नागौर से 22 किलोमीटर दूर मूंडवा कस्बा आधुनिक विकास और पारंपरिक व्यवस्थाओं के बीच सामंजस्य के साथ विकसित हो रहा है। इस कस्बे के पास एक सीमेंट का प्लांट निर्माणाधीन है, जिससे मूंडवा ही नहीं, आस-पास के कई गाँवों की भी आबोहवा बदलने वाली है लेकिन वर्तमान में मूंडवा तथा आस-पास के गाँवों के लोग ना केवल अपने पारंपरिक जल संसाधनों के रख-रखाव से प्रकृति का पोषण करने के अपने मानवीय कर्तव्य को जीवन में समाहित किए हुए हैं बल्कि पुरातन काल से आज तक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों से अपनी परंपराओं को बचाकर रखे हुए हैं।
गाँव के निवासी रामनिवास मुंडेल के अनुसार, मूंडवा कस्बा मुंडेल जाट समुदाय ने बसाया था। पूर्व में मंडोर (जोधपुर) इसकी की राजधानी हुआ करती थी, जब राजनीतिक व्यवस्था बदली और जोधपुर में राजपूतों की सत्ता स्थापित हुई, तब मुंडेल जाति के लोगों को बसने तथा कृषि एवं पशुपालन से जीविकोपार्जन के लिए मूंडवा का क्षेत्र दिया गया।
मंडोर से विस्थापित होकर वर्तमान मूंडवा कस्बा बसाया गया। उस समय यहां पीने के पानी की प्रमुख समस्या थी और यहां भूजल का स्तर गहरा तथा अत्यंत खारा था। बरसात के पानी को सहेजने के लिए छोटे-छोटे नाले और तलाइयां बनाई गईं, जिनमें से आज कुछ विशाल तालाब का रूप ले चुके हैं।
कस्बे के बीच बने पोखंडी व लाखा तालाब ना केवल कस्बे की पेयजल पूर्ति के संसाधन है, बल्कि इनके आस-पास लगे वृक्ष वातावरण को शुद्ध करते हैं। यह यहां के समुदाय और नगरपालिका की उन्नत प्रबंधन व्यवस्था का कमाल है कि कस्बे के बीच होने के बावजूद दोनों तालाब स्वच्छ, सुंदर और रमणीय स्थल बने हुए हैं। तालाबों की सुरक्षा, संरक्षण और प्रबंधन व्यवस्था जन शक्ति से जल शक्ति का आदर्श मॉडल देखना है, तो आपको एक बार मूंडवा ज़रूर आना चाहिए।
मूंडवा के पर्यावरणविद रामनिवास प्रजापत ने बताया कि लाखा तालाब लाखा बंजारे द्वारा खुदवाया गया था। लाखा बंजारा बैलों व मानव संसाधनों के काफिले के साथ देश भर में व्यापार करता था। रियासत काल में लाखा बंजारे की कहानियां सुनने को मिलती हैं।
ऐसा कहा जाता है कि उस जमाने में वह लखपति हुआ करता था, इस लिए उसका नाम लाखा बंजारा पड़ा था। उसका काफिला बड़ा हुआ करता था तथा वह देश के इस कोने से उस कोने तक बैलों पर सामान लाद कर परिवहन किया करते थे।
रेगिस्तान में पानी की तंगी थी, लेकिन यहां का नमक, घी, कैर, सांगरी जैसी वस्तुओं को दूसरे क्षेत्रों में पहुंचाने तथा अन्य क्षेत्रों से नारियल, चीनी, कपड़े, गहने आदि यहां तक लाने के लिए रेगिस्तान से भी काफिला गुज़रता था, जहां पड़ाव डालते थे, वहां तालाब, बावड़ियों, बेरियों का निर्माण कराते जाते थे।
लाखा बंजारा ने मूंडवा में तालाब खुदवाया. बाद में दानी सेठ-साहूकारों व समुदाय ने इसे तालाब का रूप दिया और तालाब पक्का कराया, घाट, गुंबद आदि बनवाए। आगौर का पानी तालाब तक लाने के लिए नहरों, नालों का निर्माण कराया गया और इसके नतीजतन साल-दर-साल तालाब निखरता गया और यह आज भी अपनी सुंदरता लिए है।
पोखंडी तालाब कभी पत्थर की खदान हुआ करती थी। पत्थर खोद कर लोग ले गए तथा गहरा गड्ढा हो गया। मूंडवा के सेठ साहूकारों को लगा कि इसे तालाब बनाते हैं। पहले के ज़माने में तालाब बनाना बड़ा पुण्य का काम माना जाता था। उन्होंने धन खर्च किया और इसे एक सुंदर तालाब बना दिया।
इस तालाब के किनारे भी मंदिर व सुंदर बाग बनाए गए जबकि नगरपालिका ने दोनों तालाबों के किनारे बाग-बगीचे लगाए, प्रातः एवं सायंकाल में लोगों के भ्रमण हेतु भ्रमण पथ, विश्राम के लिए कुर्सियां आदि लगवाईं और रात्रि में प्रकाश की व्यवस्था की, सफाई व देखभाल के लिए भी कर्मचारी लगाए हुए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष कंदोई बताते हैं कि तालाबों का प्रबंधन हमारी परंपरा रही है। हमारे पुरखों ने हमें इन संसाधनों और इनको उपयोगी बनाए रखने का ज्ञान दिया है, जिसका निर्वाह करना हर गाँव-बस्ती का कर्तव्य है। हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस कर्तव्य को निभा रहे हैं।
आईदान राम मुंडेल और सीताराम चौधरी के नेतृत्व में लोग तालाबों की देखभाल करते हैं। वहीं नगरपालिका तालाबों का सौंदर्यीकरण, लाइटिंग और सफाई की व्यवस्था में योगदान करती है। साल में एक बार पूरा गाँव श्रमदान करता है तथा तालाब, आगौर व नाले-नहरों की सफाई में अपना योगदान देता है।
कार्तिक पूर्णिमा को रात्रि में दीपदान होता है, उस समय देखने लायक दृश्य होता है। भ्रमण व टहलने के लिए आने वाले लोग भी तालाब किनारे व आगौर में कचरा, प्लास्टिक देखते हैं, तो वे स्वयं उसे उठाकर कूड़ादान में डालते हैं। धार्मिक आस्था, पेयजल की व्यवस्था और प्रकृति से लगाव के कारण तालाबों की देखभाल करना यहां का प्रत्येक नागरिक अपना कर्तव्य समझता है, इसीलिए पारंपरिक जल स्रोतों की यह सुंदर व्यवस्था बनी हुई है।
रामनिवास मुंडेल बताते हैं कि यह काम क्षेत्र के हिंदू-मुस्लिम सभी मिलकर करते हैं। ऐसी मान्यता है कि क्षेत्र में डाकुओं का आतंक होने के बावजूद वह मूंडवा को लूटने नहीं आते थे। स्थानीय भाषा में कहावत थी ‘मूंडवा धरम री पाळ, जिणसूं घोड़ा अळगा टाळ’
तालाब की प्रबंधन व्यवस्था के लिए समुदाय द्वारा बनाए गए नियमों का सभी को पालन करना होता है और नियम तोड़ने वालों पर सामाजिक दंड का प्रावधान भी है। कस्बे के बीच होने केे बावजूद आगौर में शौच करना या कूड़ा डालना मना है। स्नान करना, कपड़े धोना तो, दूर हाथ-मुंह धोने तक की सख्त मनाही है।
ट्रैक्टर, टेंकर या ऊंट गाड़ी, टंकी भरने वाले टायर पानी में नहीं डूबोयेंगे, बाहर से ही पानी भरना है। तालाब में पानी कम होने लगता है, तब टैंकर भरना बंद कर दिया जाता है, जिन गरीब परिवारों के पास पानी भंडारण का साधन नहीं है उनके लिए तथा पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं के लिए पानी सुरक्षित रखा जाता है।
यह नियम और परंपरा सदियों से चले आ रहे हैं और ज़रूरत पड़ने पर गाँव की सभा में नए नियम भी बनाए जाते हैं। Covid-19 में भी यह गाँव कई दृष्टिकोणों से अन्य कस्बों से अलग था। गाँव वालों द्वारा इन्हीं सामाजिक नियमों का पालन करने की वजह से इस गाँव के लोगों को कोरोना काल और लॉकडाउन में औरों की अपेक्षा कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था।
नागौर ज़िले के कुछ गाँवों में पारंपरिक जल स्रोतों का समुदाय द्वारा संरक्षण, देखभाल की व्यवस्था आज के समय की एक अनोखी मिसाल है। एक तरफ जल शक्ति को नल के जल में देखा जा रहा है, वहीं नागौर ज़िले के गाँव जन शक्ति से पारंपरिक जल स्रोतों में जल शक्ति को देख रहे हैं।
घरों में नल से पानी की सप्लाई आने के बावजूद मूंडवा कस्बे के लोग इन तालाबों का पानी भरना ज़्यादा पसंद करते हैं। पणिहारियां आज भी तालाब के घाट पर बतियाती हुई दिखती हैं। अब सवाल यही है कि आधुनिक विकास में जनशक्ति से जल शक्ति को कितनी जगह मिलती है?
असल चिंता की बात तो यह है कि विकास के नाम पर जिस सीमेंट प्लांट को स्थापित किया जा रहा है, उसमें सीमेंट उत्पादन के लिए होने वाले लाइमस्टोन खनन से कई गाँवों के तालाबों का अस्तित्व मिटने का खतरा पैदा हो गया है।
नोट- यह आलेख बीकानेर, राजस्थान से दिलीप बीदावत ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।