विश्व में कोविड के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के दस्तक देने के बाद से ही भारत सहित दुनिया के कई देशों में एक बार फिर से कोरोना के मामलों में तेज़ी आई है। इस लेख को लिखे जाने तक, भारत में पिछले 24 घंटो में कोरोना के 58,097 केस रिकॉर्ड किए गए हैं।
इसी के साथ कोविड 19 के रोकथाम के लिए अपनाई जाने वाली पाबंदियों का दौर एक बार फिर से देश के कई राज्यों में वापस लौटने लगा है लेकिन इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि देश के पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर) में आने वाले फरवरी और मार्च के महीने में चुनाव होने हैं, जिसका ऐलान कुछ ही दिनों में हो सकता है।
गौरतलब है कि इन पांचों राज्यों में देश की दो सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टियों- भाजपा (यूपी, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर) और कॉंग्रेस (पंजाब) की ही सरकारें हैं।
कोरोना के बीच होते रहे हैं चुनाव
कोविड के बढ़ते ओमिक्रॉन के केसों को मद्देनज़र रखते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी में चुनावों को कुछ समय के लिए टालने की भी बात कही है जबकि हाल ही में उत्तर प्रदेश में प्रेस को संबोधित करते हुए चुनाव आयोग ने कहा है कि सभी राजनैतिक दल समय पर चुनाव कराने के पक्षधर हैं।
कोरोना के तेज़ी से बढ़ते मामलों के बीच चुनाव समय पर करवाने या ना करवाने को लेकर बहस अब तूल पकड़ने लगी है। हालांकि, यह कोई पहला मौका नहीं है जब इस तरह की बातें हो रही हों। सन् 2020 की शुरूआत में जब भारत सहित दुनिया के कई देशों में कोरोना के मामलों की पुष्टि होनी शुरू ही हुई थी, तब दिल्ली में विधान सभा के चुनाव करवाए गए थे।
2020 में ही बिहार में विधानसभा चुनाव और कई प्रदेशों में उपचुनाव भी करवाए गए थे। वर्ष 2021 में कोरोना की दूसरी लहर से पहले पांच राज्यों-असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में मार्च-अप्रैल माह में चुनाव संपन्न कराए गए थे। साल 2021 के अप्रैल माह में यूपी में पंचायत के चुनाव भी कराए गए थे।
हालांकि, इन चुनावों को कोरोना की भयावह दूसरी लहर के लिए भी ज़िम्मेदार बताया गया था, लेकिन जिन राज्यों में चुनाव नहीं थे, वहां भी कोविड के भयावह संकट से आम जनमानस की रक्षा करने के लिए देश के स्वास्थ्य व्यवस्था की भी कोई अच्छी स्थिति नहीं थी।
विधानसभा के घटन और विघटन से संबंधित संवैधानिक प्रावधान
भारत ‘संसदीय प्रणाली’ पर आधारित एक लोकतांत्रिक देश है, जहां त्रिस्तरीय शासन की व्यवस्था है और तीनों स्तर की सरकारें, जनता द्वारा पांच वर्षों के लिए चुनी जाती हैं चूंकि अभी बात विधानसभा चुनावों के बारे में ही हो रही है, इसलिए विधानसभा के घटन और विघटन से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों पर एक नज़र डालना आवश्यक हो जाता है।
संविधान का अनुच्छेद 172 बताता है कि यदि विधानसभा पहले ही भंग ना हो जाए, तो वह अपनी पहली बैठक (अधिवेशन) से पांच वर्ष तक बनी रहेगी, इसके बाद वह भंग (विघटित) हो जाएगी। इसी अनुच्छेद में आगे कहा गया है कि यदि आपात की उद्घोषणा हुई हो तो, संसद को यह अधिकार है कि वह विधानसभा का कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ा सकती है।
गौरतलब है कि आपात की उद्घोषणा का सम्बन्ध संविधान के अनुच्छेद 352 से है, जो राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में वह संपूर्ण देश या देश के किसी भूभाग में आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है।
संवैधानिक प्रावधानों से स्पष्ट हो जाता है कि चुनाव आयोग के पास तय समय पर चुनाव कराने के अलावा अन्य कोई रास्ता शेष नहीं रह जाता है। हां, यह ज़रूर है कि संसद अनुच्छेद 352 में संशोधन कर महामारियों को भी आपातकाल की उद्घोषणा करने के लिए एक विकल्प के रूप में जोड़ सकती है लेकिन इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भविष्य में किसी राज्य के अंदर किसी खास बीमारी से हालत बिगड़ने के कारण, केंद्र की सरकार राजनैतिक द्वेष में उस राज्य में इस प्रावधान का गलत इस्तेमाल भी कर सकती है।
इसलिए इस तरह के प्रावधानों की भी अपनी चुनौतियां होंगी। यदि हम कोरोना महामारी की ही बात करें, तो यह बीते दो वर्षों से अपना कहर बरपा रही है, तो क्या इतने समय तक विधायिका को भंग रखना उचित होगा?
राजनैतिक पार्टिंयां जनसभाएं करने से बचें
महामारी के बीच चुनाव करवाना एक बेहद ही चुनौतीपूर्ण कार्य है लेकिन चुनाव आयोग ने बीते दो वर्षों में इस चुनौती पर भी बखूबी सफलता प्राप्त की है। हमें चुनावों को कोरोना महामारी के विस्तार के लिए ज़िम्मेदार बताने के बजाय उसे एक ऐसे समय में हथियार के रूप में प्रयोग करना होगा जब सरकारों के खिलाफ बोलना बहुत ही आसानी से ‘राजद्रोह’ की श्रेणी में रख दिया जाता है।
चुनावों से पहले होने वाली जनसभाओं में कोरोना वायरस के फैलने की संभावना सबसे अधिक होती है, क्योंकि यह एक ऐसा मौका होता है जब भीड़ एक साथ इकट्ठा होती है। मेरा सुझाव है कि सभी राजनैतिक पार्टियों को किसी भी प्रकार की जनसभा, रैली, रोड शो इत्यादि करने से मना कर देना चाहिए, आचार संहिता लागू होते ही चुनाव आयोग को इस प्रकार का आदेश ज़ारी कर देना चाहिए।
सोशल मीडिया के वर्तमान दौर में पार्टियां अपना संदेश यूट्यूब, व्हाट्सएप्प, ट्विटर, फेसबुक आदि माध्यमों से पहुंचा सकती हैं। इसके अलावा स्थानीय स्तर के नेता व कार्यकर्ता कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए अपने क्षेत्रों में डोर-टू-डोर कैंपेन का माध्यम भी अपना सकते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा ये सारे माध्यम अपनाए भी जाते हैं।
कोरोना के कारण चुनाव ना कराने की बहस को हमें पूर्ण रूप से छोड़ देना चाहिए, क्योंकि ऐसा भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए सही नहीं होगा। कोरोना के दौर में भी हम किसी भीषण आपदा को दावत दिए बगैर भी कैसे चुनाव करवा सकते हैं, हमें इसी तरफ देखना चाहिए। यह खुशी की बात है कि पिछले दो वर्षों में हमने ऐसा किया भी है।