Site icon Youth Ki Awaaz

चीख़

वो ‘चीख’ मुझे आज याद आई थी,
वो चीख थी किसी औरत की
सुनकर जिसे मैं उस दिन घबराई थी।
वो चीख मुझे आज याद आई थी।

साल कुछ पहले देख जख़्म उसका,
वहाँ से क्यूं भाग आई थी?
वो जख़्म था किसी औरत का,
जिसके लगने पर, वो चिल्लाई थी
जिसे सुनकर मैं और कुछ न सुन पाई थी,
वो चीख मुझे आज याद आई थी।

वो चूङियाँ मौलाई थी,
वो चूङियाँ थी किसी औरत की
जो उसने उसे दिलाई थी
जिसने मौङ कर कलाई उसकी नीचे वो गिराई थी।
वो चीख मुझे आज याद आई थी।

गालो पर लाली उसने लगाई थी,
जिसे ख़रीद कर वो संग उसके ही लाई थी
जिसने जख़्मों से की उसकी भर पाई थी।
जिसे देख मैं घबराई थी,
वो चीख मुझे आज याद आई थी।
वो चीख थी किसी औरत की
सुनकर जिसे मैं रात ना सो पाई थी।

वो उसके काजल की तराई थी,
वो काजल उसी ने दिलाई थी
जिसने आंखो से उसकी वो बाहाई थी
किसी औरत की वो क़ाजल थी
उसकी पलखें ना उस दिन सूख पाई थी,
वो चीख मुझे आज याद आई थी।

बंद कमरे ने दास्तान जख़्मों के उसकी
सुनाई थी,
वो फिर आज वहाँ से ना भाग पाई थी।
दर्द अपना वो खुद से ना छुपा पाई थी

वो पूरी रात अकेली करहाई थी,
मैं देख उसे पूरी रात ना सो पाई थी
वो चीख मुझे आज याद आई थी
आज फिर रात मैंने जाग कर ही बिताई थी।

उस मकां की बत्ती आज फिर जलाई थी,
जहाँ से कल वो ना भाग पाई थी
वो चीख़ फिर आज याद आई थी
वो चीख़ थी उस औरत की
जिसे देख मैं खुदको ना देख पाई थी।
वो चीख़ मुझे आज याद आई थी।

आज फिर उसने साङी पर बिंदी वही लगाई थी
वो बिंदी उसी ने दिलाई थी
जिसने माथे से उसके वो बे रहमी से मिटाई थी,
फिर मौङकर कलाई उसकी नीचे वो गिराई थी
वो बिंदी उसी ने दिलाई थी।
वो बिंदी उसी ने दिलाई थी।

बंद कमरे ने दास्तान जख़्मों के उसकी
सुनाई थी,
वो फिर वहाँ से ना भाग पाई थी।
दर्द अपना वो खुद से ना छुपा पाई थी

वो ‘चीख’ मुझे आज याद आई थी,
वो चीख थी किसी औरत की
सुनकर जिसे मैं और कुछ ना सुन पाई थी।

वो जख़्मों से अपने ढकी छत पर मुझे दिखाई दी,
ना जख़्मों पर उसके लगी दवाई थी
देख जख़्म उसके मैं फिर कुछ ना बोल पाई थी।

वो देख मुझे फिर क्यूं मुस्कुराई थी?
वो चोट मुस्कान ना उसकी छुपा पाई थी,
वो मुस्कान थी उसी औरत की
जिसके आँसु भी ना मैं पौंछ पाई थी।

वो औरत मुझे आज याद आई थी
जिसे मैं ना उस दिन बचा पाई थी,
वो चीख़ मुझे आज याद आई थी।

आज फिर बगल से करहाने की आवाज़ आई थी,
वो आवाज़ थी फिर किसी औरत की,
जिसे सुनकर मैं आज ना अपने पैरों को रोक पाई थी
जा कर मैंने आवाज़ ज़रूर उठाई थी
उसे देखकर मैं आज ना घबराई थी।

बंद कमरे ने दास्तान जख़्मों के उसकी
सुनाई थी,
वो फिर वहाँ से ना भाग पाई थी।

वो चीख़ मुझे आज फिर याद आई थी,
वो चीख़ थी उस औरत की
जिसे देख मैं उस दिन भाग आई थी

वो चीख़ थी उस औरत की
जो दर्दों को छुपाई मुझे देखकर मुस्कुराई थी
वो चीख़ मुझे आज याद आई थी
वो चीख़ मुझे आज याद आई थी।।

Exit mobile version