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“माहवारी के नाम पर आज भी पहाड़ी किशोरियों को सामाजिक रूढ़ियों ने जकड़ रखा है”

"माहवारी के नाम पर आज भी पहाड़ी किशोरियों को सामाजिक रूढ़ियों ने जकड़ रखा है"

मंजू ढपोला,

कपकोट, बागेश्वर

उत्तराखंड।

डिजिटल दुनिया, हज़ारों तकनीक विकसित देश इस 21वीं सदी की खासियत हैं। यह सब इतनी उपलब्धियां पाने के बाद भी आज लोगों के जहन से हम माहवारी के विषय में व्याप्त पुरानी रूढ़ियों की अवधारणाएं नहीं मिटा सके। अब भी लोगों के द्वारा सामान्य शारीरिक प्रक्रियाओं को सामाजिक रूढ़ियों की अवधारणाओं के चलते एक अछूत शब्द से व्यक्त किया जाता है। इस भारत देश में कई योजनाएं चलाई गईं, परन्तु माहवारी पर लोगों में व्याप्त प्राचीन रूढ़ियों की गलत सोच को मिटाने हेतु आज तक कोई योजना उपलब्ध नहीं हुई है।

मैं बागेश्वर ज़िले के कपकोट की बात कर रही हूं। यहां आज भी अधिकतर गाँवों में माहवारी को एक सामाजिक अभिशाप समझा जाता है। यहां रहने वाली किशोरियों एवं बालिकाओं को प्रथम बार माहवारी होने पर उन्हें गौशाला में रहना पड़ता है।

रेनू का कहना है, “इन किशोरियों एवं बालिकाओं को कपकोट ब्लॉक के जगनाथ नामक गाँव की रहने वाली गौशाला में रहना पड़ता है। अब वहां समुचित बिजली हो या ना हो, गौशाला की गाएं मारती हों या ना मारती हों । इसके साथ ही उन्हें सुबह 4 बजे ज़ल्दी उठकर स्नान करने जाना पड़ता है फिर मौसम गर्मी का हो या ठंण्डी का, बालिकाए छोटी हो या बड़ी।”

यहां के लोगों से वार्तालाप करने के पश्चात लोगों ने बताया कि उनकी ईश्वर के प्रति आस्था है और यदि उन्होंने माहवारी के दौरान इन सामाजिक प्रथाओं का पालन नहीं किया, तो ईश्वर उनसे रुठ जाएंगे व इससे उनको या उनके परिवार को हानि भी हो सकती है, किंतु वे लोग नहीं सोचते कि माहवारी के दौरान होने वाली तकलीफ में बेटियों को किस दर्द से गुज़रना पड़ता है।

शरीर लहुलुहान मन में लाखों तूफान और पेट में मौत सा दर्द होता है और कभी-कभी तो वह अधिक दर्द के कारण बेहोश भी हो जाती हैं, जब उसे अपने परिवार की अत्यधिक अवश्यकता होती है, तब उसके साथ कोई नहीं होता है। इससे वहां की किशोरियों, बालिकाओं की सेहत पर तथा मस्तिष्क पर भी बहुत असर पड़ता है। सुबह 4 बजे छोटी सी लड़की अकेले नदी जाती है, तब अच्छे से उजाला भी नहीं हुआ होता और उसे बदमाशों से भी खतरा रहता है।

बदमाशो के डर से ही गाँवों में अधिकांश बालिकाओं को शिक्षा हेतु घर से बाहर नहीं भेजा जाता है, किंतु यदि बात आए माहवारी की या अंधविश्वास की, तो यदि कोई नदी गाँव के पार भी होगी, तो भी उसे सुबह 4 बजे अकेले भेज दिया जाता है। हमारा समाज सामाजिक प्राचीन रूढ़ियों की अवधारणाओं के नाम पर इतना अटका हुआ है कि वो अपनी बच्ची की सेहत या उसकी सुरक्षा भी भूल जाता है।

क्यों गलत है लड़कियों को माहवारी होना, क्यों उसे उसकी ज़रूरत के वक्त सहारा नहीं दिया जाता, क्यों एक आम बात को धर्म से जोड़ा जाता है। इतनी उन्नति करने के बाद भी समाज महिलाओं एवं बेटियों को ही गलत या अशुध्द समझता है। कब मिटेगा यह अंधविश्वास? 

शरीर से खून का दान

जहन में लाखों तूफान

पेट में बहुत दर्द होता है

समझ नही पाते वे दर्द और जमाना खुद को मर्द कहता है

बढ़ गया देश इतना आगे

फिर भी इसे अछूत कहता है

आदर्शवाद के नाम पर पीरियड्स को पाप कहता है।

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