बीते दिनों पूर्वोत्तर में एक हृदय विदारक घटना हुई। नागालैंड के मोन ज़िले में तिरु और ओटिंग के बीच, कोयला खदान से काम कर लौट रहे छह मज़दूर सैन्य गोलीबारी में मारे गए।
इसके बाद आक्रोशित जनता ने सेना की एक टुकड़ी को घेर लिया, वाहन फूंक डालें और उन पर हमला बोल दिया। इस वाकये में भी सात नागरिकों एवं एक जवान को भारत ने खोया। कई नागरिक और जवान भी घायल हुए।
इस तनावपूर्ण स्थिति को देखते हुए उस इलाके में निषेधाज्ञा लागू कर दी गई एवं इंटरनेट सेवाओं को बंद कर दिया गया। वैसे, इस स्थिति पर काबू पा लिया गया था पर नागालैंड अब भी उबल रहा था। अगले दिन फिर गुस्साई भीड़ ने असम राइफल्स के शिविर को घेर लिया इस दौरान भी कई नागरिक जख्मी हो गए। नागालैंड पुलिस ने इस बाबत मोन ज़िले में 21पैरा मिलिट्री फोर्स के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज़ की है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने अफस्पा से जुड़ी अनेकों काली यादों को फिर से एक बार ताज़ा कर दिया है, लाखों जख्मों को कुरेद दिया है और कभी भी मारे जाने के डर को लाखों निर्दोष लोगों के जेहन में फिर से जिंदा कर दिया है। हालांकि, इस मामले की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय विशेष जांच दल (एसआईटी )का गठन कर दिया गया है, जिसे एक महीने में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी है।
सरकार की मानें, तो यह गलत पहचान का मामला था। सुरक्षाबलों को इस क्षेत्र में चरमपंथियों की आवाजाही के बारे में गुप्त सूचना मिली थी। इस कारण जब मज़दूरों को लेकर जा रहा वाहन रुकने के इशारे पर भी नहीं रुका, तो संदेह को सच मानते हुए सुरक्षाबलों ने फायरिंग शुरू कर दी।
नागालैंड के मोन ज़िले की सीमाएं अरुणाचल प्रदेश, असम और म्यांमार के साथ लगती हैं। यह ज़िला एनएससीएन (के) और उल्फा जैसे चरमपंथी संगठनों का गढ़ माना जाता है। इस कारण इस बात को सहजता से स्वीकार किया जा सकता है कि भारतीय नागरिकों से भरा वाहन जब नहीं रुका तो सुरक्षाबलों को उसमें उग्रवादियों की संभावना नज़र आई और उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी।
परंतु क्या केवल इस बिनाह पर कि वह वाहन संदिग्ध इलाके से गुज़र रहा था और सुरक्षाबलों के इशारे के बावजूद नहीं रुका, तो उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाना सही है?
क्या बिना यह पुख्ता किए कि उस वाहन में मौजूद लोगों के पास हथियार, गोला बारूद या अन्य कुछ ऐसा सामान जिससे सुरक्षा बलों को खतरा हो, हैं भी या नहीं, आधा दर्जन इंसानों को मौत के घाट उतार देना सही है?
क्या यह सोचा जाना इतना मुश्किल था कि शाम पांच बजे जब सूरज पूरी तरह ढला भी ना हो उस आम रास्ते से गुज़र रहे उस पिकअप ट्रक में अपने लोग भी हो सकते हैं? मोन ज़िले में दर्ज़ एफआईआर में कहा गया है कि सुरक्षाबलों की उस टुकड़ी के साथ कोई भी लोकल पुलिस गाइड नहीं था, तो क्या यह समझा जाना चाहिए कि सुरक्षाबलों की ओर से ही गई लापरवाही और चूक ने दर्जन भर से ज़्यादा परिवारों की खुशियां लील लीं। संभवत अगर उनके साथ कोई लोकल पुलिस गाइड होता, तो यह गलत पहचान की भूल ना हुई होती।
परंतु इस संभावना को भी नहीं नकारा जा सकता है कि यह खुफिया तंत्र की नाकामयाबी का नतीजा है। यह कहना तो ज़ल्दबाजी होगी कि खुफिया तंत्र पूरी तरह विफल रहा है पर इस दुर्घटना ने इसमें सेंधमारी के संकेतों को भी हवा दे दी हैं।
कहीं ये सेना को फंसाने की दो तरफा चाल तो नहीं थी, जो कामयाब हो गई? यह अफस्पा के साए में सेना को विलेन बनाने की उग्रवादियों की कोशिश भी हो सकती है जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। लोगों की दृष्टि में रक्षक को भक्षक बनाने की चेष्टा भी यह हो सकती है।
परन्तु इस सूरत-ए-हाल में भी अफस्पा का दोष तो कम नहीं हो जाएगा। इस दुर्घटना के तुरंत बाद नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो एवं मेघालय के मुख्य्मंत्री कॉनराड के संगमा ने एक सुर में अफस्पा को वापस लेने की मांग की है।
क्या है अफस्पा? जानिए
गौरतलब है कि दोनों ही राज्यों में बीजेपी समर्थित सरकारें हैं। वैसे, यह तो सर्वविदित है कि अफस्पा के बारे में पूरे उत्तर-पूर्व की वही राय है, जो इस वक्त नागालैंड की है। आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (अफस्पा) संसद द्वारा पारित वह कानून है, जो सैन्यबलों को “अशांत क्षेत्रों” में विशेषाधिकार प्रदान करता है।
इसमें केवल “संदेह”के आधार पर सेना बिना वारंट किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है, उसके घर की तलाशी ले सकती है और “शूट एट साइट” भी कर सकती है। गलत कार्यवाही की स्थिति में भी बिना केंद्र की पूर्व अनुमति के सेना पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है।
इस तरह से यह सेना को “ब्लैंकेट इम्यूनिटी” प्रदान करता है, ताकि बिना किसी डर के वह अपनी कारवाई कर सके परंतु 1958 से लागू यह औपनिवेशिक कानून भारतीय लोकतंत्र के लिए एक धब्बा है, जो दशकों से पूर्वोत्तर का नासूर बना हुआ है।
भारतीय न्यायपालिका का एक स्थापित सिद्धांत है कि सौ आरोपी भले ही छूट जाए परंतु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। इससे उलट स्वतंत्र भारत में ही एक ऐसा कानून भी है जो “ना वकील, ना दलील, ना अपील” की तर्ज पर काम करता है।
इरोम शर्मिला, जस्टिस जीवन रेड्डी आयोग, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग समेत मानव अधिकार संगठन इसे निरस्त करने की मांग करते रहे हैं फिर 21वीं शताब्दी के स्वतंत्र भारत में मानवीय मूल्यों का गला घोंटने वाले अफस्पा जैसे काले अमानवीय कानून का हाथ तो नहीं है। इस कानून का आसरा ना होता तो सुरक्षाबलों से यह चूक कभी नहीं होती।
फिलहाल यह तय कर पाना मुश्किल है कि इस नरसंहार का असली ज़िम्मेदार कौन है परंतु यह तो तय है कि तात्कालिक कारण जो भी रहा हो, इसकी जड़े अफस्पा से ही जुड़ी हुई हैं।