17 करोड़ के करीब भारत में मुस्लिम जनसंख्या है। ये दुनिया के किसी भी देश में मुसलमानों की तीसरी सबसे ज़्यादा बड़ी आबादी है।
पिछले 1400 सालों में हिंदुस्तान में मुसलमानों ने एक अमिट छाप छोड़ी है। खान-पान, शायरी, संगीत, मोहब्बत और इबादत का साझा इतिहास बनाया और जिया है।
यूं तो हमारे देश को आज़ाद हुए 75 साल पूरे होने को हैं, किंतु अक्सर जब हम जाति और धर्म के नाम पर राजनेताओं को वोट मांगते देखते हैं, तो मज़बूर हो कर सोचना पड़ता है कि हम अभी ‘असल आज़ादी’ से अभी कोसों दूर हैं।
हमारे देश में ऐसे कहने को तो विकास की पॉलिटिक्स तमाम राजनीतिक पार्टियां करती हैं, आम जनमानस से बढ़-चढ़कर वादे करती हैं, दावे करती हैं किंतु जब चुनाव आते हैं, तो सब कुछ भूल कर जाति और धर्म की तरफ मुड़ जाती हैं।
जाति के नाम पर और धर्म के नाम पर उम्मीदवार भी तय किए जाते हैं और इतना ही नहीं बल्कि एक जाति को दूसरे के प्रति भड़काकर, लड़ा कर अपना उल्लू सीधा किया जाता है। अब यह एक सच्चाई बन चुकी है, जिससे कोई भी विश्लेषक मुंह मोड़ कर अपना पीछा नहीं छुड़ा सकता है।
हाल-फिलहाल उत्तर प्रदेश के चुनाव होने वाले हैं और यहां मुसलमान वोटर्स की अच्छी-खासी संख्या है, लगभग 19 फीसदी और इस समुदाय का वोट हासिल करने के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियां छिछली राजनीति पर उतर आई हैं।
इस बात से किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए और शायद होता भी नहीं अगर कोई पार्टी मुसलमानों की समस्याएं दूर करना चाहती, बात अगर हम उत्तर प्रदेश की करें, तो हमेशा मुसलमानों को ठगा गया है। हम अगर बात भारतीय जनता पार्टी की करें, तो भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओ का कहना है कि हमको मुसलमानों के वोटों की ज़रूरत नहीं है।
अभी बीते दिनों में भारतीय जनता पार्टी के कई कार्यकर्ताओ ऐसे बयान सामने आए हैं। असम के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत विश्व शर्मा ने भी इसी साल यह बयान दिया है कि ‘भारतीय जनता पार्टी को मुसलमानों के वोट की ज़रूरत नहीं है।’
अब बात आती है उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी से पहले की सरकारों की जैसे समाजवादी पार्टी इससे पहले वहां की सरकार में थी। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को मुसलमानों का बहुत बड़ा जनाधार मिला था और समाजवादी पार्टी ने बहुमत से अपनी सरकार भी बनाई थी। अब बात आती है मुसलमानों के वोटों के बदले समाजवादी पार्टी द्वारा किए गए वादों की।
समाजवादी पार्टी ने चुनावों के समय अपने मेनिफेस्टो में ये वादा किया था कि हम मुसलमानों को सरकार बनने के बाद 18% आरक्षण देंगे। इसमें भी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को ठगा गया था। उनसे किया गया कोई भी वादा सरकार द्वारा पूरा नहीं किया गया।
बीसियों सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक मुद्दे हैं जिनके केंद्र में मुसलमान हैं लेकिन वे सभी मुद्दे हाशिए पर हैं, सिवाय मुसलमानों की देशभक्ति मापने के और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ सत्ता में आई बीजेपी के ‘सब में मुसलमान हों, ऐसा तो कहीं दिखता ही नहीं है।
आबादी के अनुपात में मुसलमानों की नुमाइंदगी सिर्फ राजनीति में ही नहीं बल्कि कॉर्पोरेट, सरकारी नौकरी और प्रोफेशनल करियर के क्षेत्रों में भी नहीं है, इसकी तस्दीक कई अध्ययनों में हो चुकी है जिनमें 2006 की जस्टिस सच्चर कमेटी की रिपोर्ट सबसे जानी-मानी है।
नफरत की भेड़ चाल
अखलाक, जुनैद, पहलू खान और अफराज़ुल जैसे ऐसे कई नाम हैं जिनकी हत्या सिर्फ इसलिए हुई, क्योंकि वे मुसलमान थे। अमेरिकी एजेंसी यूएस कमेटी ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में कहा है कि ‘नरेंद्र मोदी के शासनकाल में धार्मिक अल्पसंख्यकों का जीवन असुरक्षित हुआ है।’
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘सहारनपुर और मुज़फ़्फ़रनगर जैसे दंगों के पीड़ितों को अब तक कोई इंसाफ नहीं मिला है। इस रिपोर्ट में लिखा है कि प्रधानमंत्री ने सांप्रदायिक हिंसा की निंदा तो की है लेकिन उनकी पार्टी के लोग हिंसा भड़काने में शामिल रहे हैं। ‘
कासगंज, औरंगाबाद, रोसड़ा, भागलपुर और आसनसोल जैसे देश के अनेक शहरों में सांप्रदायिक हिंसा भड़की, इन सभी मामलों में देश की राजधानी दिल्ली का दंगा सबसे ऊपर है और इन सब दंगों में हुई हिंसा का एक निश्चित पैटर्न था, कुछ मामलों में तो भाजपा के नेता स्वयं उपद्रवियों की अगुवाई कर रहे थे।
मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी
17 करोड़ और 20 लाख, ये ब्रिटेन, स्पेन और इटली की कुल जमा आबादी है। भारत में इतने ही मुसलमान रहते हैं । 17 करोड़ लोगों की लोकसभा में नुमाइंदगी ना के बराबर है। पुर्तगाल, हंगरी, स्वीडन और ऑस्ट्रिया की आबादी का कुल जोड़ है- चार करोड़।
भारत की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में तकरीबन इतने ही मुसलमान बसते हैं। अब सोचिए, चार करोड़ लोगों की मौजूदा लोकसभा में कोई नुमाइंदगी नहीं है। इन आंकड़ों से यह ज्ञात होता है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कितनी-कितनी हिस्सेदारी है। ये आंकड़े लोकतंत्र के भविष्य के लिए खतरनाक हैं।
लोकतांत्रिक चुनावों में मानो नया नियम बना दिया गया है कि 80 प्रतिशत का मुकाबला 14 प्रतिशत से होगा। ऐसी हालत में मुसलमानों के लिए लोकतंत्र का क्या मतलब है, ये गंभीरता से सोचने की बात है।
कांग्रेस के राज में मुसलमानों को, जो मिला उसे भाजपा ‘तुष्टीकरण’ कहती है लेकिन क्या वाकई देश के करोड़ों मुसलमान कांग्रेस के राज में तुष्ट हुए? उनकी मौजूदा हालत चार सालों की नहीं, दशकों की उपेक्षा और सियासी चालबाज़ियों का नतीजा है।
मगर सबसे अहम बात यह भी है कि भाजपा ने जिस तरह का माहौल बनाया है, कांग्रेस या दूसरी पार्टियां भी मुसलमानों से एक खास तरह की दूरी रखकर चल रही हैं और शायद आगे भी चलेंगी।