‘जय भीम’ फिल्म आजकल चर्चाओं में है, जो भी इस फिल्म को देख रहे हैं। वे सब अपने-अपने अंदाज़ में इस फिल्म की समीक्षा लिख रहे हैं।
संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां जिनको किसी फिल्म में बस लाल झंडा दिख जाए या किसी दीवार पर पोस्टर या दराती-हथौड़ा का निशान दिख जाए, बस इसी बात से वो फिल्म को कम्युनिस्ट विचारधारा की फिल्म घोषित कर देते हैं।
इस फिल्म को देखकर भी कम्युनिस्ट लोट-पोट हो रहे हैं। इस फिल्म को संशोधनवादी कम्युनिस्टों ने बेहतरीन फिल्म बताया है और वहीं कुछ कम्युनिस्टों ने अपने शब्दों में इसकी सार्थक आलोचना भी की है।
इसके विपरीत लाल झंडा देखकर ही बिदकने वाले या डॉ.अम्बेडकर के नाम को सिर्फ जपने वाले इस फिल्म के खिलाफ ही बात कर रहे हैं। उनको इस फिल्म की कहानी पर चर्चा करने की बजाय आपत्ति इस बात से है कि पूरी फिल्म में डॉ.अम्बेडकर की ना कहीं फोटो है और ना ही अम्बेडकर पर चर्चा है।
इसके विपरीत कम्युनिस्टों के झंडे हैं, लेनिन हैं, मार्क्स हैं लेकिन कहीं भी अम्बेडकर दिखाई नहीं दे रहे हैं। इसलिए ये सब फिल्म के खिलाफ खड़े हुए हैं। इनका फिल्म निर्माता पर यह आरोप है कि इस फिल्म का नाम “जय भीम” सिर्फ लोकप्रिय नारे “जय भीम” को भुनाने के लिए रखा गया है। यह ऐसे लोगों की मूर्खता की चरम सीमा है।
क्या है इस फिल्म की कहानी?
इस फिल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह फिल्म 1993 में हुई एक सच्ची घटना से प्रेरित है। इरुलर जनजाति के राजाकन्नू नाम के एक व्यक्ति को चोरी के झूठे मामले में फंसाया जाता है। यह फिल्म दक्षिण भारत की ‘इरुलर’ जाति के उन आदिवासी लोगों की कहानी कहती है, जो चूहों को पकड़कर खाते हैं।
मलयालम में इरुलर का शाब्दिक अर्थ “अंधेरे या काले लोग” हैं। वास्तव में यह मामला कोरवा जनजाति के लोगों के पुलिस द्वारा किए गए उत्पीड़न का था।
पीड़ित की पत्नी सेनगेनी वकील चंद्रु के पास मदद के लिए जाती है और राजाकन्नू को पुलिस हिरासत में दी गई अमानवीय यातनाएं चंद्रू के लिए एक चुनौतीपूर्ण और ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई बन जाती है। वकील चंद्रु बाद में मद्रास हाई कोर्ट के जज भी रहे। मद्रास हाईकोर्ट ने इस केस का फैसला 2006 में सुनाया था।
“जय भीम” का फिल्माकंन व कलाकारों का अभिनय एकदम काबिले तारीफ है। इस फिल्म को 4.5 स्टार रेटिंग मिली है। इस फिल्म में उच्च जातियों के द्वारा निम्न जातियों पर दिखाया गया अमानवीय अत्याचार, जो आम आदमी के रोंगटे खड़े कर देता है लेकिन असल ज़िन्दगी में सत्ता, पुलिस व तथाकथित उच्च जातियों ने सदियों से गरीब, दलित, आदिवासियों पर अत्याचार किए हैं और वर्तमान में भी ऐसे अमानवीय अत्याचार ज़ारी हैं।
इस फिल्म देखकर जिस दर्शक के रोंगटे खड़े हो रहे हैं, जब उस दर्शक के इर्द-गिर्द अत्याचार हो रहे होते हैं, उस समय उसको ये अमानवीय अत्याचार कभी नहीं दिखाई देते हैं बस फिल्म में ही देखने पर उसे ये अत्याचार दिखाई देते हैं।
अगर आम दर्शक को असली सिस्टम के ये अमानवीय अत्याचार दिखते, तो सोनी सोरी दिखती, तेजाब से जलाया हुआ उसका चेहरा दिखता, अनगिनत आदिवासी महिलाएं दिखतीं जिनकी फोर्स के जवानों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी या उन्हें अनिश्चितकाल के लिए जेलों में डाल दिया।
हज़ारों आदिवासियों के सलवा जुडूम के गुंडों द्वारा जलाए गए मकान दिखते, फोर्स द्वारा आदिवासियों का हर रोज़ होता जनसंहार दिखता, पुलिस लॉकअप में होते बलात्कार दिखते, हर रोज़ देश के किसी-ना-किसी थाने के लॉकअप में पुलिस द्वारा की गई हत्या दिखती, हरियाणा के मिर्चपुर व गोहाना की वो दलित बस्ती दिखती, जिसको जातिवादी गुंडों ने जला दिया था, लेकिन आपको यह सब नहीं दिखेगा, क्योंकि आपको अत्याचार बस तब दिखता है, जब कोई फिल्मकार उसको आपके सामने पर्दे पर पेश करे और आप उन अत्याचारों को पर्दे पर देखकर थोड़े समय के लिए भावुक हो जाते हो, यही आपकी असलियत है।
फिल्म इस दौर में कहना क्या चाहती है?
इस फिल्म निर्माता ने फिल्म का नाम “जय भीम” बड़े ही शातिराना तरीके से रखा है। किसी भी मुल्क में न्याय प्रणाली का चरित्र मुल्क में स्थापित सत्ता के चरित्र जैसा होता है, जैसी सत्ता वैसी ही वहां की न्याय प्रणाली होती है।
हमारे देश भारत की न्याय प्रणाली का चरित्र भी भारतीय सत्ता के चरित्र जैसा ही अर्ध सामंती-अर्ध पूंजीवादी है। सत्ता अगर थोड़ी सी प्रगतिशील होती है, तो न्याय प्रणाली भी प्रगतिशील दिखती है। वर्तमान में सत्ता धार्मिक फासीवादी है, तो न्याय प्रणाली का भी चरित्र धार्मिक फासीवाद है।
भारत में न्याय प्रणाली किसी भी दौर में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब व महिला हितैषी नहीं रही है। यहां सामंती जातीय सेनाओं ने अनेको बार दलितों की बस्तियां जलाईं, भीषण नरसंहार किए।
आदिवासियों, कश्मीरियों, असमियों के साथ जो अमानवीयता भारतीय सत्ता व उसकी फोर्स द्वारा की जा रही है लेकिन कभी सुना है आपने कि ऐसे मामलों में जालिमों को सजा हुई हो?
आपने कभी सुना है कि भारतीय न्याय प्रणाली ने न्याय से वंचित किसी व्यक्ति को इंसाफ दिया हो। भंवरी देवी बलात्कार केस, उत्तर प्रदेश, बिहार में जातीय सेनाओं द्वारा किए गए भीषण एवं अमानवीय जनसंहार, बुटाना, सोनीपत की दलित लड़की जिसको पुलिस के दर्जनों जवानों ने अवैध हिरासत में रख कर बलात्कर किया।
इस सब के बाद पीड़ित इंसाफ की एक झलक देखने की लालसा में जवान से बूढ़े होकर मर गए लेकिन उन्हें इंसाफ की झलक नहीं दिखी।
मुल्क की वास्तविक स्थिति बहुत ही डरावनी है
वर्तमान में हमारे देश की जेलों में कुल 4.66 लाख कैदी हैं, जिनमें से 1.56 लाख OBC, 96,420 दलित, 53,916 आदिवासी कैदी हैं। मुल्क की जेलों में 2 तिहाई कैदी OBC, दलित व आदिवासी हैं ठीक वहीं 19 प्रतिशत मुस्लिम कैदी हैं।
पुलिस लॉकअप में हुई हत्याएं इससे भी डरावनी हैं
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCBR) की वार्षिक अपराध (CII) की 2001 से 2020 तक की एक रिपोर्ट के अनुसार, बीते 20 सालों में पुलिस हिरासत में 1888 मौतें हुई हैं। इन मौतों के खिलाफ पुलिस कर्मियों के खिलाफ 893 मामले दर्ज़ हुए हैं और सिर्फ 358 पुलिसकर्मियों के खिलाफ ऐसे मामलों में चार्जशीट दायर की गई है, जिनमें से सिर्फ 26 पुलिसकर्मियों को ही दोषी माना गया है।
क्या ये सब हमारे माननीय न्यायाधीशों को नहीं दिखता है! क्या वो ये क्राइम रिपोर्ट नहीं पढ़ते हैं। क्या उनको नहीं दिखता है कि भारत की जेलों में बहुमत दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक मुस्लिम ही कैदी के रूप में क्यों हैं?
वर्तमान दौर में जब भारत की न्याय प्रणाली से आम जनमानस का विश्वास उठता जा रहा है। आम आदमी, जो मुल्क की स्वायत्त संस्थाओं CBI, ईडी से लेकर चुनाव आयोग पर अपना अटूट विश्वास करता था, लेकिन मुल्क की सत्ता ने पिछले 10-15 सालों में जिस तरह से इनकी स्वायत्तता खत्म कर इनको अपना निजी तोता बनाया है। उससे आम जनता में इन स्वायत्त संस्थाओं ने अपना विश्वास खो दिया है।
2014 के बाद केंद्र की सत्ता में विराजमान भाजपा जिसकी विचारधारा हिंदुत्ववादी और फासीवादी है, वो जिस तेज़ी से मुल्क के लोकतंत्र को खत्म कर हिंदुत्ववादी सत्ता की तरफ बढ़ रही है। वह सच में भयावह है।
मुल्क की न्याय प्रणाली भी सत्ता के इस कार्य का विरोध करने की बजाय उसके इस घिनौने कार्य में मर्जी या डर के कारण साझेदार बनी हुई है। न्याय प्रणाली के ऐसे आचरण के कारण ही जो अटूट विश्वास जनता का अभी तक उस पर बना हुआ था, पिछले सात साल के मोदी राज में न्याय प्रणाली द्वारा लिए गए प्रत्येक विवादित फैसलों से खत्म हो गया है।
पिछले 2 साल में CAA, NRC व तीन खेती कानूनों के खिलाफ हुए ऐतिहासिक जन आन्दोलनों को सत्ता ने जिस तानाशाही तरीके से कुचलने के प्रयास किए उस समय न्यायपालिका का चुप रहना, आम जनता के सामने नंगा होना ही था।
पुलिस तंत्र के अनदेखे एवं अनसुने चेहरे को दिखाती है
न्याय प्रणाली का असली चरित्र अब लोगों के सामने आ चुका है ठीक उसी समय “जय भीम” फिल्म दर्शकों को पुलिस के अमानवीय कृत्यों को दिखाते हुए, दर्शकों की सहानुभूति लेती है। यह फिल्म दर्शक को भावनात्मक तौर पर पीड़ित के साथ जोड़ती है लेकिन उस सहानुभूति व भावनात्मकता का फायदा उठा कर फिल्मकार बड़े ही शातिराना तरीके से दर्शक को यह समझाने में सफल हो जाता है कि हमारी न्याय प्रणाली निष्पक्ष है और उसका चरित्र भारतीय संविधान के अनुरूप लोकतांत्रिक है।
इसके बाद आपको अगर इंसाफ चाहिए, तो आपको एक मज़बूत वकील चाहिए। आपके वकील में मज़बूत प्रमाणों के साथ तार्किक बहस करने की क्षमता होनी चाहिए।
इस फिल्म का मज़बूत वकील पहली ही तारीख में जेलों में बंद 7 हज़ार निर्दोष आदिवासियों को छुड़ा लेता है। पुलिस लॉकअप में हुई एक अमानवीय हत्या में जिसका फैसला 13 साल बाद आया था, इस फिल्म का मज़बूत वकील सिर्फ कुछ ही महीनों में ही दोषियों को जेल में डलवा देता है व पीड़ितों को इंसाफ दिला देता है।
लेकिन जब यह फिल्म बन रही थी, उसी समय भारत के न्यायालयों में स्टेन स्वामी का वकील न्यायाधीश महोदय से उनकी जमानत की गुहार लगा रहा था, लेकिन सिर्फ स्टेन स्वामी की बीमारियों को देखते हुए न्यायाधीश महोदय फादर स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए पाइप रखने का ऐसा विचित्र और अमानवीय आदेश देता है और स्टेन स्वामी जिनकी उम्र 83 साल थी, न्यायालय से न्याय मिलने का इंतज़ार करते-करते इस दुनिया से अलविदा कह गए लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला।
वरवरा राव, आनन्द तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, वकील सुधा भारद्वाज, वकील सुरेंद्र गाडलिंग, शरजील इमाम, प्रशांत राही, उमर खालिद, प्रोफेसर GN सांई व तमाम हज़ारों राजनीतिक बंधी भी स्टेन स्वामी की तरह न्याय के इंतज़ार में मुंह बाएं खड़े हैं लेकिन न्याय तो मिलता नहीं बस हर बार न्यायाधीश महोदय की तरफ से अगली तारीख ज़रूर मिल जाती है।
हरियाणा से वकील राजेश कापड़ो, जो एक दलित अधिकार कार्यकर्ता हैं। उनको दलितों के आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर लड़ने के कारण ही सत्ता ने 10 साल पुराने कत्ल के केस में आरोपी बना दिया। क्या इन सबके पास मज़बूत सबूत पेश व तार्किक बहस करने वाला वकील नहीं होगा?
अगर कोई न्यायाधीश महोदय ईमानदार बनने की कोशिश करता भी है, तो वो या तो जज लोया बन जाता है या दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय जिन्होंने “CAA व NRC आंदोलन को खत्म करने के लिए दिल्ली में सत्ता द्वारा प्रायोजित दंगे करवाने वाले भाजपा के नेताओ अनुराग ठाकुर व कपिल मिश्रा के खिलाफ FIR के आदेश दिए थे, लेकिन अगली सुबह ही सत्ता के दंगाइयों पर FIR तो नहीं हुई, न्यायाधीश महोदय का ट्रांसफर ज़रूर हो गया था।”
ये हमारे मुल्क की कोरी सच्चाई है लेकिन ये सच्चाई आप सबको नहीं दिखती है। आपको ये सच्चाई तब दिखती है, जब कोई फिल्म निर्माता फिल्म में ये सब दिखाता है।
आप एक बार अपने इर्द-गिर्द हो रही घटनाओं पर अपनी नज़र घुमाइए, उन घटनाओं को जानने की कोशिश कीजिए। उन घटनाओं में पीड़ितों के पक्ष में लामबद्ध हो कर इंसाफ के लिए सत्ता के खिलाफ संघर्ष कीजिए। जन आंदोलनों से ही अन्याय के खिलाफ जीत हासिल की जा सकती है।