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सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर उपभोक्तावाद को बढ़ाती बाज़ारवादी शक्तियां

सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर उपभोक्तावाद को बढ़ाती बाज़ारवादी शक्तियां

चंद घंटे पहले मिस यूनिवर्स ब्यूटी कॉन्टेस्ट में भारत की 21 वर्षीय पंजाब की हरनाज संधू ने खिताब जीता। इसके पहले 2000 में लारा दत्ता और 1994 में सुष्मिता सेन ने यह खिताब जीता था।

इसके बाद कई तरह की चर्चाएं चल रही हैं। अब सवाल यह उठता है कि यह ब्यूटी कॉन्टेस्ट क्या है और इसे कौन सी ताकतें संचालित करती है और इसका उद्देश्य क्या है?

90 के दशक के पहले भी हिंदुस्तान में महिलाओं को अपनी खूबसूरती दिखाने का जुनून था या यूं कहें यह तो सदियों से चला आ रहा है लेकिन उदारीकरण के बाद बाज़ारवादी शक्तियों ने उनके लिए एक परिभाषा गढ़ी कि ‘अगर आप खूबसूरत नहीं है, तो आपका जीना बेकार है।’

इस परिभाषा को सफल बनाने के लिए बाज़ारवादी शक्तियों के द्वारा 1994 में भारतीय महिला सुष्मिता सेन नाम की महिला, जो बाद में बॉलीवुड की एक्ट्रेस बनी उन्हें मिस यूनिवर्स बनाया गया। उसके एक साल बाद ऐश्वर्या राय को मिस वर्ल्ड बनाया गया। इस “दुर्घटना” के पहले रीता फारिया नाम की महिला साठ के दशक में मिस वर्ल्ड बनी थी।

अब सवाल यह उठता है कि क्या रीता फारिया के बाद भारत में कोई लड़की मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स बनने लायक नहीं थी? दरअसल, भारत जैसे परंपरावादी देश में अपने कॉस्मेटिक उत्पाद को बेचने के लिए यह प्रपंच रचा गया।

भारत के बाज़ार का शोषण करने के लिए बाज़ारवादी शक्तियों का यह एक सफल प्रयोग था। भारत में अब उस जगह ब्यूटी पार्लर देखने को मिलने लगे, जहां पर बीसवीं शताब्दी के अंत में फेयर एंड लवली क्रीम भी नहीं बिकती थी।

विश्व की शोषक शक्तियों ने जब देख लिया कि बिना भारत की लड़की को मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स का ताज पहनाए बिना भी अब उनके उत्पाद बिक सकते हैं, तो उसके बाद 21वीं शताब्दी में उनका फोकस अफ्रीकन और पश्चिम एशिया की लड़कियों पर गया और हाल फिलहाल उन लड़कियों को मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स बनाया गया।

उपभोक्तावादी संस्कृति को फैलाने वाले, जिन्हें मालूम है कि यह काम हिंसा और सेक्स के मार्फत अच्छे ढंग से फैलाया जा सकता है, उन्होंने धड़ल्ले से इन चीज़ों का सहारा लिया। भारतीय संस्कृति के अंतर्मन को पूरी तरह बदल दिया गया। खूबसूरत दिखने की चाहत तो सदियों से रही है लेकिन इस चाहत को लोभ, लालच और वासनामय बनाकर अंजाम दिया जा रहा है और यह पूरी तरह अप्रत्याशित, अस्वीकार और अकल्पनीय है।

व्यक्तिगत रूप से इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली और जीतने वाली दुनिया की लड़कियों के प्रति मेरे कोई पूर्वाग्रह नहीं हैं लेकिन जागरूकता के अभाव के कारण बाज़ारवाद से प्रेरित समाज आपको यह सोचने का मौका ही नहीं देता है कि आपके इस “कारनामे” के बाद सुंदर दिखने की प्रतियोगिता किस तरह भारत सहित दुनिया के देशों में सामाजिक और आर्थिक विखंडन तथा विषमता पैदा कर रहा है।

कॉरपोरेट शक्तियों का छलावा देखिए, जिन-जिन चीज़ों का शोषण कर ये शक्तियां दुनिया में अपना आर्थिक व्यापार करती हैं, उसे इन प्रतियोगिताओं के द्वारा किसी ‘अन्य’ पर मढ़ने का भी काम करती हैं जैसे वर्तमान मिस यूनिवर्स हरनाम संधू से जलवायु परिवर्तन के बारे में पूछा गया, तो इन्होंने इसका दोष इंसान पर मढ़ दिया।

ऐसा कहते हैं जूरी द्वारा उन्हें इस खिताब दिलवाने में यह उत्तर काफी लाभदायक सिद्ध हुआ। सच्चाई क्या है? क्या यह बात सही नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा जल-जंगल-ज़मीन का जिस तरह व्यवसायीकरण हो रहा है, प्राकृतिक संसाधन निजी कंपनियों के हवाले किए जा रहे हैं, विकसित देश सबसे ज़्यादा कार्बन-डाई-ऑक्साइड छोड़ रहे हैं, इन सब पर प्रहार किए बिना हम जलवायु परिवर्तन को रोक सकते हैं?

यह प्रतियोगिता कराने वाली शक्तियां इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? ऐसी स्थिति में हरनाम संधू का जवाब सही था? 1992 में, जब रियो डी जेनेरियो में जलवायु परिवर्तन से संबंधित महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी, तभी एक प्रतिभागी ने अमेरिका के द्वारा इस क्षेत्र में ज़्यादा लापरवाही बरतने का आरोप लगाया तभी तपाक से तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर ने कहा Our Lifestyle Is Not For Negotiable (हमारी जीवन शैली पर कोई चर्चा नहीं की जा सकती)!ऐसे ही लोग यह प्रतियोगिता करवाते हैं और इसके नाम पर बाज़ारवादी शक्तियां अपना हित साधती हैं, तो दूसरी ओर इस प्रतियोगिता को जीतने वाले प्रतिभागी देशों के द्वारा राष्ट्रवाद फैलाया जाता है।

क्राउन के नाम पर अपने आप को खूबसूरत दिखाने के लिए आपके अंतर्मन का ही बाज़ारीकरण कर दिया गया। अन्य चीज़ों का भी बाज़ारीकरण किया गया, जिसमें एक चीज़ है पानी। दरअसल, चोट पानी पर नहीं बल्कि भारतीय जीवन दृष्टि पर है।

हज़ारों वर्षों की साधना के बाद भारत में यह दृष्टि बनी थी कि पानी बिकाऊ चीज़ नहीं है। पानी पिलाना पुण्य का काम है। यह भारतीय मान्यता रही है। इस दृष्टि को तोड़ने के लिए जो हमारी कमज़ोरियां हैं, प्रदूषण आदि को हाईलाइट करके लोगों के मन में यह भय बैठाया जा रहा है कि अगर बोतल का शुद्ध पानी नहीं पिएंगे, तो आपके जीवन को खतरा हो जाएगा।

इसी तरह स्त्री के प्रति जो भारतीय दृष्टि है उसे शक्ति के रूप में देखने कि उसे ब्यूटी कॉन्टेस्टों द्वारा तोड़ा जा रहा है। इस देश के लोगों को संयम और सादगी का जीवन छोड़कर उपभोक्तावादी बनाने का कुचक्र चल रहा है। पश्चिम के देशों में बिजली जैसी ज़रूरी चीज़ों के साथ-साथ पानी का भी निजीकरण कर दिया गया है।

भारत में अभी यह औपचारिक रूप से नहीं हुआ हो लेकिन आज से 20 साल पहले भारत के उन क्षेत्रों में जहां नल (या चापाकल) से हम आसानी से पानी पी सकते थे, वहां भी आरो का प्लांट लगाकर धड़ल्ले से बोतल बंद पानी मुहैया कराया जा रहा है। धरती से निकाले गए पानी में फ्लोराइड की मात्रा कैसे कम हो, इसके तरफ ध्यान ना देकर बाज़ारवादी शक्तियों के द्वारा मुहैया कराए आरो प्लांट की बेहतरी के लिए साधन मुहैया कराए जाते हैं।

इन सब कामों के लिए बाज़ारवादी शक्तियों को लोकतंत्र के नाम पर एक ऐसा एजेंट चाहिए, जो उनके लिए “यस मैन” का काम करें! इसके लिए हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री सबसे मुफीद हैं।

निजीकरण को अमलीजामा पहनाने वाली ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मरहूम मार्गेट थैचर की आत्मा भारत के लोगों में बाज़ारवादी सोच को देखकर वैसे तो काफी खुश हो रही होगी लेकिन इन शक्तियों के खिलाफ लड़ने वालों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है जीवन दृष्टि पर हो रहे हमलों से टक्कर लेने की।

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