सोचिए कि अगर एक दिन आप सुबह उठें और आपके नल में पानी ना आए, तो आप क्या करेंगे? इस सवाल पर हर पढ़ने वाले का अपना जवाब हो सकता है, आप देखेंगे कि जिस भी साधन से आप पानी प्राप्त करते हैं, उसको जांचेंगे और पानी पाने का प्रयास करेंगे।
अगर आप सोसाइटी से पानी प्राप्त करते हैं, तो आप वहां बात करेंगे और आपको पता चले कि वो नलकूप सूख चुका है मतलब उसमें पानी नहीं बचा है या आपके घर में पानी जिस नलकूप से आता है, वह पूरी तरह से सूख चुका है या जिस नदी या जलाशय से पानी आता था, वो अब सूख चुका है।
इसके बाद आप शायद पानी टैंकर सप्लाई करने वाले से बात करें पर वो भी मना कर दे कि उसके पास भी पानी खत्म हो चुका है।
अब शायद आप सच में ही परेशान हो जाएं, क्योंकि आपके पास पीने को भी पानी ना हो। आज यह सवाल आपसे इसलिए पूछा जा रहा है, क्योंकि देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है।
देश के 14 राज्यों में स्वच्छ पानी को लेकर हालात बेहद नाजुक हैं। जल संकट वाले 122 देशों की सूची में भारत का स्थान 120वां है और यह हालात तब हैं, जब भारत नदियों का देश है।
वहीं केंद्रीय जल आयोग के आंकड़े बताते हैं कि ‘देश के 91 जलाशयों में उनकी क्षमता का 25% पानी ही बचा है। 71% जलाशयों में पानी और भी कम बचा है।
गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में हालात और भी खराब हैं। महाराष्ट्र के जलाशयों में 68% तक पानी खत्म हो चुका है। वहीं गुजरात के जलाशयों में भी पानी कम हो गया है। दुर्भाग्य यह है कि देश में बारिश के पानी के इस्तेमाल की व्यवस्था लगभग नहीं है। बारिश का सिर्फ 10-15% पानी ही इस्तेमाल हो पाता है बाकी का करीब 85-90% पानी नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है।
आपको शायद यह सब एक कल्पना लगे पर यह भी एक सच है जिसका सामना विश्व में कई शहर कर रहे हैं। अगर हम हमारे देश भारत की बात करें, तो आज देश में असलियत में पानी के स्रोत नदियां, तालाब, बड़े बांध या कैनाल नहीं हैं, अपितु भूमिगत जल है।
देश की सभी सिंचित भूमि का दो-तिहाई से ज़्यादा कृषि को भूमिगत जल से पानी मिलता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के पानी के रूप में लगभग 85 प्रतिशत भूमिगत जल का इस्तेमाल होता है। भारत के शहरी क्षेत्रों में, जो पीने का पानी इस्तेमाल होता है, उसमें भी भूजल की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत है। देशभर के औद्योगिक क्षेत्रों में, जो बड़े पैमाने पर पानी का इस्तेमाल होता है, उसका भी लगभग 50 से 60 प्रतिशत पानी भूजल से ही आता है।
बुंदेलखंड के टीकमगढ़ शहर के एक किसान सचिन से हमने बात की और वह बताते हैं कि ‘इस शहर में लगभग हर घर में पीने और अन्य ज़रूरतों के लिए बोरवेल का खनन हुआ है और जो जल स्तर पहले लगभग 30 से 40 फीट पर होता था, वो अब लगभग 300 से 400 फीट तक पहुंच चुका है और कई जगह इससे ज़्यादा खनन करने पर भी भूमिगत जल प्राप्त नहीं हो पाता है।
पानी की समस्या जितनी बड़ी है शायद उस स्तर पर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया या शायद हम इस समस्या को जानते हुए भी उस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं बल्कि अभी तक की प्राप्त जानकारियों के अनुसार, केवल पृथ्वी ही ऐसा ग्रह है जहां जीवन पनपने के लिए जल उपलब्ध है और अब हम इस ग्रह को कुछ इस तरह बर्बाद कर रहे हैं कि आने वाले समय में इस ग्रह पर भी पीने एवं उपयोग के लिए जल की उपलब्धता नहीं रहेगी।
अमेरिका की नासा के आंकड़े कहते हैं कि अगर अभी पानी नही बचा तो पूरी धरती बंजर हो जाएगी और वहीं विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि आने वाले वर्षों में भारत में पानी की त्राहि-त्राहि होने वाली है।
पृथ्वी पर जीवन जीने और उपयोग हेतु पानी की मात्रा बहुत ही सीमित है और यहां रहने वाली प्रजातियों को इस बात को समझना होगा कि अगर इसी गति से पानी का दोहन होता रहा, तो इस धरती से एक दिन पानी खत्म हो जाएगा।
पृथ्वी का लगभग 66% हिस्सा पानी से घिरा है लेकिन इसमें से ज़्यादातर हिस्सा इतना खारा है कि हम उसे उपयोग में नहीं ला सकते। पृथ्वी पर कुल उपलब्ध पानी का सिर्फ ढाई फीसदी पानी ही उपयोग करने लायक है मतलब खारा नहीं है लेकिन कि इस ढाई फीसदी मीठे पानी का भी दो-तिहाई हिस्सा बर्फ के रूप में पहाड़ों और झीलों में जमा हुआ है।
अब जो बाकी बचता है, उसका भी 20 फीसदी हिस्सा दूर-दराज़ के इलाकों में है, बाकी का मीठा पानी गलत वक्त और जगह पर आता है मसलन मानसून या बाढ़ से। इन तमाम बातों से निष्कर्ष निकलता है कि जो पानी इस धरती पर उपलब्ध है, उसका सिर्फ 0.08 फ़ीसदी इंसानों के लिए मुहैया है।
हालांकि, यह रिसर्च इस ओर इशारा करती है कि पानी की मांग अगले 20 वर्षों में लगभग 40 प्रतिशत बढ़ जाएगी। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने 1999 में एक रिपोर्ट पेश की थी। यह रिपोर्ट कहती है कि 50 देशों में 200 से भी ज़्यादा वैज्ञानिकों ने जल की कमी को इस शताब्दी की दो सबसे गंभीर समस्याओं में से एक बताया था।
दूसरी समस्या पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान थी। हम अपने पास उपलब्ध पानी का 70 फीसदी खेती-बाड़ी में इस्तेमाल करते हैं लेकिन विश्व जल परिषद का मानना था कि सन् 2020 तक पूरी दुनिया को खाना खिलाने के लिए हमें अभी मौजूद पानी से 17 फीसदी ज़्यादा पानी की ज़रूरत होगी।
यदि हम इसी ढर्रे पर चलते रहे, तो आने वाले दिनों में आज के मुकाबले ऐसे लाखों लोग ज़्यादा होंगे, जो हर रात सोते वक्ते भूखे-प्यासे होंगे। आज पूरी दुनिया में हर पांच में से एक आदमी को पीने के स्वच्छ पानी की सुविधा से वंचित है।
हर दो में से एक को स्वच्छ शौचालय की सुविधा नहीं है। हर रोज़ करीब तीस हज़ार बच्चे पांच साल की उम्र पूरी कर पाने से पहले ही मर जाते हैं। इनकी मौत या तो भूख से या फिर उन बीमारियों से होती हैं जिनकी आसानी से रोक-थाम की जा सकती थी। पीने का स्वच्छ पानी अच्छी सेहत और खुराक की चाबी है।
बुंदेलखंड के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता नर्मदा प्रसाद कहते हैं, “इस धरती को छलनी कर के हम बोरवेल से पानी निकाल तो रहे हैं पर लौटना कोई नहीं चाहता, उनका कहना है कि पिछले 20 वर्षों में उनके आस-पास के कई बोरवेल सूख गए पर किसी ने वाटर हार्वेस्टिंग नहीं करवाया।”
भूमिगत जल अब जैसे गायब ही होते जा रहा है और इसको लेकर पेशे से सामाजिक कार्यकर्त्ता और शिक्षाविद अंकित उदेनिया जो एक सिविल आंत्रप्रेन्योर भी हैं बताते हैं, “भूमिगत जल गायब होने की कई वजह हैं पर कुछ हद तक वाटर हार्वेस्टिंग कर के इसको बचाया जा सकता है और इस पहल को वो और उनके साथियों का समूह लगातार प्रचार-प्रसार कर रहा है और कोशिश कर रहा है कि वाटर हार्वेस्टिंग सिर्फ सरकारी नियमों और कागज़ों तक ही सीमित ना रह जाए बल्कि राज्य के हर घर में यह एक मुहिम बन कर लागू हो सके।”
भारत में दिन-ब-दिन भूमिगत जल की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है और लोगों में जागरूकता का अभाव और नियमों की अनदेखी भी भारी पड़ रही है। छत्तीसगढ़ के हाराडूला में रहने वाले और वहां की सामाजिक संस्था में काम कर रहे विजय साहू ने बताया कि ‘उनके आस-पास लगभग 70% घर भूमिगत जल का दोहन तो कर रहे हैं पर उनके पास भूमिगत जल को बचाने, उसे रिचार्ज करने की कोई योजना नहीं है और यहां गर्मियों में जल का स्तर 300 से 350 फीट तक चला जाता है।’
ब्रह्मांड में फिलहाल इस नीले गृह पर ही पानी है और जीवन उपलब्ध है और इस जीवान का आधार जल ही है, एक तरफ हमें इसे बचाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी होगी, तो दूसरी ओर हमें लोगों में सामाजिक चेतना भी विकसित करनी होगी, क्या हम समाज के तौर पर या इन्सान के तौर पर भी सही, इतने जागृत हैं कि जिस तरह से पानी का दोहन आज किया जा रहा है तो आने वाली नस्लों को हम क्या दे कर जाएंगे?
भूख और प्यास से तडपते लोग, प्रदूषित जल पी कर मरते हुए बच्चे, बिना पानी के बंजर हो चुकी ज़मीनें, बिना पानी के खंडहर बन चुके शहर या हरा भरा खुशहाल यह नीला गृह?
हम सब को आज यह तय करना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब लाखों सालों में बनी यह मानव सभ्यता कुछ सैकड़ों सालों में तबाह हो जाएगी और इसके ज़िम्मेदार सिर्फ हम होंगे।
नोट: लेखक सत्य प्रकाश नायक, पर्यावरण प्रेमी और शिक्षाविद हैं। सत्य प्रकाश की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।