15 नवंबर, 2000 को बिहार प्रांत से अलग होकर एक नए प्रांत का गठन होता है झारखंड जैसा कि आपको इसके नाम से ही प्रतीत होता है झारखंड यानि झाड़ झंखाड़, पहाड़-पर्वत, नदी, झरने और अकूत खनिज संपदा से सम्पूर्ण था।
झारखंड की ज़्यादातर जनसंख्या अनुसूचित जनजाति थी, सीधे तौर पर मैं कहूं तो आदिवासी थी, वैसे झारखंड की मांग भी तो आदिवासी अस्मिता की लड़ाई का ही एक परिणाम थी।
कुछ वर्ष पहले जब विश्व में यह कोरोना नाम की विपदा नही थी। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ हमारे शहर जमशेदपुर के दलमा वन्यजीव अभ्यारण्य घूमने गया था। दलमा वन्यजीव अभ्यारण्य हाथियों के लिए संरक्षित है और सच में बहुत खूबसूरत है।
सच में मेरा राज्य पहाड़ों और छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। दलमा अभ्यारण्य 195 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जो सच में विशाल है। खैर, मैं तो बस उतना ही देख पाया जहां तक हमारी गाड़ी ने साथ दिया और पहाड़ों की तराई वाले इलाके में कई गाँव हैं और कुछ गाँव तो पहाड़ के ऊपर भी हैं।
ऐसे ही एक गाँव में हम लोग कुछ देर के लिए रुके और वहां का चारों ओर का नज़ारा वाकई में बहुत अदभुत था। ऐसा लग रहा था कि मानो यह गाँव किसी कटोरे में है, क्योंकि यह चारों ओर पहाड़ और जंगलों से घिरा हुआ था एवं पंछियों की आवाज़ें हमारे मन को असीम शांति दे रही थीं।
एक पल को मेरे मन में गाँव वालों के प्रति थोड़ी ईर्ष्या भी हुई कि ये गाँव वाले सच में नसीब वाले हैं, जो प्रकृति के बीच रहते हैं। ऐसे ही बातों-ही-बातों में मैंने गाँव वालों से पूछा कि क्या उन्हें जंगली-जानवरों से डर नहीं लगता? तो उन लोगों ने बताया कि वे लोग हमेशा से यहां रहते आए है और उनका सारा जीवन जंगल पर ही निर्भर करता है और ये जंगल एवं जंगली-जानवर भी उनके जीवन का प्रमुख हिस्सा हैं।
उन लोगों ने हमें बताया कि अब परिस्थितियां बदल रही हैं और बाहरी दखल से अब जिंदा रहना भी मुश्किल होता जा रहा है, हमारे क्यों? पूछने पर उन लोगों ने हमें एक छोटा सा अपना घर दिखाया (घर क्या वो एक झोंपड़ा था) जो लगभग एक तरफ से टूट चुका था। हमें बताया गया कि वे लोग अपने सीमित संसाधनों से बस अपने परिवार का पेट भरने तक का अनाज उगाते हैं। वही अनाज (ज़्यादातर समय धान) का इस घर में भंडारण किया हुआ था, जिसको हाथियों के झुंड ने तहस-नहस कर दिया और उन्होंने हमें आगे बताया कि कभी-कभी हाथी खेतों में आकर खड़ी फसल तक खा जाते हैं, सच में यह परिस्थिति बहुत विकट है।
अब हम लोग पहाड़ के दूसरे छोर की ओर बढ़े, तो हमें कुछ जंगली जानवर दिखे जैसे हिरण, बंदर, एक हाथी और कई पंछी पहाड़ों पर जंगल हर जगह से घना नही था, क्योंकि कुछ जगहों पर क्रेशर मशीन लगाकर पत्थरों को तोड़कर गिट्टी बनाया जा रहा था, जिसकी कानफोड़ू आवाज़ से बंदर और हिरण थोड़े परेशान थे (जानवर क्या इंसान भी ना टिक सकेंगे ऐसी आवाज़ में)
अब हम लोग पूरा माजरा समझ रहे थे कि गाँव वालों के साथ ये समस्या क्यों हो रही है, क्योंकि अवैध एवं लगातार गति से हो रहे पहाड़ों के खनन से जंगल सिमट रहा है और जिससे वन्यजीव और इंसानों में टकराव हो रहा है।
मुझे ठीक से याद नही पर मैं इतना तो विश्वास के साथ कह सकता हूं कि सरकार ने 2014 या 2015 के आस-पास पहाड़ों के इन अवैध खननों पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी थी, जिसके बाद क्रेशर मशीन के मालिकों के संगठन ने अपनी इस बात को आंदोलन के रूप में उठाया था।
क्रेशर मशीन मालिकों का कहना था कि इससे उन्हें बहुत पैसों का नुकसान हो रहा है एवं राज्य की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं जैसे सड़क, पुल, बांध इन सभी कामों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि सरकार के पास गिट्टी का कोई विकल्प नहीं है। कुछ गाँव वाले लोग भी उस समय क्रेशर मशीनों के समर्थन में थे, क्योंकि उनके लिए ये रोज़गार का मसला था (वैसे गाँव वालों में समर्थन ज़्यादातर युवा वर्ग से ही आ रहा था और वहीं बुजुर्गो का कहना था कि बाहरी दखल से हमारी संस्कृति और अस्मिता पर असर होगा।)
ऐसे देखा जाए, तो दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जगह पर सही थे। सरकार भी पर्यावरण को लेकर सजग नज़र आ रही था और मशीन मालिक एवं गाँव वाले भी अपने रोज़गार को लेकर। एक आम शहरी की तरह मेरे लिए भी तटस्थ होकर यह कहना बहुत आसान था कि क्रेशर मशीनों को बंद कर देना चाहिए परंतु उन लोगों की भी अपनी मज़बूरियां है जिसका सरकार को विकल्प खोजना चाहिए।
पहाड़ों को केवल अवैध खनन ही नहीं बल्कि अवैध लकड़ी की कटाई से भी बहुत नुकसान हो रहा है। लकड़ी के अवैध कटाई से जंगल सिमट रहा है जिससे वहां रहने वाले जीवों का आवास छीन रहा है और ये जीव गाँवों में आने को विवश हो रहे हैं। अब तो गाँवों में जंगली हाथियों का आना एक आम बात हो गई है अब ये हाथी पहले से ज़्यादा आक्रामक हो गए हैं एवं अब तक गाँव के कई आदिवासी अपनी जान गंवा चुके हैं।
हां, सरकार ऐसी घटनाओं के होने पर पीड़ित परिवार को कुछ मुआवजा ज़रूर दे देती है पर यह कोई इस समस्या का समुचित समाधान नहीं है, क्योंकि दिन-प्रतिदिन इंसानों और जंगली जानवरों में टकराव बढ़ रहा है। कुछ समय पहले की ही बात है कि एक गाँव में एक हिरण घुस आया था, तो गाँव वालों ने उसे पकड़कर काटकर खा लिया था और वे अब सभी लोग जेल में हैं। कभी जानवर मारे जाते हैं, तो कभी इंसान पर पहाड़ और जंगलों का दोहन धड़ल्ले से चल रहा है।
पिछले साल 2021 के मार्च महीने में, मैं एक शादी समारोह के लिए बंगाल जा रहा था, रात का समय था और हाईवे से पहाड़ पर लगी आग साफ-साफ दिखाई दे रही थी। यह थोड़ा असंवेदनशील हो जाएगा पर वाकई रात में पहाड़ों पर लगी आग बहुत खूबसूरत लग रही थी जैसे किसी ने पहाड़ पर दिए जलाए हों और दूसरे दिन अखबार उलटने से पता चला कि रात की आग में कई जानवर जल गए जिसमें हिरण, जंगली सूअर, खरगोश और हमारा राष्ट्रीय पक्षी मोर भी शामिल था।
सरकारी आंकड़ों को ही अगर मैं सच मान लूं, तो भी जंगल के जानवरों की संख्या में लगातार कमी देखने को मिली है (केवल हाथियों की संख्या में कुछ इज़ाफ़ा हुआ है और एक आध बार बाघ भी कैमरे पर कैद हुआ है।)
ऐसे लिखने को तो मैं आंकड़ों को आधार बनाकर भी लिख सकता था, अनुप्रास अलंकार लगाकर लेख को भी खूबसूरत बना सकता था पर यह जायज नहीं होता इसलिए मैंने केवल अपनी आंखों देखी पर भरोसा करते हुए लिखा।
वैसे, सच में अब कई पहाड़ जैसे खत्म ही हो गए हैं। बचपन में जब शहर से बाहर जाते थे, तब रास्ते के समांतर पर्वत भी चलता था पर वहां अब केवल पत्थरों के कुछ टीले बचे हैं और गाँवों में रात को सियार की आवाज़ से ही नींद आ जाती थी पर अब गाँव भी देर रात तक टीवी पर खबर देखता है और सियार जैसे कहीं गहरी नींद में सो गया है।