क्या आप प्लास्टिक खाते हैं? आपको यह सवाल शायद अजीब या बेवकूफाना लगे पर यह सच है। हम किसी-ना-किसी तरीके से प्लास्टिक खा-पी रहे हैं और दूसरा सच यह भी है कि प्लास्टिक एक ऐसी वस्तु है, जो खत्म नहीं होती और प्लास्टिक का कचरा छोटे-छोटे हिस्सों में टूट जाता है, जो माइक्रोप्लास्टिक कहलाता है और यह इतना महीन हो जाता है कि हमें यह दिखाई भी नहीं देता है।
यह माइक्रोप्लास्टिक जल में रहने वाले जीवों के अंदर जाता है और फिर उन जीवों के माध्यम से यह हमारी फूड चेन का हिस्सा भी बन जाता है। प्रत्येक वर्ष लगभग 1.30 करोड़ टन प्लास्टिक समुद्र में समा जा रहा है इसकी वजह से समुद्री जीव-जंतुओं के लिए यह एक बड़े स्तर पर भयावह साबित हो रहा है। एक ओर कछुओं की दम घुटने से मौतें हो रही हैं, तो दूसरी तरफ व्हेलें इस ज़हर की शिकार होकर मर रही हैं।
धीरे-धीरे यह चुनौती बढती ही जा रही है और हमारे महासागरों को जो कि हमारे वायुमंडल को सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन देते हैं। यह प्लास्टिक समुद्री जीवन को तबाह कर रहा है और प्लास्टिक की इस भयावहता से निपटने की दिशा में हमारा पहला कदम यही हो सकता कि हम इसका इस्तेमाल कम-से-कम करें पर इसके अलावा भी वैज्ञानिक, इस तेज़ी से बढ़ते हुए प्लास्टिक कचरे की चुनौती से निपटने के उचित तरीके तलाश रहे हैं और हमें भी इस समस्या से जूझने के लिए कुछ और नवाचार करने होंगे, ताकि हम इस दुनिया को तबाह होने से बचा सकें।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान (सीआईएफई), वर्सोवा द्वारा किए गए एक रिसर्च के अनुसार, मुंबई के मछुआरे जब मछली पकड़ते हैं, तो 17 किलोग्राम मछली के साथ 1 किलोग्राम प्लास्टिक भी उनके साथ में आता है। ये वही प्लास्टिक है, जो नदियों, नालों और अन्य मानव गतिविधियों द्वारा समुद्र में पहुंच रहा है।
इस तरह से लगातार प्लास्टिक की मात्रा समुद्र में बढ़ रही है, अब वो समय भी दूर नहीं जब समुद्रों में मछलियों से ज़्यादा प्लास्टिक का कचरा तैर रहा होगा। ये समुद्र जलीय जीवों और पौधों के घर हैं लेकिन प्लास्टिक इन सबके लिए एक खतरनाक ज़हर साबित हो रहा है।
समुद्री जीव जैसे व्हेल, मछलियां और कछुए प्लास्टिक के कचरे को अपना भोजन समझकर खा लेते हैं और उनके पेट में इस प्लास्टिक के जाने की वजह से वे अंदरूनी चोटों का शिकार होते हैं और उनके तैरने की क्षमता भी कम हो जाती है।
यहां आपको जानकर हैरानी होगी कि एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में उपयोग में आने वाला प्लास्टिक का लगभग 50% मात्र एक बार ही उपयोग में लिया जाता है और फिर उसे फेंक दिया जाता है। हर साल लगभग 88 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक समुद्र में चला जाता है और फिर समुद्री हवाएं और जलधाराएं इस कचरे को समुद्र की गहराई में ले जाती हैं, जहां ज़्यादातर जीव इसे अपना भोजन बना लेते हैं और अंतत: उनकी मौत हो जाती है।
वहीं अधिकतर लोग प्लास्टिक की थैलियों में खाने की सामग्री वगैरह फेंक देते हैं जिन्हें गाय एवं अन्य जानवर खा जाते हैं और यह प्लास्टिक फिर उनके शरीर में ही इकट्ठा होता रहता है जिससे जानवरों को भी कैंसर जैसी भयावह बीमारियां होने लगी हैं और यह संक्रमण उनके दूध वगैरह के माध्यम से हमारे शरीर में आ जाता है और कुछ समय बाद जानवरों की भी मृत्यु हो जाती है।
कई जगहों पर प्लास्टिक के सही निपटान की सुविधा नहीं है और जिससे यह मिटटी में मिल कर ज़मीन को प्रदूषित कर देता है या फिर इसे जलाया जाता है, तो यह विषाक्त गैसों का उत्सर्जन कर वायुमंडल को प्रदूषित करता है।
वहीं बढ़ते-बढ़ते प्लास्टिक कचरा एक साथ इकट्ठा होकर समुद्र में एक विशाल द्वीप के रूप में जमा हो जाता है। इसका एक उदाहरण ग्रेट पैसेफिक कचरा पैच है। हवाई और कैलिफोर्निया के मध्य उत्तर प्रशांत महासागर में स्थित ग्रेट पैसिफिक कचरा पैच में लगभग 1.8 ट्रिलियन प्लास्टिक मौजूद है। इसका आकार टेक्सास से करीब दोगुना है। यह कचरा फ्रांस के बराबर इलाके में कैलिफोर्निया और हवाई द्वीपों के बीच फैला हुआ है।
उत्तर प्रशांत महासागर में हर साल लगभग 24,000 मछलियां प्लास्टिक खाने से मर जाती हैं। वहीं समुद्र में जमा 80 प्रतिशत प्लास्टिक हमारे द्वारा इस्तेमाल किया हुआ होता है, जिसे इस्तेमाल के बाद हम यहां-कहां फेंक देते हैं। इसमें से 50 प्रतिशत प्लास्टिक समुद्र की गहराई में इकट्ठा हो जाती है। इसे खाने से लगभग 10 लाख समुद्री पक्षी और एक लाख समुद्री जीव-जंतु हर साल मर जाते हैं।
यहां यह स्पष्ट करना बहुत आवश्यक है कि प्लास्टिक की बोतलें ही केवल समस्या नहीं हैं बल्कि प्लास्टिक के कुछ छोटे रूप भी हैं, जिन्हें माइक्रोबिड्स कहा जाता है। ये बेहद खतरनाक तत्व होते हैं। इनका आकार 5 मिमी. से अधिक नहीं होता है। इनका इस्तेमाल सौंदर्य उत्पादों तथा अन्य क्षेत्रों में किया जाता है। ये खतरनाक रसायनों को अवशोषित करते हैं, जब पक्षी एवं मछलियां इनका सेवन करती हैं, तो यह उनके शरीर में चले जाते हैं।
भारतीय मानक ब्यूरो ने हाल ही में जैव रूप से अपघटित ना होने वाले माइक्रोबिड्स को उपभोक्ता उत्पादों में उपयोग के लिए असुरक्षित बताया है। अधिकांशतः प्लास्टिक का जैविक क्षरण नहीं होता है। यही कारण है कि वर्तमान में उत्पन्न किया गया प्लास्टिक कचरा सैकड़ों-हज़ारों साल तक पर्यावरण में मौजूद रहेगा। ऐसे में इसके उत्पादन और निस्तारण के विषय में हमें गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किए जाने की आवश्यकता है।
कैसे हो निदान?
सिंगल यूज़ प्लास्टिक जैसे पानी की बोतलें, कप, बर्तन और किसी भी अन्य प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर दें या मुमकिन हो तो उसका इस्तेमाल पूर्ण रूप से बंद कर दें। अगर आपके आस पास कोई रिसाइकल सेंटर है, तो अपने प्लास्टिक को रिसाइकल सेंटर को सौंप दें
प्लास्टिक गलाने वाला मशरूम
एस्परजिलस ट्यूबिनजेनसिस एक गहरे रंग का चकत्तेदार कुकुरमुत्ता होता है। ये गर्म माहौल में खूब पनपता है और ऊपर से देखने में इसमें कुछ खास नहीं है लेकिन इसकी एक खूबी हमें प्लास्टिक रुपी राक्षस से लड़ने में मदद कर सकती है।
प्लास्टिक की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि ये नष्ट नहीं होता या गलता नहीं है। यही वजह है कि आज ये हमारे शरीर के भीतर तक जगह बना चुका है। अब वर्तमान में ऐसे ज़रिये तलाश किए जा रहे हैं जिससे प्लास्टिक को प्राकृतिक तौर पर गलाया जा सके। पाकिस्तान की कायद-ए-आज़म यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायोलॉजिस्ट ने इस फफूंद में ऐसे गुण पाए हैं, जो प्लास्टिक को गला सकते हैं।
इस रिसर्च के अगुवा सहरून खान कहते हैं कि ‘इस फफूंद से ऐसे एंजाइम निकलते हैं, जो प्लास्टिक को गलाते हैं और इस गले हुए प्लास्टिक से फफूंद को पोषण मिलता है’ यानि ये उम्मीद जगी है कि एस्परजिलस ट्यूबिनजेनसिस की मदद से प्लास्टिक को गलाया जा सकता है।
प्लास्टिक की जगह समुद्री खतरपतवार का इस्तेमाल
प्लास्टिक के खिलाफ जंग लड़ने के लिए इंजीनियर और डिज़ाइनर दूसरे तत्वों के विकल्प आज़मा रहे हैं, जिनमें खाने-पीने के सामान को पैक किया जा सके। ऐसे बायोप्लास्टिक को फिर से इस्तेमाल हो सकने वाली प्राकृतिक चीज़ों से बनाया जा रहा है जैसे कि वनस्पति तेल, कसावा स्टार्च और लकड़ियों की छाल आदि।
इंडोनेशिया की कंपनी इवोवेयर पैकेजिंग का सामान समुद्री खरपतवार से बना रही है। ये कंपनी स्थानीय समुद्री खरपतवार उगाने वाले किसानों के साथ मिलकर ऐसी पैकेजिंग तैयार करती है, जिसमें बर्गर और सैंडविच पैक हो सकें। प्लास्टिक के कई उत्पाद दिखावे के लिए बैन हैं जिसे सरकार को सही तरीके से अमल में लाना चाहिए, क्योंकि यह किसी व्यापारी या सरकार के फायदे या घाटे का सौदा नहीं अपितु पूरी पृथ्वी और पर्यावरण से जुडी हुई एक गंभीर विकराल समस्या है।
शादियों एवं अन्य आयोजनों में डिस्पोजल बर्तनों का जो धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है उस पर समाज और सरकार को कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है और साथ ही आज की पीढ़ी को इसके हानिकारक नुकसानों के बारे में अधिक जानकारी एवं जन जागरूकता करने की आवश्यकता है।
यदि इस कार्य में सरकारी संस्थान, यूनिवर्सिटी एवं अन्य बड़े-छोटे संस्थान आगे आएं और यदि प्रतिदिन केवल 5 मिनट के लिए इस मुहिम को आगे बढ़ाएं, तो भी एक बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है और हमारी पृथ्वी को नष्ट होने से बचाया जा सकता है लेकिन यह कार्य इतना छोटा और आसान भी नहीं है।
इस तरह से आज प्लास्टिक दुनिया का सबसे बड़ा खतरा बन गया है। दुनिया के तमाम संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र संगठन को चाहिए कि इस पर एक निगरानी समिति बने जिस तरह से परमाणु सुरक्षा एवं अन्य मसलों पर बनी हुई है और फिर इस समस्या से जूझने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य ज़ारी रहे।
नोट: लेखक सत्य प्रकाश नायक, पर्यावरण प्रेमी और शिक्षाविद हैं। सत्य प्रकाश की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।