“हुई मुद्दत के गालिब मर गया, याद आता है वो हर बात पर कहना के यूं होता तो क्या होता (मिर्जा असद उल्लाद खां गालिब) उर्दू भाषा के जानकारों में ही नहीं अदब की दुनिया में आज भी जिंदा हैं।” मिर्जा गालिब केवल अपने जन्मदिन और पुण्यतिथि को भले ही कुछ उर्दू संस्थानों में रस्मी तौर पर याद किए जाते हों लेकिन उर्दू और अदब के चाहने वालों के दिलों में वह एक धड़कन की तरह हमेशा धड़कते रहते हैं।
27 दिसंबर, 1797 को असदुल्लाबेग खां का जन्म हुआ था, जिनको दुनिया इस नाम से कम और मिर्जा गालिब के नाम से अधिक जानती है। उनकी शादी मुगल सेना के अवकाश प्राप्त सेनानायक गुलाम हुसैन खां की बेटी से हुई थी।
गालिब के छोटे भाई यूसुफ अली खां उनसे दो साल छोटे थे और दो बहनें उनसे बड़ी थीं। 1802 में उनके पिता की मृत्यु हो गई और उसके बाद गालिब का बचपन चाचा नसरुल्लाबेग खां के संरक्षण में आगरा में ही बीता। 1806 में उनके चाचा हाथी से गिर पड़े और गालिब फिर एक बार अपने पिता की मृत्यु के बाद दूसरी बार बेसहारा हो गए।
गालिब की माँ की सम्पत्ति और चाचा को मिलने वाली पेंशन से उनकी ज़िन्दगी अधिक तंगहाल नहीं बीती लेकिन धीरे-धीरे बाद में उनकी पेंशन की रकम कम होती गई और अपनी माँ के देहांत के बाद गालिब की आर्थिक स्थिति तंगहाल होने लगी। इसी पेंशन को चालू रखवाने के लिए गालिब बाद के दिनों में कंपनी बहादुर के दफ्तरों के चक्कर लगाने के लिए दिल्ली से बाहर निकले। उन्होंने काफी समय कलकत्ता और बनारस में बिताया।
भले ही वो पेंशन के लिए दिल्ली से बाहर निकले पर उर्दू अदब के नामी-गिरामी महफिलों में जाना और जाने-माने लोगों के साथ उठना-बैठना इसी सफर के दौरान हुआ। कलकत्ता, बनारस और कई शहरों में जाने के कारण गालिब के नज़रिये और स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ा। इसी सफर के दौरान उन्होंने राहखर्ची निकालने के लिए फारसी के कई ग्रंथो का अनुवाद भी किया। इससे जीवन को लेकर उनके सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक ख्याल पहले से ज़्यादा पुख्ता हुए।
ऐसे जानकार लोग मिर्जा गालिब को थांट, कंटेट मिल्टन, कीट्स, शेक्सपियर, बायरन आदि के समकक्ष मानते हैं और सम्मान देते हैं बकौल मारेक ने तो यहां तक कहा कि ‘गालिब के पास उर्दू के बजाय अंग्रेज़ी, फ्रैंच, जर्मन या रूसी भाषा होती, तो वो आज विश्व के महानतम कवियों में शुमार होते। आज गालिब के लिखे साहित्य का अनुवाद दुनियाभर की भाषाओं में होता है और वो खूब चाव से पढ़े जाते हैं।’
अपने वक्त में मिर्जा गालिब फाकमस्ती और मुफलिसी के गीत गाते रहे, इसकी एक वजह यह थी कि उस समय शायरी को एक सम्मानजनक काम नहीं माना जाता था। उस समय उनके हालात इतने तंग रहते थे कि उन्होंने अपने हाथ से जो लिख रखा था, वह कभी प्रकाशित नहीं हो पाया।
अंग्रेज़ सरकार के दौर में कुछ अफसर, जो खुद गालिब से उर्दू सीखते भी थे, उन्होंने गालिब को गर्दिशी से बाहर निकालकर विश्व मंच पर ला दिया पर गालिब अपना सिर झुकाकर अपना काम निकलवाने वाले लोगों में से नहीं थे।
गालिब फाकाकशी से इस कदर घिरे रहते थे कि उनकी मामूली सी पेंशन भी कर्जदारों में ही बंट जाया करती थी। पहली तारीख आते ही घर के दर्जी, राशन, परचून, दूध वाले उनके दरवाज़े पर दस्तक देने लगते थे। उनकी पत्नी उमराव बेगम मुश्किल से घर का खर्च निकालती और देनदारों को टालती।
दिल्ली कॉलेज में फारसी पढ़ाने के लिए एक उस्ताद की ज़रूरत थी और गालिब पाई-पाई के मोहताज़ थे। कॉलेज के प्रिंसिपल गालिब के दोस्त थे और गालिब को उस्ताद के रूप में नियुक्त करना भी चाहते थे। प्रिंसिपल थांपसन ने जब गालिब को बुलावा भेजा, तो उनके दरवाज़े पर गालिब रूक गए। उन्हें इंतज़ार था कि कोई बुलाकर ले जाए।
अंग्रेज़ सरकार में उस समय यह दस्तूर था कि जिन लोगों को उनके दरबार में सम्मान प्राप्त था, उनका खास अवसरों पर दरवाज़े पर स्वागत किया जाता था। गालिब दरवाज़े पर कुछ देर प्रतीक्षा करते रहे, दरबान से जब कहलवाया, तो थांपसन चलते हुए आए और जब गालिब ने यह बात कही तो थांपसन ने कहा इंग्लिश एटीकेट के अनुसार, नौकरी पाने वालों को ही अंदर आना पड़ता है, उनका स्वागत नहीं किया जाता।
गालिब ने कहा उनको पता होता कि इस नौकरी के लिए माफी, यदि मुझे पता होता कि इंग्लिश एटीकेट में दोस्ती का स्थान नहीं है, तो मैं यहां कभी नहीं आता बाद में यह नौकरी चालीस रुपये माह पर फारसी के विद्धान इमाम बक्श सुबहाई को दे दी गई।
उस दौर में रामपुर के नवाब जो गालिब के दोस्त भी थे, उन्होंने उनकी काफी मदद की। रामपुर के नवाब ने गालिब को अपना उस्ताद माना और कुछ रकम हर महीने देने का आदेश दे दिया, इससे उन्हें काफी मदद मिली।
1860 के दौरान कंपनी बहादुर से भी अपने रिश्ते सही करने के उद्देश्य से उन्होंने “दस्तन्बू” की रचना की। उन्होंने इस किताब की प्रतियां कुछ प्रतिष्ठित अंग्रेज़ों के पास भी भेजीं, परन्तु गालिब अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए। रामपुर के नवाब और दोस्तों के सहयोग से 1860 में कंपनी सरकार ने उनकी पहले की स्थिति बहाल कर दी और उनको सरकारी दरबार में शरीक होने का आदेश दे दिया। इससे उनकी स्थिति बेहतर हुई।
इसके कुछ साल बाद उन्होंने “कांति” बुरहन के शीर्षक से एक किताब प्रकाशित की, जो बाद में “बुरहन-ए-कांति” के नाम से फारसी साहित्य में लोकप्रिय हुई। सरकारी दरबार में शामिल होने के बाद सरकारी संरक्षण में “दस्तन्बू” प्रकाशित हुआ। उनके पढ़ने-लिखने का यह दौर अधिक दिनों तक नहीं चल सका।
1864 आते-आते गालिब कई बीमारियों से घिर चुके थे, जिसके कारण वह साहित्यिक गतिविधियों में शामिल होने में असर्मथ थे, पर घर पर ही उनके लिए काफी काम आ जाया करता था और कुछ पेशगी के साथ, तो उनको वह काम करना पड़ता था।
गालिब ने उर्दू शायरी व गद्य को नई तबीयत दी, उसमें नई जान फूंकी, यह कहना कहीं से भी गलत नहीं होगा। गालिब ने उस भाषा की तीमारदारी की, वो हिंदी भी लगती, हिन्दवी भी या हिंदुस्तानी भी। हिंदी के लोग भी उनको अपना कवि मानते हैं, वह शायद इसलिए क्योंकि गालिब की लेखनी में मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गई का अंदाज़-बयां मौजूद था।
14 फरवरी को आज के दिनों में वेलेंनटाइन-डे मनाया जाता है। 1869 की उस रोज़ को दिमाग की नस फटने से वह बेहोश हो गए और अगले रोज़ दोपहर को उनका देहांत हो गया। इस तरह भारत का अंतिम क्लासिक फारसी कवि और महान शायर इस दुनिया से उठ गया। उन्होंने उर्दू शायरी को एक नई शाहराह पर लाकर खड़ा किया जिस पर चलकर बाद के कई लेखकों ने उसे बुलन्दियों पर पहुंचाया।