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भारत की ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की तस्वीर आज भी अधूरी है

भारत की 'वसुधैव कुटुंबकम' की तस्वीर आज भी अधूरी है

भोग को तिलांजलि देने वाली भूमि के नाम से विख्यात भारत यानि की इंडिया अपने कर्म प्रधानता के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। विश्व प्रसिद्द श्रीमद्भागवतगीता में भी इसके अनूठे उदाहरण मौजूद हैं। एक बार महात्मा गांधी ने कहा था, “पृथ्वी मनुष्य की उन तमाम ज़रूरतों को पूर्ण करने के लिए सक्षम है, जो उनके विकास के लिए आवश्यक हैं किन्तु उनकी लोलुपता को नहीं।” 

कमोवेश यह बात हमारे भारतीय राष्ट्र पर भी लागू होती है, क्योंकि वैश्विक पटल पर भारत की छवि एक सॉफ्ट स्टेट की है, जो अपनी जटिल सामाजिक संरचना, सांकृतिक विविधता, धर्म के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण, वैज्ञानिक सोच, सर्व धर्मसमभाव की भावना से ओतप्रोत है तथापि विश्व शांति एवं सद्भावना को अपने केंद्र बिंदु में रखता है।

गौरतलब है कि भारत प्राकृतिक संसाधन से परिपूर्ण राष्ट्र भी है। यहां कि वास्तुकला एवं राष्ट्र की प्राचीनता आकर्षण इसे विश्व में केंद्र बनाती है। प्रसिद्द यूनानी दार्शनिक एवं राजनीतिज्ञ प्लेटो ने कहा था कि ‘किसी राष्ट्र अथवा राज्य का निर्माण, उस राज्य में अथवा राष्ट्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के चरित्र से होता है ना कि चट्टानों से। ‘

वास्तव में हमारा राष्ट्र सदगुणी है अथवा अपने अंदर सदगुणों को समाए हुए है। इसका अनुमान इस बात से  भलीभांति लगाया जा सकता है ठीक इसी प्रकार अपनी पुस्तक कर्मभूमि में मुंशीप्रेम ने कहा है कि जिस समाज की आधारशिला ही अन्याय पर टिकी हो, उसकी सरकार से न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है। 

इन सभी बातों का सार समाज में निवास करने वाले नागरिकों के चारित्रिक गुणों की ओर इंगित करना है। भारत की भूमि पर एक प्रचलित कहावत है कि कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता, परिपूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह एक अनवरत ज़ारी रहने वाली प्रक्रिया का नाम है। हालांकि, विकास के प्रति निरंतर उन्मुख दृष्टिकोण व्यक्ति के साथ ही राष्ट्र को भी समृद्धवान बना देता है।

ऐसे तमाम गुणों के बावजूद भारत राज्य भी अपने अंदर अन्य राष्ट्रों की भांति कई दूरगुणों को समाए हुए है। पूजा- पाठ, कर्मकांड, आडम्बर, जात-पात, लैंगिक भेदभाव के नाम पर कितने लोगों की बलि चढ़ा दी गई। मुंशी प्रेम चन्द्र की रचना ठाकुर का कुंआ, पूस की रात इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।

यही वजह रही कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने प्रचलित जातिगत बुराईयों के विरोध में मनुस्मृति की प्रति जला दी, जो वास्तविक अर्थो में सही भी है। मेरे सपनों के भारत में इस स्तर पर आधारित समाज की कोई आवश्कता नहीं है, जो समाज में भेदभाव का पोषण करे।

भारतवर्ष  में ऐसी कई साहित्य रचनाओं की रचना हुई जिन्होंने भारत की जातीय संरचना से उत्पन्न समस्याओं पर अपनी गहन चिंता व्यक्त की है। भारत एक ऐसा मुल्क है, जहां बच्चे के जन्म लेने से पहले ही, उसकी माँ के गर्भ में ही उस पर जाति थोप दी जाती है।

इस विषय पर प्रसिद्ध समाजशास्त्री मजूमदार एवं मदान ने कहा था, “जाति एक बंद वर्ग है।” वहीं सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, “दुर्भाग्यवश जिस जाति व्यवस्था को समाज की संरचना को नष्ट होने से बचाने के लिए निर्मित किया गया है। आज वही जाति व्यवस्था सामाजिक उन्नति में बाधक बन गई है।”

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि वर्तमान समय में हमारे देश में तकरीबन 3 हज़ार जातियां एवं उनकी उपजातियां विद्यमान हैं, जो सामाजिक संरचना को तहस-नहस कर रही हैं। हालांकि, गांधी ने वर्ण व्यवस्था के आधार पर जाति व्यवस्था का समर्थन किया था, किन्तु मैं उनके इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करता हूं।  

यद्यपि भारतवर्ष के अनेक चिंतकों ने जाति व्यवस्था से उत्पन्न समस्या से द्रवित होकर, मानव धर्म को प्रमुखता प्रदान की थी उदाहारण के रूप में कबीरदास ने कहा था,“कबीरा कुंआ एक है, पानी भरें अनेक, बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक।”

देश की आज़ादी के 7 दशक के बाद भी आज भी भारत में लैंगिक भेदभाव अपनी जड़ें जमाए हुए है और इस विषय में प्रसिद्द नारीवादी चिंतक रोजा लग्जमबर्ग ने कहा था, “ जिस दिन महिलाओं ने अपने श्रम का हिसाब मांगा, उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी।”

वही अपनी पुस्तक दोहरा अभिशाप में कौशल्या बैसंत्री लिखती हैं कि ‘एक महिला को समाज के दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, पहला एक नारी होने के कारण, दूसरा नीची जाति में जन्म लेने के कारण। ‘

सिमोन द बोव्हुआर ने अपनी पुस्तक में कहा है कि ‘स्त्री जन्म नहीं लेती है अपितु बनाई जाती है।’ वहीं डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि  ‘किसी समाज की उन्नति का अनुमान उस समाज में महिलाओं की स्थिति से लगाया जा सकता है।’

हालांकि, भारतीय दर्शन में स्वहित के बजाय परहित को प्रमुखता प्रदान की गई है। विश्व प्रसिद्ध तुलसीकृत रामचरितमानससे इस बात की पुष्टि होती है कि ‘पर हित सरिस धर्म नहीं, पर पीड़ा सम अधर्म नाहि’ अर्थात् दुनिया में दूसरों की भलाई करने से बड़ा और कोई धर्म नहीं और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा कोई अधर्म यानि पाप नहीं है। 

यदि हम यह कहें कि पूरे हिन्दू दर्शन अथवा भारत वर्ष का सार तत्व “वसुधैव कुटुम्बकम् ” है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी किन्तु व्यवहारिकता के धरातल पर भारतवर्ष हिन्दू बनाम मुस्लिम की आग में जल रहा है।  कुछ दशक पूर्व इस आग का नजीता आज के भारत के समक्ष पाकिस्तान मुल्क विद्यमान है।

हम संक्षिप्त रूप में यह कह सकते हैं कि इन तमाम कुरीतियों से मुक्त भारत में सच्चे अर्थो में समानता पर आधारित एक श्रेष्ठ समाज होगा। ये तमाम बुराईयां भारत को अंदर से खोखला बना रही हैं और बदलते समय में हमें हमारे भारतीय समाज की सोच में परिवर्तन लाने की ज़रूरत है, तब ही जाकर हमारा समाज प्रगति की ओर उन्मुख हो पाएगा। 

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