भारतीय भील कलाकार भूरी बाई को वर्ष 2021 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।भील जनजाति की संस्कृति को दीवारों और कैनवास पर उकेरने वाली मध्यप्रदेश की भूरी बाई को जब महामहिम राष्ट्रपति ने नई दिल्ली में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया, तो उनके चेहरे की चमक देखते ही बनती थी।
दरअसल, आदिवासी कलाकारों ने दुनिया के जितने भी चित्र खींचे, वे उनके अनुभव, उनकी स्मृतियों और कल्पनाओं में उपजे थे और उन्हें देखने वाली आंखों से भी यही सब कुछ अभीष्ट था और है।
शिखर सम्मान, अहिल्याबाई सम्मान, दुर्गावती सम्मान जैसे अनेक राजकीय और राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित भूरी बाई जब-जब सम्मानित हुई, तो वह अपने मार्गदर्शक मूर्धन्य कलाकार और कला पारखी जगदीश स्वामीनाथन को याद करना नहीं भूलीं, क्योंकि भूरी उन्हीं की खोज है।
वह तो मेहनत-मज़दूरी करने अपने गृह नगर पिटोल गाँव, झाबुआ से भोपाल आई थीं। भारत भवन के निर्माण के समय भूरी की कला प्रतिभा को स्वामीनाथन ने ही पहचाना तथा चित्र बनाने के लिए उन्हें लगातार प्रेरित भी किया और आर्थिक चिंता से मुक्त होकर भूरी बाई चित्र रचना कर सकें, इसके लिए स्वामीनाथन ने उन्हें अपेक्षित आर्थिक मदद भी की।
उनकी रचनाशीलता के लिए वातावरण विकसित करने में स्वामीनाथन का योगदान सबके लिए अविस्मरणीय है और भूरी बाई की कलायात्रा में उनकी भूमिका प्रणम्य है। फरवरी 2016 में भारत भवन की 34वीं वर्षगांठ पर भूरी बाई के चित्रों की एक वृहद प्रदर्शनी लगाई गई थी, प्रदर्शनी में शामिल कलाकृतियां भूरी बाई की भारत भवन के परिप्रेक्ष्य में स्मृति आधारित कलाकृतियों को शामिल किया गया था।
गाँव मोटी बावड़ी, ज़िला झाबुआ के एक मिट्टी की दीवार और सागौन के पत्तों से छवाए गए छप्पर वाले घर में भूरी बाई ने जन्म लिया था और किसी को नहीं पता कि उनके जन्म का वर्ष कौन सा था? कौन सा महीना और कौन सी तारीख थी? खैर, भूरी बाई को जन्म की तारीख, महीना, साल आदि भले ही ना मालूम हो लेकिन इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है बस उनके जन्म का मकसद क्या है? इसे उनकी किस्मत ने बड़े साफ-साफ शब्दों में लिख दिया था।
छोटी-सी भूरी घर के आंगन में भाई-बहनों के साथ खेलते हुए जब थोड़ी बड़ी हुईं, तो माँ के साथ खेत पर खाना लेकर जाने लगीं। भूरी बताती हैं कि उनके माता-पिता के पास खेती बहुत कम थी, जिससे घर का गुजारा मुश्किल से हो पाता था और इसके बाद ज़ल्दी ही वह और उनकी बड़ी बहन गाँव के एक जमींदार के खेतों पर निदाई करने जाने लगीं।
दिन भर काम करने के बाद शाम को एक रुपया मिलता था, लेकिन जमींदार के खेतों में हमेशा काम नहीं मिलता था। ज़्यादातर समय दोनों बहनें पीपल के पत्तों का या सूखी, जंगल से इकट्ठा की गई टहनियों का गट्ठर ले दाहोद जाती और वहां उन्हें दो रुपये किलो के मोल से बेचती थीं।
गाँव से कोई चार-पांच किमी की दूरी पर अणास रेलवे स्टेशन से दोनों बहनें सुबह 11 बजे साबरमती एक्सप्रेस पकड़ कर दाहोद पहुंचती और शाम फिर दाहोद से यही ट्रेन पकड़ कर अणास लौटती थीं। वे दोनों बहनें कड़ी मेहनत करती थीं, तब जाकर कहीं बड़ी मुश्किल से उनके घर का खर्च चलता था।
उनके बाकी के सारे भाई-बहन उनसे छोटे थे और उनके पिता एक कुशल मिस्त्री थे, फिर भी दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाते थे। पिटोल में दाहोद के एक सेठ की दुकान थी, जहां भूरी के पिता की उधारी चलती थी। ऐसी उधारी जो कभी पट नहीं पाती थी।
सेठ के छोटे भाई का घर दाहोद में बनना था और उधारी पटाने की गरज से पिता के कहने पर दोनों बहने इस घर के निर्माण का काम करने दाहोद जाने को राजी हो गईं। यहीं से भूरी बाई का निर्माण कार्यों में भाग लेना शुरू हुआ और फिर दोनों बहनें अपने चाचा के साथ मज़दूरी करने भोपाल आ गईं। उस समय उनकी उम्र करीब 14 साल थी। इस बीच भूरी बाई की शादी भी हो गई।
अपनी चित्रकारी की शुरुआती यात्रा के प्रारम्भिक चरण को याद करते हुए भूरी बाई बताती हैं कि वह अपनी बहन, ननद और गाँव के अन्य लोगों के साथ भारत भवन के निर्माण के समय मज़दूरी कर ही रही थी, कि एक दिन मूर्धन्य चित्रकार स्वामीनाथन की नज़र इन लोगों पर पड़ी और उन्होंने पूछा, कि तुम लोग किस समाज से हो? क्या तुम अपने समाज की रीति-रिवाज चित्रों के ज़रिये हमें बता सकते हो?
चूंकि भील समुदाय घर की दीवारों पर चित्र बनाया करते थे, लिहाजा सभी ने उसी तरह के चित्र भारत भवन के पास मंदिर के चबूतरे पर बनाए और हर दिन इन चित्रों के उन्हें 10 रुपये नगद मिलने लगे। स्वामी जी को भूरी के चित्र बहुत पसंद आए और उन्होंने भूरी के साथ-साथ अन्य भील चित्रकारों को भी अपने घर बुलाया।
10 चित्र बनाने के बाद इन लोगों को प्रति चित्र 1500 रुपये मिले। भूरी को विश्वास ही नहीं हुआ कि आराम से बैठकर चित्र बनाने के लिए कोई उन्हें इतने रुपये देगा। इस तरह भूरी आगे बढ़ती गई और एक दिन उसे पता चला कि उसे राज्य सरकार का शिखर सम्मान मिला है, जिसके बाद भूरी बाई को सभी पहचानने लगे और समाज में भी उनकी इज्ज़त बढ़ गई।
देश में कई जगहों से चित्र बनाने के लिए उन्हें बुलावे आने लगे। भूरी बाई अपनी चित्रकारी में तैलीय (ऑयल पेंटिंग) का प्रयोग करती हैं। उनकी पेंटिंग में भील समुदाय का सुनहरा इतिहास झलकता है और चूंकि इस समुदाय के लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे, लिहाज़ा वह इन्हीं चित्रों के माध्यम से अपने इतिहास और भावनाओं को उकेरते थे।
अब तक भूरी के 6 बच्चे हो चुके थे। इस बीच वह बीमार पड़ीं, उनके बचने की उम्मीद नहीं थी, तब वह आदिवासी लोक कला परिषद के तत्कालीन निदेशक कपिल तिवारी से मिलीं और उन्हें अपनी तकलीफ बताई। तिवारी जी ने उनकी बात सुनकर ना केवल भूरी के इलाज का बंदोबस्त किया बल्कि बतौर आदिवासी कलाकार उसे नौकरी भी दी।
इसके बाद से तो भूरी के काम के चर्चे पूरी दुनिया में होने लगे। शिखर सम्मान के बाद वर्ष 2010 में उसे राष्ट्रीय दुर्गावती सम्मान से नवाजा गया। भूरी कहती है कि बचपन से ही आसमान में हवाई जहाज को उड़ता देख उन्हें उसमें बैठने का मन करता था। आखिरकार उनकी यह इच्छा भी पूरी हो गई। आज भूरी बाई अपने बच्चों के साथ रहती हैं और उनके पति का स्वर्गवास हो चुका है।
आज भूरी बाई आदिवासी कलाकारों की प्रेरणास्रोत हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में सैंकड़ों आदिवासी कलाकार छोटे-छोटे गाँवों से आकर यहां अपनी पेंटिंग्स के जौहर दिखा रहे हैं। इनमें कई महिलाएं भी शामिल हैं, जिन्हें सम्मान और पैसा दोनों मिल रहा है। आज वह आत्मनिर्भर हो गई हैं।
भूरी बाई बताती हैं कि वे अपने बचपन से ही किसी त्यौहार या शादी-ब्याह के मौके पर वह घर की दीवारों पर मुट्ठी को सफेद मिट्टी में डूबा कर ठप्पे बनाती थीं, जिन्हें सरकला कहते हैं। इसके साथ-साथ वह पेड़-पौधे और जानवरों के चित्र भी बनाती थीं।
उनका कहना है कि इस प्रकार वह धरती से पैदा होने वाले अनाज और पेड़-पौधों के प्रति एक आभार का भाव महसूस करती हैं। चित्रों में यह बनाना एक तरह से उन्हें बचपन में माता-पिता द्वारा नए अन्न की पूजा करने जैसा लगता है। भूरी काम करते हुए आज भी जगदीश स्वामीनाथन के आर्शीवाद को सतत महसूस करती है और उन्हीं से काम की प्रेरणा पाती हैं।
नोट- यह आलेख भोपाल, मप्र से स्वतंत्र लेखिका रूबी सरकार ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।