आत्मनिर्भर भारत की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों से हैंडलूम (हस्तकरघा) की अपनी समृद्ध परंपरा और हुनरमंद बुनकरों के हुनर को दुनिया के सामने लाने की अपील की थी बावजूद इसके आज बिहार के विभिन्न ज़िलों के बुनकरों की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है।
पहले से उनके पास काम की कमी, तो थी ही पिछले दो सालों में कोरोना के कारण उनके उत्पाद से जुड़े बाज़ारों पर भी गहरा असर पड़ा है। साल में लगने वाले मेले, प्रदर्शनी और विभिन्न जगहों से मिलने वाले ऑर्डर अब ना के बराबर रह जाने से बुनकर अपना जीवनयापन बेहद कठिनाई से कर पा रहे हैं।
बुनकरों का कहना है कि उनके उत्पादों के लिए एक भी बेहतर प्लेटफॉर्म या बाज़ार नहीं हैं, जहां उनके उत्पादों की बिक्री हो सके और उनका मानना है कि सरकार की योजनाएं, तो हैं लेकिन इसका लाभ बहुत कम लोगों को मिल पाता है।
सरकार को बुनकरों के लिए एक मार्केटप्लेस देने की ज़रूरत है, जिससे वे अपनी कला से जुड़कर आजीविका कमा सकें। सरकार की ओर से उन्हें सतरंगी चादर, स्कूल के पोशाक, हॉस्पिटल के लिए चादर आदि का ऑर्डर अगर मिले, तो काफी हद तक बुनकरों के हालातों में बदलाव आ सकता है। कुछ प्राइवेट और सरकारी संस्थाओं का गठन किया जाए, जिससे उन्हें अपने उत्पादों के लिए अच्छे बाज़ार की उम्मीदें, बुनकरों का काम और एक बेहतर प्लेटफॉर्म मिले।
पटना ज़िले के पालीगंज अनुमंडल स्थित सिंगोड़ी में 15,000 बुनकरों का परिवार रहता है। यहां अब भी करीब 5000 बुनकर कार्य कर रहे हैं, जहां पहले 500 लूम चला करते थे, वहीं आज सिर्फ 100 लूम चल रहे हैं। इसका प्रमुख कारण मार्केट का ना होना है।
स्थानीय ग्रामीण व प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति के अध्यक्ष फैयाज अहमद बताते हैं कि अभी उनके साथ 100 बुनकर कार्य कर रहे हैं। आज से पांच साल पहले सभी की स्थिति काफी बेहतर थी, लेकिन पिछले दो सालों में कोरोना के चलते उनकी आर्थिक स्थिति काफी खराब हुई है।
उनके उत्पादों को एक बेहतर बाज़ार नहीं मिलने की वजह से 30 लाख का सामान बचा हुआ है। सतरंगी चादर, सर्टिंग और गमछा में कार्य करने वाले बुनकर अब लूम में दिन-रात की जगह कुछ ही घंटों के लिए काम करते हैं। सरकार की ओर से मौखिक तौर पर पर्दों का ऑर्डर मिला था, जिसे बुनकरों ने तैयार किया था लेकिन आज तक इसकी डिलीवरी नहीं हुई है। हम चाहते हैं कि सरकार हमें पूंजी से अधिक हमारे उत्पादों के लिए बेहतर अच्छे बाज़ार और प्लेटफॉर्म्स उपलब्ध करा दे।
इस संबंध में नवादा में हैंडलूम सिल्क का काम कर रहे शैलेंद्र कुमार बताते हैं कि यह काम उनके घर में कई पुश्तों से चलता आ रहा है। उनके साथ कोऑपरेटिव सोसाइटी के ज़रिये नवादा, कादिरगंज और गोपालगंज के रहने वाले गाँव के बुनकर शामिल हैं।
महिलाएं चरखे पर धागा तैयार करती हैं जबकि पुरुष बुनाई का काम करते हैं। महिला-पुरुष मिलाकर 800 लोग इसमें काम करते हैं। इससे पहले एग्जीबिशन, सरस मेला, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में लगने वाले नेशनल एग्जीबिशन से बड़े पैमाने पर ऑर्डर मिलते थे, लेकिन पिछले दो सालों से इस कारोबार पर 40-50 प्रतिशत कमी आई है। सिल्क महंगा होता है, ऐसे में बुनकरों के लिए बेहतर बाज़ार ना होने पर इसका असर उनके काम पर भी पड़ा है।
वहीं बिहारशरीफ के रहने वाले कपिल देव प्रसाद बताते हैं कि पिछले 50 सालों से वे बावन बूटी की साड़ी, चादर और इससे जुड़े उत्पाद तैयार कर रहे हैं। वे बसवन बीघा प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति संस्था से जुड़े हुए हैं। बावन बूटी का काम उनके परिवार का पुश्तैनी काम है और दो साल पहले तक कई प्राइवेट संस्थाएं उनके और अन्य बुनकरों द्वारा बनाए गए उत्पादों के लिए बाज़ार मुहैया करवाती थीं, लेकिन पिछले दो सालों में इसमें काफी अंतर आया है।
बुनकरों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। नई पीढ़ी इस काम से जुड़ना नहीं चाहती, क्योंकि बाज़ार की कमी है, तो आर्थिक विकास संभव नहीं होता है। कपिल देव के अनुसार, सरकार को बुनकरों के विकास के लिए कई ज़रूरी कदम उठाने होंगे, जिससे उन्हें अधिक-से-अधिक संख्या में ऑर्डर मिल सकें।
भपटिया गाँव, सिकटी प्रखंड ज़िला अररिया के रहने वाले अशोक सिंह बताते हैं कि उनका परिवार जूट से जुड़े हुए कार्य करता है लेकिन सभी की तरह उनके पास भी अपने उत्पादों के लिए बाज़ार मुहैया कराने का कोई ज़रिया ही नहीं है।
गाँव के आस-पास रहने वाले लोग और दुकानदार ही इनके उत्पाद को खरीदते हैं। उन्होंने कहा कि सरकार को सभी बुनकरों का एक ऐसा समूह बनाना चाहिए, जो उन्हें आज के बाज़ारीकरण के अनुसार उन्हें अपडेट रखने और सामान तैयार करने में मदद करे, ताकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम चल सके। औरंगाबाद के रहने वाले राज नंदन प्रसाद बताते हैं कि वे पिछले 25 सालों से कालीन का काम कर रहे हैं।
महफिल-ए-कालीन ओबरा प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति लिमिटेड नाम की संस्था की स्थापना 1986 में की गई थी। यहां पर कई बुनकर कालीन बनाने का कार्य करते हैं। राज नंदन बताते हैं कि 1986 में सरकार की ओर से बुनकरों को कालीन बनाने की ट्रेनिंग दी गई थी और साथ ही सरकारी संस्था का भी गठन किया गया था, लेकिन देख-रेख की कमी से संस्था बंद हो गई और कई कालीन बुनकर दूसरे राज्यों में जाकर बस गए।
उनकी संस्था लगातार इस हस्तकरघा कला को संजोने का काम कर रही है। उनके पास ज़्यादातर ऑर्डर बिहार, झारखंड और यूपी से आते हैं। उन्होंने कहा कि यह काम बहुत मेहनत से भरा होता है लेकिन बुनकरों को उनके लागत अनुसार मुनाफा ज़्यादा नहीं मिल पाता है। ऐसे में बुनकरों को ई मार्केट, ई कॉमर्स और बदलते ट्रेंड के साथ अपडेट करने के लिए सरकार को पहल करनी होगी।
बांका सिल्क प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक उदयन सिंह बताते हैं कि भागलपुर और बांका में हैंडलूम सिल्क के कारीगरों को बेहतर मार्केट मिले इसके लिए वे लगातार उन्हें नई तकनीक और बाज़ार में किस तरह की स्पर्धा है, इससे जुड़ी जानकारियों से अवगत करा रहे हैं।
उनके साथ फैशन डिजाइनर भी बुनकरों को फैब्रिक के बारे में समझा कर उस पर काम करने के तरीके बता रहे हैं। बिहार सरकार के साथ वे लगातार एक्सपोर्ट पॉलिसी को लेकर कार्य कर रहे हैं और साथ ही नाबार्ड से भी सहयोग मिले, इसके लिए भी बातचीत जारी है।
हाल ही में भागलपुर और बांके बुनकरों का उत्पाद वेंकूवर, टोरंटो एक स्टोर में एक्सपोर्ट किया गया और आने वाले कुछ महीनों में नीदरलैंड, दुबई और अन्य राज्यों में उत्पादों को एक्सपोर्ट किया जाएगा।
रामपुर बोध गया की रहने वाली प्रियंका देवी बताती हैं कि हमारे यहां भेड़ों से निकलने वाले ऊन से कंबल बनाया जाता है। यह हमारा पुश्तैनी काम है। पिछले साल कोरोना और फिर लॉकडाउन के दौरान उस समय जो सामान बुने थे, वह नहीं बिक पाया जिसके कारण उन्हें अधिक लागत से तैयार किया गया सामान उसके आधे दाम पर बेचना पड़ा। इस में खुद की पूंजी लगाने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ गई थी।
सरकार की योजनाओं के बारे में हम जैसी कई महिलाओं को जानकारी ही नहीं है। फिलहाल हमें कुछ ऑर्डर यहां के लोकल व्यापारियों से मिल रहे हैं लेकिन इससे गुज़ारा कर पाना आसान नहीं है। वहीं रामपुर की रहने वाली आरती कुमारी बताती हैं कि वे 2019 से गमछा और चादर बनाने का काम करती थीं, लेकिन लॉकडाउन में आर्थिक तंगी इतनी ज़्यादा हो गई कि उन्हें अपना यह काम बंद करना पड़ा।
कोरोना काल में बुनकरों को सबसे ज़्यादा परेशानी और नुकसान हुआ है और अब फिर से कोरोना का आतंक मंडराने भी लगा है। ऐसे में काम नहीं मिलने से कई बुनकरों ने अपना पुश्तैनी काम छोड़ दिया, तो कइयों ने आधे पेट खाकर गुज़ारा किया, क्योंकि उन्हें लागत से ज़्यादा नुकसान होने लगा है।
हालांकि, सरकार ने अपने स्तर से बुनकरों को पहचान दिलाने का प्रयास किया है जैसे- प्रदेश के सभी बुनकरों को कार्यशील पूंजी उपलब्ध कराई जा रही है। इसके तहत राज्य सरकार दस हज़ार रुपये उनके बैंक खाते में जमा कराती है और इसके साथ ही प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना का लाभ बुनकरों को देने के लिए प्रतिवर्ष दिया जाने वाला अंशदान भी राज्य सरकार देती है।
इसके अलावा बुनकरों को तकनीकी योजना और धागा उपलब्ध कराने की योजना भी चलाई जा रही है, ताकि उन्हें प्रोत्साहन मिले और उनके उत्पादों को खरीदने की योजना बने जिससे इन्हें घाटा ना हो। बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के लिए सरकारी संरक्षण भी दिया जा रहा है। हालांकि, बुनकरों को रोज़गार के साधन मिलते रहें और उनका काम ना रुके इसके लिए सरकार योजनाएं तो चला रही है मगर कोरोना की रफ्तार को देखते हुए भी कुछ विशेष योजनाएं बनाने की ज़रूरत है।
नोट- यह आलेख पटना से जूही स्मिता ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।