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“तेज़ी से प्रदूषित होती नदियां भीषण जल संकट का इशारा कर रही हैं”

"तेज़ी से प्रदूषित होती नदियां भीषण जल संकट का इशारा कर रही हैं"

जितना सच यह है कि सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ, उतना ही सच यह है कि सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ नदियों का प्रदूषण बढ़ता गया।

प्रारम्भ में हम सुनते रहते थे कि नदियों का पानी पीने योग्य होता था, लेकिन आज स्थिति इसके एकदम विपरीत है। आज नदियों के पानी को पीने की तो बात छोड़िए, अब वह पानी हाथ धोने लायक भी नहीं बचा है।

हमारे देश की गंगा जैसी नदी, जो कभी मोक्षदायिनी कहलाती थी। आज इतनी प्रदूषित हो गई है कि इसको साफ करने के लिए विभिन्न सरकारों द्वारा अभियान चलाना पड़ रहा है फिर भी नदी अपने पूर्ववत स्वच्छता के स्तर को प्राप्त नहीं कर पा रही है। यही हाल अन्य नदियों का भी है।

नदियों के प्रदूषण के लिए हम काफी हद तक खुद ज़िम्मेदार हैं। नदियों के किनारे बसे शहरों से निकलने वाली गन्दगी नालियों के माध्यम से नदियों में गिराई जाती है, जो नदियों के प्रदूषण का एक बड़ा मुख्य कारण बनती है। इसके साथ ही अधिकांश शवदाह स्थल नदियों के किनारे होते हैं, जहां शवों के दाह-संस्कार के उपरांत बचे अवशिष्ट को नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है।

हर दिन पूरे देश मे होने वाले लाखों दाह-संस्कार के बाद उनके अवशिष्टों को नदियों में प्रवाहित करने की परंपरा ने नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है।

आज हमारी कृषि पूर्णतया उर्वरकों पर निर्भर है। हमारी बढ़ती जनसंख्या लगातार अधिक अन्न की ज़रूरत को इंगित करती है। अधिक उपज के लिए किसान हर साल बहुत मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करते हैं। ये उर्वरक वर्षाजल के साथ खेतों से बहकर नदियों में पहुंचकर, उसे प्रदूषित करते हैं।

ये सब नदियों को प्रदूषित करने के अपेक्षाकृत छोटे कारण हैं। नदियों के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बड़े और छोटे उद्योग धंधों से निकलने वाला प्रदूषित जल है।

यद्यपि इस औद्योगिक वेस्टेज को ट्रीट कर नदियों में गिराना चाहिए लेकिन ज़्यादातर वेस्टेज बिना ट्रीटमेंट के ही नदियों में पहुंचते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि बड़े उद्योग धंधों पर तो सरकार अपनी नज़र रखती है लेकिन लाखों छोटे उद्योग धंधों के पास अपने ट्रीटमेंट प्लांट हैं ही नहीं और जिनके पास हैं भी वह खराब स्थिति में पड़े रहते हैं।

इसका परिणाम यह होता है कि यह सारा अवशिष्ट गाद के रूप में नदियों में जमा होता रहता है, जिससे एक तरफ जहां नदियों का तल भरते रहने के कारण बाढ़ जैसी विभीषिका का सामना करना होता है, तो वहीं दूसरी तरफ जल प्रदूषण भी काफी तेज़ी से बढ़ता जाता है।

नदियों की बायो ऑक्सीजन डिमांड की लगातार बढ़ रही मात्रा उसके प्रदूषण के स्तर की ओर इशारा करती है। इसका बढ़ना जलीय जीवों के लिए भी खतरे का सूचक बनता जा रहा है।

अशुद्ध होती नदियों से हमारे मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। एक तरफ किसान, जहां उर्वरकों का प्रयोग करते हुए उत्पादन करते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ फसल की सिंचाई भी इसी प्रदूषित जल से करते हैं जिसके कारण उत्पादन अस्वस्थकर होता जाता है। ऐसे उत्पादों को खाने से हम अनेक बीमारियों, यहां तक कि कैंसर से भी ग्रसित हो सकते हैं।

आज हमारे सामने यह भीषण स्थिति आ गई है कि पीने के स्वच्छ पानी की समस्या हमारे सामने मुंह बाए खड़ी रहती है शायद लोग इस सच्चाई से वाकिफ ही नहीं हैं कि उपलब्ध जल का 97 प्रतिशत खारे पानी का है और केवल 3 प्रतिशत जल ही ऐसा है, जो बर्फ आदि के रूप में पीने के काम आने योग्य है।

इन जमे हुए स्रोतों से ही नदियां निकलती हैं, जिनका पानी रिसकर ज़मीन में जाता है और हम पीने योग्य स्वच्छ पानी प्राप्त करते हैं। ज़रा सोचिए अगर ये जलस्रोत भी इसी गति से प्रदूषित होते रहे और हम भू-जल का अवैज्ञानिक दोहन करते रहे, तो क्या होगा?

शायद पानी के अभाव में जीव-जगत ही नष्ट हो जाएं। ऐसे में यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि अगर हम मानव सभ्यता को और अधिक फलते हुए देखना चाहते हैं, तो हमें नदियों को प्रदूषण मुक्त करने में अपना दायित्व निभाना ही होगा।

हमें यह ध्यान रखना होगा कि जब तक प्रत्येक व्यक्ति नदियों की सफाई को अपना नैतिक कर्तव्य समझते हुए, उसे जनांदोलन नहीं बनाएगा तब तक सरकारें भले कितने ही प्रयास करती रहें, नदियों को प्रदूषण मुक्त करना सम्भव ही नहीं होगा।


नोट: लेखक विवेक वर्मा, पेशे से एक शिक्षक हैं। विवेक की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।

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