आधुनिकीकरण की बढ़ती हुई होड़ में प्राकृतिक सौंदर्य की भी परवाह ना करते हुए मनुष्य औद्योगिकीकरण, रोड चौड़ीकरण व अन्य विकास कार्यों के नाम पर दिन-रात जंगलों की अंधाधुंध कटाई करता जा रहा है।
जंगल माफिया भी अपने फायदे के लिए कृषि योग्य भूमि व जंगल को काटने और आग लगाने में किसी से पीछे नहीं हैं। हर वर्ष 72 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा वन क्षेत्र दूसरे आबादी क्षेत्र में बदलते जा रहे हैं।
यदि इसी तरह तेज़ी से जंगल घटेंगे, तो वैश्विक महामारी और प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ेंगी, वन क्षेत्रों के कम होने से पशुओं के माध्यम से इंसानों में फैलने वाली जेनेटिक बीमारियों में तेज़ी आएगी। यह भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक बेहद गंभीर मसला है।
बदलती आबोहवा बन रही गहन चिंता का कारण
हम इंसानों की लापरवाही के ही कारण कभी हरी भरी एवं फल-फूलों व जंगलों से लदी रहने वाली पृथ्वी की बदलती आबोहवा आज सम्पूर्ण विश्व के लिए एक गहन चिंता का विषय बन चुकी है, क्योंकि जीवनदायिनी ऑक्सीजन निःशुल्क देने और सूर्य से निकलने वाली घातक अल्ट्रावायलेट किरणों को अवशोषित करने की क्षमता सिर्फ वृक्षों में ही होती है।
लगातार कम होती वृक्षों की संख्या और पृथ्वी के वायुमंडल में बढ़ती जा रही विषैली गैसों व कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा और सूर्य से निकलने वाली घातक अल्ट्रा वायलेट किरणों के कारण भविष्य में त्वचा कैंसर व एलर्जी जैसे चर्मरोग, आंखों में जलन, फेंफड़ों का कैंसर, श्वास, टीबीरोग, हृदय सम्बंधित रोग आदि बीमारियों के साथ-साथ महामारियों का भी खतरा बढ़ता जा रहा है।
निःशुल्क ऑक्सीजन की कीमत का हुआ अहसास
तेज़ी से घटते जा रहे इस प्राकृतिक सौंदर्य की उपयोगिता का अहसास दुनिया के लोगों को वैश्विक महामारी कोविड-19 के दौरान वर्ष 2019 से 2021 के मध्य कोरोना की दूसरी लहर में उस समय हुआ, जब सम्पूर्ण विश्व में एक साथ ऑक्सीजन की आवश्यकता होने लगी और डिमांड से अधिक ऑक्सीजन का अभाव दिखाई देने लगा, तब सिर्फ धनाढ्य लोगों ने ही महंगे दामों में जीवनदायिनी ऑक्सीजन खरीद कर अपने प्रियजनों के प्राणों की रक्षा की।
वहीं दूसरी तरफ मध्यम व कमज़ोर आय वर्ग के बहुत से ऐसे भी अभागे देखे गए, जिन्होंने पर्याप्त धनराशि ना होने के कारण ऑक्सीजन सिलेंडर के अभाव में अपनों को खो दिया लेकिन जैसे-जैसे स्थिति सामान्य की ओर होती चली गई, वैसे-वैसे मनुष्य सब कुछ भूलता और फिर से अपनी लापरवाहियों को दोहराता हुआ, भोग विलासिता की दुनिया में खो गया है।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
पर्यावरणविद व रेडटेप मूवमेंट के संस्थापक प्रभात मिश्र के अनुसार, फल एवं फूलों से लदे हरे-भरे वृक्ष सिर्फ इंसानों को ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों को भी भोजन प्रदान करते हैं।
जीव जंतुओं व मनुष्यों को ऑक्सीजन प्रदान करने एवं वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में पेड़-पौधे और जंगल अपनी अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखना सिर्फ सरकार या वन विभाग की ही नहीं बल्कि हम सब की भी नैतिक ज़िम्मेदारी है।
पर्यावरण की स्वच्छता के लिए सभी देशवासियों को आगे आना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों व मित्रों की देखरेख में विभिन्न अवसरों पर अपनी क्षमतानुसार अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने चाहिए, जिससे प्रकृति का संतुलन व वायुमंडल हमेशा संतुलित बना रहे।
प्रभागीय निदेशक सामाजिक वानिकी प्रभाग फिरोजाबाद वीरेन्द्र कुमार सिंह के अनुसार, पेड़ जीवन का आधार होते हैं। इनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने संरक्षण में क्षमतानुसार अधिक-से-अधिक पीपल, बरगद, नीम, अशोक, अर्जुन, जामुन, महुआ, आम, पाकड़ जैसे मोटे और बड़े पत्ते वाले वृक्ष लगाने चाहिए।
क्योंकि, बड़े और मोटे पत्ते वाले पेड़ों से हमें प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन मिलता है। इन वृक्षों की पत्तियां रफ होती हैं, जिसके कारण वातावरण में मौजूद पर्टिकुलेट मैटर के प्रदूषक तत्व इन पत्तियों पर चिपक जाते हैं, जो बारिश के साथ ज़मीन में चले जाते हैं।
वृक्ष अपने पत्ते और छाल पर हवा में मौजूद नाइट्रोजन आक्साइड, अमोनिया, सल्फर डाइऑक्साइड आदि प्रदूषक गैसों और ओजोन लेयर को पार कर आने वाली पराबैंगिनी किरणों को अवशोषित कर लेते हैं।
ज़्यादातर खेतों में लगाए गए नए वृक्षों को शुरू के लभगभ डेढ़ से दो वर्ष तक विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है और उसके बाद वह वर्षा व भूगर्भ के जल से स्वयं पूर्ति करते हैं। इसके साथ ही वे नेचुरल वॉटर प्यूरीफायर का भी काम करते हैं। इसलिए यह कहना गलत ना होगा कि वायुमंडल के प्रदूषण को रोकने में वृक्ष अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
नोट: लेखक प्रवीण कुमार शर्मा, पर्यावरण प्रेमी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। प्रवीण की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।