लोकतांत्रिक देशों में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के क्रियाकलापों पर नज़र रखने के लिए मीडिया को ‘चौथे स्तंभ’ के रूप में जाना जाता है। विशेषकर भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, तो स्वाभाविक सी बात है कि भारतीय मीडिया का स्वरूप वैश्विक मीडिया के सामने एक आईने के समान है।
18वीं शताब्दी के बाद से खासकर अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन और फ्रांसीसी क्रांति के समय से जनता तक पहुंचने और उसे जागरूक कर सक्षम बनाने में मीडिया ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वहीं भारत की स्वतंत्रता में मीडिया की भूमिका को कोई भुला नहीं सकता, चाहे वह समाचार पत्र हों या रेडियो।
मीडिया अगर अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करे, तो किसी भी व्यक्ति, संस्था, समूह और देश को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूप से समृद्ध बनाया जा सकता है।
वर्तमान समय में मीडिया की उपयोगिता, महत्त्व एवं भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं ठीक वैसे ही मीडिया की उपयोगिता के बढ़ने के साथ-साथ इसके दुरूपयोग भी बढ़ रहे हैं अब वह चाहे किसी राजनीतिक दल के दबाव से बढ़े या फिर गुंडाराज से।
वर्तमान समय में हमें मीडिया की स्वतंत्रता पर खतरा मंडराता दिख रहा है जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए, क्योंकि हम 21वी सदी में जी रहे हैं और एक लोकतांत्रिक देश में मीडिया को अपनी शक्तियों के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता होती है।
कोई भी समाज, सरकार, वर्ग, संस्था, समूह व्यक्ति मीडिया की उपेक्षा कर आगे नहीं बढ़ सकता है। आज के जीवन में मीडिया आम जनमानस के जीवन की एक अपरिहार्य आवश्यकता बन गया है। अगर हम देखें कि समाज किसे कहते हैं, तो यह तथ्य सामने आता है कि लोगों की भीड़ या असम्बद्ध मनुष्य को हम समाज नहीं कह सकते हैं। समाज का अर्थ होता है सम्बन्धों का परस्पर ताना-बाना, जिसमें विवेकवान, प्रज्ञावान और विचारशील मनुष्यों वाले समुदायों का अस्तित्व होता है।
अगर हम अपने देश भारत को देखें, तो भारत में टेलीविज़न के इतिहास को बिना दूरदर्शन से जोड़े नहीं देखा जा सकता है। उस समय कम ग्राफिक्स और बिना किसी हैवी साउंड के एक समाचार प्रस्तुतकर्ता आता या आती और बड़ी शालीनता से समाचार सुनाते और फिर समाचार समाप्त हो जाते। मैं जब भी किसी बुज़ुर्ग से समाचार या टेलिविज़न को लेकर बात करता हूं, तो वे बताते हैं कि आज के टेलिविज़न चैनलों में वह बात नहीं रही और दुबारा पूछने पर उत्तर आता है कि आजकल लोग बहस के नाम पर एक-दूसरे से ऐसे लड़ते हैं जैसे वो चाय की टपरी पर एक फ्री की मठरी के लिए लड़ रहे हों।
मीडिया की भूमिका यथार्थ सूचना प्रदायक एजेंसी के रूप में होती है। मीडिया द्वारा समाज को संपूर्ण विश्व में होने वाली घटनाओं की जानकारी मिलती है। इसलिए मीडिया का यह प्रयास होना चाहिए कि ये जानकारियां यथार्थपरक हों।
सूचनाओं को तोड़-मरोड़कर या दूषित कर आम जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं होना चाहिए। समाज के हित एवं देश-दुनिया में होने वाली घटनाओं की जानकारी के लिए सूचनाओं को यथावत एवं विशुद्ध रूप में जनता के समक्ष पेश करना चाहिए।
मीडिया का प्रस्तुतीकरण ऐसा होना चाहिए जो समाज का मार्गदर्शन कर सके। खबरों और घटनाओं का प्रस्तुतीकरण इस प्रकार हो जिससे जनता का मागदर्शन हो सके। उत्तम लेख, संपादकीय, ज्ञानवर्धक, श्रेष्ठ मनोरंजन आदि सामग्रियों का खबरों में समावेशन होना चाहिए, तभी हमारे समाज को सही दिशा प्रदान की जा सकती है लेकिन वर्तमान में हम मीडिया की आम जनमानस के समक्ष प्रस्तुतीकरण की बात करें, तो भारतीय मीडिया भी छोटे-छोटे भागों में बंटा हुआ है।
आज खबरों को अपने हिसाब से लिखा जाता है, अपने हिसाब से बताया जाता है। वर्तमान मीडिया समूह खबरों की सटीकता से ज़्यादा राजनैतिक दलों के एवं अपने एजेंडे पर ध्यान देने लगे हैं जो कि एक वास्तविक लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है।
हमें बताया जाता है कि मीडिया का संवेदनशील होना बेहद ज़रूरी होता है। आजकल मीडिया की संवेदनशीलता को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। मीडिया को हर वर्ग के प्रति संवेदनशील रहना पड़ता है। आलोक मेहता कहते हैं कि ‘पहले बच्चों पर मीडिया में चर्चा होती थी, लेकिन अब वह नहीं होती। राजेंद्र माथुर और अज्ञेय जैसे पत्रकारों-साहित्यकारों ने इस दिशा में काफी कुछ काम किया है। अगले साल बच्चों एवं महिलाओं के लिए केंद्र सरकार एक ऐसा बजट पेश करे, जो दुनिया के अन्य देशों के लिए भी नजीर बने।’
बच्चों के प्रति पूरे देश में जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़े इसके लिए ज़रूरी है कि प्रत्येक पंचायत में उनके लिए पत्रिकाएं हों, अखबार हों। पहले चंपक, पराग और नंदन जैसी बाल पत्रिकाएं देश के सुदूर अंचलों में भी देखने को मिल जाती थीं, अब वे भी पूर्णत: बंद हो गई हैं।
इसी प्रकार वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष अजय सेतिया ने कहा कि ‘वे जब उत्तराखंड में बाल आयोग के अध्यक्ष थे, तब उन्होंने बाल अधिकारों के प्रति मीडिया में संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए संपादकों को पत्र लिखा था। उन्होंने इसके लिए कार्यशालाएं भी आयोजित कीं लेकिन उस सबका परिणाम उनकी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं रहा।
कोरोनाकाल में जब से मज़दूरों की अपने-अपने गाँवों में वापसी हुई है, उनके बच्चों की शिक्षा पूर्ण रूप से अवरुद्ध हो गई है। गाँवों में अभी भी इंटरनेट की सुविधा नहीं है। अब यहां मीडिया संवेदनशीलता और बच्चों की संवेदना का कनेक्शन शायद आपको समझ नहीं आया होगा लेकिन जब तक युवा और बच्चे मीडिया की भूमिका, समाज में स्वयं का कर्तव्य नहीं समझेंगे, तब तक मीडिया एक अच्छी मीडिया नहीं बन सकती।
वर्तमान हालातों में कई जगह हम देखते हैं कि मीडिया अनेक घटनाओं में या तो पीड़ित परिवार के प्रति संवेदनशील नहीं रहेगा या आरोपियों के प्रति तीव्र हो जाएगा। आज से ठीक सौ साल पहले जब महावीर प्रसाद द्विवेदी जब सरस्वती पत्रिका निकालते थे, तो वे भाषा के अनुशासन की चाबुक चलाते थे। वे शब्द के प्रति इतने संवेदनशील थे कि एक प्रसिद्ध लेखक ने जब ‘काबुल में भी गधे मिलते हैं’ शीर्षक से लेख भेजा, तो उन्होंने उसका शीर्षक बदलकर ‘काबुल में सब घोड़े नहीं मिलते’ कर दिया।
शाब्दिक संस्कारों के प्रति इन संवेद्यताओं का क्या आज कोई मोल नहीं है? कि आज भी 21वीं सदी के अवबोध के साथ ही सही लेकिन एक महावीर प्रसाद द्विवेदी के पुनरावतार की बहुत ज़रूरत है, जो पूछे कि क्यों हिन्दी अखबारों के स्तंभ अंग्रेज़ी में होने ज़रूरी हो गए हैं?
वहीं दूसरी ओर उच्चतम न्यायालय महसूस करता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के रेगुलेशन की ज़रूरत है, क्योंकि अधिकांश चैनल सिर्फ़ टीआरपी की दौड़ में लगे हुए हैं और यह ज़्यादा सनसनीखेज की ओर जा रहा है। दूसरी ओर केन्द्र ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता की हिमायत करते हुए मंगलवार को न्यायालय से कहा कि प्रेस को नियंत्रित करना किसी भी लोकतंत्र के लिए घातक होगा।
न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की पीठ ने स्पष्ट किया कि वह मीडिया पर सेन्सरशिप लगाने का सुझाव नहीं दे रहे हैं लेकिन मीडिया में किसी-ना-किसी तरह का स्वत: नियंत्रण होना चाहिए।
पीठ ने टिप्पणी की कि इंटरनेट को नियमित करना मुश्किल है लेकिन अब इलेक्ट्रानिक मीडिया का नियमन करने की आवश्यकता है। जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि कई बार आरोपियों को अपना पक्ष रखने के लिए भी कुछ चैनलों का इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने कहा कि यह देखने की भी आवश्यकता है कि क्या किसी अभियुक्त को अपना बचाव पेश करने के लिये यह मंच दिया जा सकता है। पीठ ने कहा था कि हम यह नहीं कह रहे कि राज्य ऐसे दिशा निर्देश थोपेंगे, क्योंकि यह तो संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के लिये अभिशाप हो जाएगा।
पीठ के अनुसार, “प्रिंट मीडिया की तुलना में इलेक्ट्रानिक मीडिया ज़्यादा ताकतवर हो गया है और प्रसारण से पहले प्रतिबंध के पक्षधर नहीं रहे हैं।” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “मैं यह नहीं कह रहा कि राज्य को इलेक्ट्रानिक मीडिया को नियंत्रित करना चाहिए लेकिन इसके लिये किसी-ना-किसी तरह का स्वत: नियंत्रण होना चाहिए और साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि हम इस समय सोशल मीडिया की नहीं बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में बात कर रहे हैं।”
मेहता ने कहा कि किसी-ना-किसी तरह का स्वत: नियंत्रण होना चाहिए लेकिन पत्रकार की आज़ादी बनाए रखी जानी चाहिए। इस पर न्यायमूर्ति जोसेफ ने सॉलिसीटर जनरल से कहा कि मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि कोई भी स्वतंत्रता पूरी तरह निर्बाध नहीं हैं। मेहता ने पीठ से कहा कि कुछ साल पहले कुछ चैनल ‘ हिन्दू आतंकवाद, हिन्दू आतंकवाद कह रहे थे। अगर किसी भी देश का मीडिया किसी भी तरफ झुकता है, तो लोकतंत्र की दिशागति में बाधा का काम होता है।
पीठ ने यह भी कहा था कि हम इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में बात कर रहे हैं, क्योकि आज लोग भले ही अखबार नहीं पढ़ें लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया ज़रूर देखते हैं। इस पर काफी गंभीर टिप्पणी करते हुए पीठ ने कहा कि समाचार पत्र पढ़ने में हो सकता है, मनोरंजन नहीं हो लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया में कुछ मनोरंजन भी है।
पीठ ने कुछ मीडिया हाउस द्वारा की जा रही आपराधिक मामलों की तफतीश का भी ज़िक्र किया। पीठ ने कहा, “जब पत्रकार काम करते हैं, तो उन्हें निष्पक्ष टिप्पणी के साथ काम करने की आवश्यकता है। आपराधिक मामलों की जांच देखिए, मीडिया अक्सर जांच के एक ही हिस्से को केन्द्रित करता है।”
पीठ ने न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के वकील से सवाल किया, “आप कर क्या रहे हैं? हम आपसे जानना चाहते हैं कि लेटर हेड के अलावा भी क्या आपका कोई अस्तित्व है। मीडिया में जब अपराध की समानांतर तफतीश होती है और प्रतिष्ठा तार-तार की जा रही होती है, तो आप क्या करते हैं?”
पीठ ने कहा कि कुछ चीज़ों को नियंत्रित करने के लिए कानून को सभी कुछ नियंत्रित नहीं करना है अर्थात समय के साथ मीडिया का बदलना आवश्यक था, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मीडिया अपनी शक्तियों के चक्कर में अपना मूल और सामाजिक कर्तव्य भूल जाए, जिस प्रकार से आज भारतीय मीडिया का कुछ अंश अपनी लापरवाही से अनैतिक भाषा का उपयोग करता है, उस पर रोक लगाना अत्यंत आवश्यक हो गया है।