फिल्म अतरंगी रे, आज के समय में बेहद ज़रूरी और मेंटल हेल्थ को लेकर अहम संदेश देती हुई कहानी है। कहानी में बिहार की एक लड़की रिंकू सूर्यवंशी को जादूगर सज्जाद अली से प्यार है, जिसके कारण लड़की उस लड़के के साथ कुछ बीस-इक्कीस बार घर से भाग चुकी है लेकिन हर बार पकड़ी गई, जिसके कारण वो घर वालों और नानी से कई बार बुरी तरह से पिटी भी है।
प्रेम और ज़बर्दस्ती शादी कर देने की कहानी
मगर कहानी में कोई उसे किसी के साथ भागते ना तो देख पाता है और ना ही भागने वाले का नाम-पता जान पाता है। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि लड़की को पीट-पीटकर उसका नाम, पता पूछा जाता है लेकिन वो नहीं बताती है।
फिर अंत में बदनामी से बचने के लिए बिहार आए एक मेडिकल स्टूडेंट को ज़बरदस्ती पकड़कर दोनों का ब्याह करा दिया जाता है और फिर शादी के बाद उस मेडिकल स्टूडेंट को पता चलता है कि सज्जाद कोई लड़का नहीं, बल्कि उसकी कल्पना है।
इस तरह इस फिल्म में दो महत्वपूर्ण पहलुओं को दिखाया गया है। एक जबरन शादी, दूसरा लड़की का मानसिक बीमारी से जूझना!
शादी, एक लड़की की हर बीमारी का हल कैसे?
अब सवाल उठता है कि क्यों आज भी लड़कियों की सारी समस्याओं का समाधान शादी ही है? क्यों बिहार जैसा पिछड़ा राज्य अपनी लड़कियों की जबरन शादी कराने के लिए मजबूर है? वो भी यह जानते हुए कि एक औरत के लिए जबरन शादी कर देना, कितनी गम्भीर यातनाओं से भरा होता है।
यदि आप नहीं जानते, तब केस स्टडी करके देखिए समझ में आ जाएगा। फिल्म की कहानी एक अति संवेदनशील पहलू की ओर ध्यान खींचती है, उसके बाद वो मेडिकल स्टूडेंट और उसके दोस्त लड़की का मेडिकल इलाज शुरू करने के साथ साथ उसकी काउंसलिंग करना शुरू करते हैं।
मनोदशा को समझना बेहद ज़रूरी
लड़की को जिस तरह का सपोर्टिव माहौल मिलता है, उसको जिस तरीके से लोग ट्रीट करते हैं, विशेषतः जिससे जबरन उसकी शादी कराई गई, वो पति उसको जिस तरीके से ट्रीट करता है, उससे हम सभी को सीखने-समझने की ज़रूरत है। असल ज़िंदगी में अगर किसी भी मानसिक बीमारी से जूझ रहे इंसान को यह सपोर्ट मिले तो अमूमन उसे बचाया जा सकता है।
आज के दौर में डिप्रेशन एक आम बात है और मैंने देखा है लोग डिप्रेस लोगों के आसपास होने से भी किस तरह घबराते हैं, डरते हैं।
ऐसे मे जबरन शादी के बावजूद भी उस मेडिकल स्टूडेंट का उस लड़की का साथ देना, उसकी मानसिक मनोदशा को समझना, उसके मान-सम्मान के लिए लोगों से लड़ना प्रेम को एक नए आयाम से जोड़ता है। खासकर, आज कल के दौर में जहां किसी को भी किसी के लिए ना तो समय है ना ही कोई समझदारी!
इलाज के बजाय शादी क्यों?
सबको सबकुछ फटाफट और बिना ज़्यादा झगड़े का चाहिए बिल्कुल रेडीमेड! जैसे बाकी सारा कुछ मिलता है बाज़ार में रेडीमेड! ठीक वैसे ही इंसान भी चाहिए। रेडीमेड की जो मानसिकता बाज़ार ने गढ़ी है, वो असल ज़िंदगी में लोगों को लोगों से दूर कर रही है या कहें अकेला और खाली कर रही है।
खैर, कहानी पर आते हैं। लड़की का सायको, बचपन की घटनाओं के बाद जिस तरीके से तैयार होता है, वो कोई बड़ी बात नहीं है। आम ज़िंदगी में भी ऐसा ही होता है। बचपन की घटनाओं को अगर समय के साथ डील नहीं किया गया, तो ये पूरी ज़िंदगी आपका पीछा करती हैं।
वहीं, लड़की के घर वाले उसको समझने के बजाय, अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए बिना सोचे-समझे उसको किसी के साथ भी शादी करके फ्री होना चाहते हैं, यह भी सामाजिक सच्चाई है।
मैंने स्कूल टाइम में गाँवों में देखा है, लोग लड़की की किसी भी बीमारी का इलाज कराने से पहले उसकी शादी करा देना चाहते हैं। बाद में खबर आती है कि वो नहीं बची और इस घटना को याद करते हुए मुझे याद आ रही मेरी एक दोस्त, जिसे अक्सर पेट मे दर्द रहता था।
वो क्लास में भी दर्द से अक्सर रोने लगती थी, फिर पता चला उसकी जल्दी-जल्दी शादी करा दी गई, ताकि आगे का इलाज उसका पति देखे या फिर सर्जरी के बाद शादी कराना मुश्किल होगा, जैसे सवालों से बचने के लिए यह सब किया गया और साल भर बाद पता चला वो नहीं बची! बीमारी का पता चला कि उसे अपेंडिक्स था।
ये घटना मेरी याद और अनुभव की सबसे पीड़ादायक घटना रही।
भूत-प्रेत की अवधारणा और मेंटल हेल्थ
वहीं, गाँव में आज भी लोगों को भूत आते हैं, जो एक मानसिक बीमारी है। मेरे गाँव वाले टोला में आज भी और पुराने समय में भी लड़कियों को भूत आते थे। वहीं, इस सबको लेकर लोग अलग-अलग बात बनाते थे। ऐसी घटनाओं में फटाफट शादी के लिए लड़का खोजने लगते हैं और ज़्यादा मुश्किल होने पर जबरन शादी का विकल्प भी दिमाग में रखते हैं।
वहीं, अगर हम शहरों की बात करें, तो शहरो में भी डिप्रेशन होता है, जो कि एक समान्य बीमारी है लेकिन दिमागी भी है! अगर मैं अपनी बात करूं तो मैं तब तक शहर आ चुकी थी, जब मेरे पर भूत आया लेकिन तब तक मुझे डिप्रेशन के बारे में पता चल चुका था। मैंने अपना इलाज करवाया। एक लंबी लड़ाई लड़ी, अपने भूत के साथ। हालांकि यह लड़ाई शहर में मैंने बहुत हद तक अकेले ही लड़ी।
जागरुकता का अभाव
मेरे आसपास मेंटल हेल्थ को लेकर सभी पढ़े-लिखे जानकर लोग थे। ये अलग बात है कि साथ कोई नहीं थे। सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त बने रहे मगर सच कहूं तो खासकर शहरों में लोगों को मोटी-मोटी या कहें ऊपरी तौर पर मेंटल हेल्थ को लेकर जानकारी तो है लेकिन इसके प्रति कोई जागरुकता नहीं है।
हालात तब और गम्भीर हो जाते हैं जब मामला अगर लड़की से जुड़ा हो। जब लड़कियों के प्रति ही लोगों की जागरुकता नहीं है, उनके शारीरिक स्वास्थ्य की लोगों को परवाह नहीं है, तो मानसिक दिक्कतों को कौन ध्यान दे! है ना?
वैसे भी मर्द ही इस समाज की सम्पत्ति है और औरत तो यहां सब पर बोझ है। मैंने लड़कियों को लड़ते भी देखा है और मौन भी और दोनों हीं स्थिति में आप अकेले ही हैं।
खैर, इस फिल्म में मैं उस लड़की की मनोदशा को समझ पा रही हूं। जबरन शादी कराये पति जैसा सबको पार्टनर, भाई, माँ-बाप, दोस्त-यार, घर-परिवार मिले! विषय की गंभीरता को भी मैं समझ रही हूं।
यह जो बाज़ार ने मानसिकता गढ़ी है ना सब कुछ रेडीमेड नहीं होता, असल ज़िंदगी में कुछ चीज़ों को अपनाना भी पड़ता है, लड़ना भी पड़ता है। वहीं, कुछ चीज़ों को डील भी करना होता है। बहुत चीज़ों को प्रेम से भी बदला जा सकता है, किसी की जान भी बचाई जा सकती है।