शिक्षा ! क्या है शिक्षा? क्यों है यह इतनी ज़रूरी? किसी से भी बात करने पर कोई इस बारे में अपने अलग-अलग विचार सामने रख सकता है, हो सकता है कि कोई बोले कि कामयाब होने के लिए शिक्षा जीवन में बहुत ज़रूरी है या कोई कहे कि नौकरी पाने के लिए शिक्षा बहुत ज़रूरी है, कोई इसे तरक्की से जोड़ सकता है तो शायद इसे जीवन के दूसरे सुखों से जोड़ सकता है पर जानवर एवं इंसान के बीच क्या यही एक ऐसी चीज़ नहीं है, जो जानवर नहीं पा सके या उतनी नहीं पा सके जितनी इंसान ने पा ली?
क्या शिक्षा को नौकरी, तरक्की से जोड़कर ही देखना उचित होगा? क्या साक्षर होने एवं शिक्षित होने के बीच का फर्क समझना अभी भी ज़रूरी नहीं? क्या शिक्षा को उच्च विचारों के तराजू में तोलना अभी भी ज़रूरी नहीं? क्या गांधी जी के देश में सुभाषचंद्र बोस के विचारों को अभी भी छुपाकर रखना ठीक होगा? क्या भगत सिंह का मतलब इन्कलाब जिंदाबाद बोलना ही है? अगर यह सब नहीं है, तो फिर “शिक्षा ही ज़रूरी” की बात होनी चाहिए या “शिक्षा भी ज़रूरी” की?
“शिक्षा भी ज़रूरी” के चलते आए आपको बहुत से लोग रेल में गुटका थूकते, बसों की सीटों को फाड़कर फोम निकालते, सरकारी दफ्तरों में लूट मचाते या धर्म के नाम पर खून बहाते जैसी अनेकों योजनाओं में शामिल मिल सकते हैं, पर अब बात यह है कि क्या लोग जानते हुए भी ऐसा कुछ करते हैं या अनजाने में, तो इसके पीछे वास्तविक रूप से “शिक्षा भी ज़रूरी” कार्यक्रम का दोष है, क्योंकि उस कार्यक्रम ने लोगों को दिशा तो दिखा दी पर यह नहीं बताया या ऐसा कहें कि यह शिक्षा नहीं दी कि इस दिशा में आगे बढ़ते हुए हमें किन-किन सावधानियों का ध्यान रखना है।
यह कुछ वैसा ही है कि किसी एक फुटपाथ पर चलते व्यक्ति को यह समझाया गया हो कि अगर फुटपाथ टूटा हो, तो हमें सड़क के किनारे चलना चाहिए और यह बताना भूल गया हो/ विद्यार्थी सुनना भूल गया हो कि सड़क पर तभी तक चलना, जब तक फुटपाथ ठीक ना हो, परन्तु उपरोक्त स्थिति में इंसान सड़क पर आने के बाद महसूस करने लगा कि सड़क तो फुटपाथ से बेहतर है और अब से वह सड़क पर ही चलेगा।
पर यहां तो वो इस स्थिति में नहीं है कि सड़क उसके लिए नहीं है या वह इस बात में फर्क नहीं कर पा रहा है कि वाहन उससे ज़्यादा शक्तिशाली है एवं वह कुचला भी जा सकता है या उसकी वजह से दूसरों को भी हानि हो सकती है या वह “शिक्षा भी ज़रूरी” कार्यक्रम का सबसे कमज़ोर विद्यार्थी है, जो कुछ समझने एवं जानने की स्थिति में नहीं है।
अब सवाल यह है कि जिस पीढ़ी ने अपने पिता को ही फुटपाथ पर चलते ही नहीं देखा, तो वह खुद से कैसे जान सकती है कि उसका चलने का रास्ता सड़क है या फुटपाथ? हां, हालांकि अगर वो खुद “शिक्षा भी ज़रूरी” कार्यक्रम से ना आई हो वरना उनके लिए तो वही रास्ता सही होगा, जिस पर उन्होंने अपने बड़ों को चलते हुए देखा है।
अब यहां सवाल सिर्फ इतना है कि अगर एक-दो पीढ़ी ऐसे ही चलती गई, तो क्या यह उस पीढ़ी की रिवायत/रीत /संस्कार नहीं बन जाएगा, जिसे आने वाली पीढ़ी चाहते हुए या गलत होते हुए भी छोड़ पाएगी?
अगर नहीं छोड़ पाएगी, तो कुछ धर्मों में जुडा हुआ कर्मकांड भी यही से आया है, जो अलग-अलग धर्म में अलग-अलग पाखण्ड रचाने की सलाह देता है, क्योंकि ये किसी एक व्यक्ति की नासमझी की वजह से पीढ़ियों-पीढ़ियों की रीत बन गई है।
एक देश में कुछ लोग रहते थे, तो सब आपसी सहयोग से अलग-अलग काम करते थे, अब कोई शिक्षा-दीक्षा में तेज़ बना या ऐसा हो सकता है कि वो काम उसके हिस्से आया हो, तो दूसरा युद्ध लड़ने में, कोई घर के काम में महारथी था, तो कोई चतुरता से लेन-देन करने में।
अब जो घर का काम करता था, उसे घर में काम करते हुए मसालों से कुछ तकलीफ हुई तो वैद्य जी ने उन्हें घर से बाहर रहने की सलाह दी, क्योंकि डर इस बात का था यह बीमारी उस समय औरों को भी फैल सकती थी। इस व्यक्ति ने समझदारी एवं ज़िम्मेदारी का परिचय देते हुए अपने घर से थोड़ा दूर रहने का फैसला लिया लेकिन जब इन सभी व्यक्तियों की अगली पीढ़ी आई तो उन्होंने 4 लोगों में से 3 को साथ पाया एवं एक को अलग पाया।
इस बारे में जब नई पीढ़ी के बच्चों ने पूछा तो “शिक्षा भी ज़रूरी” स्कीम के एक विद्यार्थी ने बताया कि उनके काम की वजह से, उनके छूने की वजह से औरों को घातक बीमारी फैल जाती थी इसलिए उनको अलग रखा है लेकिन “शिक्षा भी ज़रूरी” के इस लाभार्थी ने अपनी अगली पीढ़ी को बताया कि उनके छूने से बीमारी फैल जाती थी, क्योंकि उनके काम ही ऐसे थे।
उसकी अगली पीढ़ी में फिर “शिक्षा भी ज़रूरी” स्कीम वाले ने बताया कि उनके कामों की वजह से बीमारी फैल जाती है और यह होते-होते कुछ पीढ़ियों के बाद एक वर्ग को “शिक्षा भी ज़रूरी” स्कीम वालों ने अछूत का “दर्ज़ा” दे ही दिया लेकिन यह स्कीम यहां कहां रुकने वाली थी।
“शिक्षा भी ज़रूरी” के तर्कसंगत ज्ञान ने उन्हें असहिष्णु बना रखा था, जिसके जलते पहले उनके अन्य लोगों के घरों की तरफ आने पर भी प्रतिबंध लग गया और बाद में उनके देखे जाने पर भी यहां बात समझने की यही है कि जिसने कभी अपनी समझदारी एवं ज़िम्मेदारी निभाई थी, वही उसकी आने वाली पीढ़ियों के लिए श्राप बन गई एवं इस पूरी प्रक्रिया के प्रायोजक “शिक्षा भी ज़रूरी” स्कीम एवं उनके प्रमोटर रहे।
इनके सहप्रायोजक वो लोग रहे, जिनको धीरे-धीरे तोडा जाता रहा और वो टूटते रहे एवं कमज़ोर होते रहे। इन सबमें हुआ बस यही कि एक पीढ़ी की गलती पर दूसरी पीढ़ी ने कभी सवाल ही नहीं किया, तो किसी ने इस गलती का विरोध नहीं किया, पर इन सबके कारण तीसरी पीढ़ी को जो गलती विरासत में मिली थी, उसने उसी को “सही” समझा एवं एक DNA की गलत कोडिंग से धीरे-धीरे पूरा ढांचा ही खराब हो गया एवं जब किसी भी चीज़ का ढांचा बिगड़ जाता है, तो उससे सही मूर्ति/ईमारत/ चीज़ें नहीं बनकर निकल सकती।
कहीं-ना-कहीं जो भ्रष्टाचार संभवत अंग्रेज़ों को डुबाने के लिए शुरू किया गया था, वो शायद आज़ाद पीढ़ी की गलती से रुक नहीं पाया और तीसरी नौकरशाह पीढ़ी ने उसे ही “सही” समझ कर काम किया एवं एक DNA कोडिंग से फिर पूरा ढांचा हिल गया है।
अब इसमें यह समझ पाना कि लोगों को अपनी गलतियों का पता होने के बाद भी उनके द्वारा लगातार वही गलतियां की जा रही हैं या किसी ने नेहरु जी को ध्यान से पढ़े बिना ही गलत विचारधारा को “सही” मान लिया है।
यह कहना आसान नहीं होगा, पर यह साफ है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सही सन्देश ना जाने के कारण हमारा शरीर (देश) आजकल इतने रोगों (समस्याओं) से ग्रसित है, जिसे वर्तमान पीढ़ी देश की वर्तमान स्थिति को ही “सही” मान रही है, पर यह एक सत्य है जिसको प्रभावी रूप से सही सन्देश एक पीढ़ी को दूसरी तक पहुंचाने की ज़रूरत है, जिसके बाद उम्मीद की जाएगी कि अगली पीढ़ी में गलतियों की संभावनाएं कम होंगी एवं उचित विचारों से उचित समाज का निर्माण होगा।