गांधी ने जेलों के लिए अस्पताल शब्द का इस्तेमाल किया, उनके लिए जेल वे स्थान हैं जहां अपराधी बेहतर होने के लिए जाते हैं। हालांकि, ब्रिटिश राज के बाद उत्तर-औपनिवेशिक भारत में जो हुआ वह एक अलग वास्तविकता है।
बंदी अधिकार आंदोलन के नेशनल कन्वेनर संतोष उपाध्याय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास के छात्र थे। वहां पढ़ाई के दौरान उन्होंने बंदियों की हालत के बारे में पढ़ना शुरू किया, जब भी वह किसी कैदी को पुलिस द्वारा जेल में ले जाते हुए देखते, तो कैदी उन्हें इंसानों की तरह नहीं बल्कि मवेशियों की तरह लगते थे और इसलिए इतिहास में अपनी पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद, उन्होंने अपना जीवन बंदियों के अधिकारों के लिए समर्पित करने का फैसला किया।
उन्होंने नैनीताल उच्च न्यायालय (संतोष उपाध्याय और अन्य बनाम उत्तराखंड राज्य- 136/2020) में एक याचिका दायर कर तर्क दिया कि उत्तराखंड की विभिन्न जेलों में लगभग 1100 कैदी अपनी रिहाई के बारे में बिना किसी उचित नीति के सजा काट रहे हैं। उन्होंने अपने वकीलों (Adv. चार्ली प्रकाश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय) के माध्यम से पूछा कि राज्य में कैदियों की समय पर रिहाई के लिए कोई नीति क्यों नहीं थी? अदालत ने राज्य को नीति बनाने का आदेश दिया।
न्यायालय के आदेश के बाद राज्य सरकार ने 12 फरवरी, 2021 को नई नीति बनाई, जिसके तहत 26 जनवरी, 2022 को कैदियों को रिहा किया जाना है। अब उसी अदालत में जेलों में भीड़-भाड़, खुली जेलों, कर्मचारियों की कमी वाली जेलों और महिला कैदियों की स्थिति जैसे मुद्दों पर चर्चा चल रही है।
यहां महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय जेलों में बंद और रिहा होने की प्रतीक्षा कर रहे कैदियों की स्थिति की जांच की जाए। कोरोना महामारी के कारण उठ रहे विभिन्न मुद्दों और परिस्थितियों ने ना केवल जेलों में भीड़भाड़ से छुटकारा पाने और जमानत/न्याय के अधिकार और कैदियों के जीवन के अधिकार पर सोचने के लिए कई सबक भी दिए हैं।
कई मामलों में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत के महत्व को दोहराया है, क्योंकि किसी व्यक्ति की नज़रबंदी उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करती है। इसलिए गिरफ्तारी से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के प्रावधानों की व्याख्या करते समय अदालतों को संवैधानिक रूप से संरक्षित स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए, जब तक कि आरोपी की हिरासत अनिवार्यता ना बन जाए।
आंकड़ों के अनुसार, भारत की 1350 जेलों में 478,600 कैदी रहते हैं और अखिल भारतीय औसत अधिभोग दर 118.5 प्रतिशत है। कुछ राज्यों की जेलें दूसरों की तुलना में अधिक भीड़भाड़ वाली हैं उदाहरण के लिए दिल्ली में 174.9 प्रतिशत की उच्चतम अधिभोग दर दर्ज़ की गई है, उत्तर प्रदेश में 167.9 प्रतिशत और उत्तराखंड में 159.0 प्रतिशत है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 ए के तहत रिहा होने के योग्य और वास्तव में रिहा किए गए कैदियों की संख्या के बीच अंतर है।
धारा 436 ए में विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत मुचलके पर रिहा करने का प्रावधान है, यदि वे कारावास की अधिकतम अवधि का आधा हिस्सा भुगत चुके हैं जो उन्हें दोषी ठहराए जाने पर सामना करना पड़ता। 2016 में धारा 436ए के तहत रिहाई के योग्य पाए गए 1,557 विचाराधीन कैदियों में से केवल 929 को ही रिहा किया गया था। एमनेस्टी इंडिया ने पाया है कि कई जेल अधिकारी अक्सर इस धारा से अनजान होते हैं और कई इसे लागू करने के इच्छुक नहीं होते हैं।
जेलों में अप्राकृतिक मौतों की संख्या 2015 और 2016 के बीच 115 से 231 तक दोगुनी हो गई है। कैदियों के बीच आत्महत्या की दर में भी 28% (2015 में 77 आत्महत्याओं से 2016 में 102) की वृद्धि हुई थी। 2014 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी एक कड़वी सच्चाई बताई थी थी कि औसतन बाहर की तुलना में जेल में किसी व्यक्ति की आत्महत्या करने की संभावना डेढ़ गुना अधिक होती है।
भारत में जेलों में अत्यधिक भीड़भाड़ है जिस कारण स्वच्छता और सोशल डिस्टन्सिंग के मानदंडों को बनाए रखना असंभव है। एनसीआरबी द्वारा प्रकाशित 25वीं रिपोर्ट भारत की जेलों की निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। भारतीय जेलों की कुल क्षमता चार लाख (4,00,000) है, जबकि कैदियों की कुल संख्या 4.8 लाख है। जेलों की कुल संख्या 2018 में 1339 से बढ़ाकर 2019 में 1350 कर दी गई लेकिन यह भी कैदियों की संख्या के हिसाब से कम है।
कैदियों की कुल संख्या में, अधिकांश वे हैं जिनकी सजा घोषित नहीं हुई है, वे अंडरट्रायल हैं। अपराध साबित होने से पहले ही उन्हें जेल में डाल दिया जा रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 69.05% विचाराधीन कैदी थे, जबकि 30.11 प्रतिशत अपराधी थे। इस रिपोर्ट में मरने वाले दोषियों की संख्या में न्यूनतम गिरावट का उल्लेख है। 2018 में 1845 की तुलना में 2019 में कुल मौतों की संख्या 1775 थी।
यहां जेलों में सुधार के सुझाव देने के लिए गठित कई समितियों की सिफारिशों पर गौर करने की ज़रूरत है। इन समितियों में जस्टिस मुल्ला कमेटी 1983, जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर कमेटी ऑन महिला कैदियों 1987 शामिल हैं। उनके द्वारा सुझाए गए सुधारों में महिला अपराधियों के लिए अलग संस्थान स्थापित करना आदि शामिल हैं।
भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी शैलेंद्र प्रताप सिंह का कहना है, “भारतीय जेलों में कर्मचारियों की भारी कमी है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों की जेलों की तुलना में यहां की जेलों में विषाक्त वातावरण है। नियुक्त डॉक्टर पुलिस लाइन और जेल दोनों में सेवा देते हैं और कई बार डॉक्टर कुछ घंटों के लिए ही जेल जाते हैं। इसके अलावा, कैदियों के लिए मानवीय महसूस करने के लिए कोई गतिविधि या खुला समय नहीं है। अमेरिका में मुझे एक जेल देखने का मौका मिला, मैंने देखा कि कैदी आंगन में बास्केटबॉल खेल रहे हैं।”
स्थिति यह है कि जेल अधिकारियों की कुल क्षमता में से 33% सीटें खाली हैं। पुलिस अधिकारी और और कैदी अनुपात भी काफी खराब है। संयुक्त राष्ट्र ने निर्धारित किया है कि प्रत्येक एक लाख कैदियों के लिए 222 पुलिस कर्मी होने चाहिए। हालांकि, भारत में यह केवल 181/लाख है। एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि 2017 के अंत तक केवल 68.5% पद भरे गए थे।
कैदियों को दिन में लगभग 23 घंटे जेलों में बिताने पड़ते हैं, जिसका सीधा असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। पर्याप्त स्टाफ की कमी के कारण कैदी भी नशे के आदी हो जाते हैं, क्योंकि उनके पास साइकोट्रोपिक पदार्थ आसानी से पहुंच सकते हैं।
स्टाफ की कमी का असर हिंसक गतिविधियों में वृद्धि के रूप में भी सामने आता है। हमारे कानून अंग्रेज़ों के ज़माने के हैं, जो बदलते समय के साथ ठीक फिट नहीं होते। गौर करने लायक बात यह है कि विभिन्न कारणों से उन नियमों का भी ठीक से पालन नहीं किया जा रहा है।
जेल अधिनियम, 1894 और कैदी अधिनियम, 1900 के अनुसार, प्रत्येक जेल में एक कल्याण अधिकारी और एक विधि अधिकारी होना चाहिए लेकिन इन अधिकारियों की भर्ती अभी भी लंबित है। राजनीतिक और बजटीय प्राथमिकताओं को समस्या के कुछ कारणों के रूप में उद्धृत किया गया है।
भारत में जेल में बंद होना समाज में बुरा माना जाता है। जेल जाने वालों से समाज आशंकित रहता है। इन व्यक्तियों को समाज में वापस लाने की कोशिश करने वाले कोई सामाजिक या राजनीतिक आंदोलन भारत में नहीं दिखाई देते हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील अजय सिंह निकुंभ का कहना है कि यह हमारे सामाजिक ढांचे की वजह से है। “हमारे परिवारों को अंतिम उपाय माना जाता है। असल समस्या उन कैदियों के लिए है जिनके परिवार नहीं हैं या जिनके परिवारों ने उन्हें छोड़ दिया है।”
एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि परिवार और दोस्तों से कटे हुए कैदियों में आत्महत्या करने की संभावना 50% अधिक होती है। संतोष उपाध्याय, अधिवक्ता चार्ली प्रकाश और डॉ लेनिन रघुवंशी का तर्क है, कानूनी सहायता की कमी एक बहुत बड़ी चुनौती है। जो लोग वकील नहीं रख पाते, उन्हें केवल मुकदमे के समय कानूनी सहायता मिलती है और जब बंदी को रिमांड कोर्ट में लाया जाता है, तो उन्हें कानूनी सहायता नहीं मिलती है। कानूनी सहायता की कमी के कारण अधिकांश कैदी मुकदमे में फैसले का इंतज़ार करते हुए जेल में बंद हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता के.के.राय का कहना है कि इस समस्या से निपटने के लिए त्वरित सुनवाई, कैदियों की कानूनी साक्षरता बढ़ाना, जेल प्रशासन को संवेदनशील बनाना जैसे कुछ कदम उठाए जाने चाहिए।
चार्ल्स शोभराज बनाम अधीक्षक, केंद्रीय जेल, तिहाड़, नई दिल्ली के मामले में, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा कि जेलों में कैदियों के मौलिक अधिकार समाप्त नहीं होते हैं और यदि वातावरण निरंतर भय और हिंसा का है और स्वयं को सुधारने के अवसर से वंचित करने का है, तो ऐसी स्थितियों में अनुच्छेद 19 के आधार पर न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र कार्यशील हो जाएगा।
डॉ. लेनिन रघुवंशी का दावा है कि कैदियों के प्रति हमारे समाज की राय को बदलने की आवश्यकता है। उनका कहना है कि “संविधान का अनुच्छेद 14 अपने सभी नागरिकों को समानता के अधिकार की गारंटी देता है। यह कानून के समक्ष समानता और सभी नागरिकों को कानूनों का समान संरक्षण प्रदान करता है और हम यह नहीं कह सकते कि कैदी नागरिक नहीं हैं।”
संतोष उपाध्याय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए कहते हैं, जो मानवीय गरिमा के साथ जीवन के अधिकार से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ के मामले में कहा कि जब मानव जीवन की बात आती है, तो एक अपराधी और निर्दोष व्यक्ति के बीच अंतर का कोई मतलब नहीं है।
इसके अलावा अनुच्छेद 22 व्यक्तियों के एकान्त कारावास पर रोक लगाता है। सभी अधिकार जो संविधान द्वारा कैदियों को दिए गए हैं, उनकी सुरक्षा के लिए हैं और उन्हें एक सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जीने की अनुमति देते हैं। सरकारी अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि उन्हें ये अधिकार दिए जाएं और इन अधिकारों का उल्लंघन ना हो।
अधिवक्ता गोविंद सिंह चौहान बिहार के आनंद मोहन के मामले का हवाला देते हुए तर्क देते हैं कि राजनीतिक प्रतिशोध की भावना लोगों के जेलों के अंदर अधिक समय बिताने का एक बड़ा कारण है। वह कहते हैं कि बिना किसी पक्षपात के सभी के लिए कानून का समान रूप से पालन किया जाना चाहिए।
सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि बहुत ही असाधारण मामलों में एकान्त कारावास की अनुमति दी जानी चाहिए। अदालत ने एआर अंतुले बनाम आरएस नाइक के मामले में कैदियों के स्पीडी ट्रायल के अधिकार को मान्यता दी। अदालत ने माना कि त्वरित सुनवाई का अधिकार सभी के लिए उपलब्ध है और यह अनुच्छेद 21 से आता है।
कारागार अधिनियम, 1894 की धारा 4 में कैदियों के लिए स्वच्छता की स्थिति और आवास का प्रावधान है। इसके अलावा, धारा 7 उपलब्ध स्थानों की तुलना में अधिक भीड़/कैदियों की अधिक संख्या के मामले में कैदियों की सुरक्षित हिरासत का प्रावधान करती है।
जेल अधिनियम, 1984 भी कैदियों को विभिन्न अधिकार प्रदान करता है। संतोष उपाध्याय का कहना है कि हमें कुछ विकसित देशों से सीखने और न्याय अनुरूप मानवीय मूल्यों का पालन करते हुए भारत में कैदियों की स्थिति में सुधार करने की जरूरत है। यह स्थितियां स्पष्ट करती हैं कि कैदियों और कारागारों की स्थितियों बेहतर बनाने लिए भारत को अभी एक लम्बी दूरी तय करनी है।
नोट : (आशीष वर्तमान में रूस की नेशनल रिसर्च यूनिवर्सिटी (एच एस इ) से राजनीति की पढ़ाई कर रहे हैं।)