं। हमें लगता है कि एक इंसान जिसके पास खाने के लिए रोटी और रहने के लिए घर नहीं है, यह उसका ‘पर्सनल मैटर’ है। मेरा भी यही मानना था, लेकिन जबसे अपने आस-पास की चीज़ों को सोशियोलॉजी के नज़रिये से देख रही हूं, तब समझ आया कि लोगों की गरीबी का मुख्य कारण वह पूरी व्यवस्था है, जिसने कभी उन्हें बराबर के मौके दिए ही नहीं।
‘पर्सनल मैटर’ जैसा कुछ नहीं है। यह उस समाज की कमी है, जो अपने सभी सदस्यों के लिए पूर्णत: रूप से समावेशी ना हो पाया। ऐसा ही हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति में भी देखा जा सकता है, जिस घर में कोई बच्चा हमेशा ही अपने पापा से अपनी माँ को पिटते हुए देखता है, जहां हरदम महिलाओं की आवाज़ को दबाया जाता है, वहां महिलाओं की पुरुषों से बराबरी की उम्मीद करना भी अपराध है।
अपना ज़मीर बेचे हुए ठेकेदारों के समाज में महिलाएं महज़ एक खिलौना बनकर रह जाती हैं। बरसों से महिलाओं पर राज करती आ रही पितृसत्ता सोने के इस सिंहासन को कभी नहीं छोड़ना चाहती है। उन्हें डर है कि अगर महिलाएं बगावत करने पर आ गईं, तो वे इस सामाजिक ढांचे की संरचना में परिवर्तन कर देंगी, साथ ही समाज का एक अनोखा रूप हमारे सामने होगा, जिसमें पितृसत्ता का अंत हो जाएगा।
सोशियोलॉजी को पढ़ने में मुझे इसलिए भी मज़ा आ रहा है, क्योंकि इसका ‘सब्जेक्ट मैटर’ हम खुद हैं। हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हो रही घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करना ही सोशियोलॉजी पढ़ना है। इसके लिए हमें खुद को, समाज को, अपने चारों ओर के सामाजिक आवरण के ढांचे को एक्सप्लोर करना ही होगा।
किसी भी विषय में अपनी पकड़ मज़बूत बनाने के लिए हमें उससे सम्बंधित साहित्य पढ़ना बेहद ही ज़रूरी होता है। कोर्स की किताब में कॉन्सेप्ट समझकर बाकी साहित्य में उन्हें ढूंढना, फिर धरातल में उतारना एक बहुत ही मज़ेदार प्रक्रिया है।
मेरा रोज़ सीखना और समझना ज़ारी है। हर दिन मेरा विश्वास पक्का होता जा रहा है कि यह सब्जेक्ट चुनकर मैंने बिल्कुल सही किया है शायद किसी और के कहने पर यदि मैं विषयों का चुनाव करती, तो उनके दिखाए रास्ते पर चलती लेकिन मैंने अपने पदचिह्न खुद बनाने का फैसला लिया और अब लग रहा है कि मैं अपनी ज़िंदगी जी रही हूं, किसी और की नहीं!