अखिलेश, ओवैसी से गठबंधन क्यों करें ?
अखिलेश यादव ने असदुद्दीन ओवैसी के साथ राजनितिक गठबंधन से साफ मना कर दिया है। मुसलमानों में इस को लेकर नाराजगी है कि जब सपा सुप्रीमो तमाम छोटी पार्टियों से गठबंधन करने पर अमादा हैं तो फिर ओवैसी की पार्टी से गठबंधन करने से क्यों कतरा रहे हैं?
पहली नजर में देखा जाए तो सपा सुप्रीमों पर गुस्सा तो आता है मगर राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सपा सुप्रीमों का ये निर्णय राजनीतिक चालाकी और सियासी ख़ुद गरज़ी का जीता जागता उदाहरण है।
आप सोच रहे होंगे ये कैसी चालाकी है जिसमें एक पार्टी ‘महान दल’ जिसकी जमीनी हैसियत कुछ नहीं। जितनी उसकी उम्र है उससे ज्यादा ओवैसी के पार्टी के पास देश के अलग अलग राज्यों से सासंद व विधायक हैं।
इतनी बड़ी पार्टी के लिए अखिलेश यादव के पास कोई स्थान आखिर क्यूँ नहीं है। आइए इसे आंकड़ों के जरिए समझने की कोशिश करते हैं। ताकि सपा सुप्रीमो के सियासी दांव पेंच से आप भी वाकिफ हो सकें।
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पृष्ठभूमि
उत्तर प्रदेश में पचहत्तर (75) जिले है जिन में अस्सी (80) संसदीय और चार सौ तीन (403) विधानसभा क्षेत्र हैं। राजनीतिक समझ रखने वाले लोग अच्छे से जानते हैं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति जात पात और मजहब के इर्द-गिर्द घूमती है इस लिए पहले यूपी का राजनीतिक गणित समझ लें।
? दलित : 21.2 फीसदी
? मुसलमान : 20 फीसदी
? यादव : 09 फीसदी
अब जातिगत गणित को अच्छे से समझ लीजिए एक बार में समझ न आए तो दुबारा समझ लीजिए, अगर समझ आ गया हो तो खूब सोच समझ कर बताएं वोट पर्सेंट के आधार पर किसकी सरकार बननी चाहिए?
मामूली अक्ल रखने वाला व्यक्ति भी यही कहेगा कि संख्याबल के आधार दलित सरकार बनाएंगे या मुसलमान!
क्यूँकी सरकार बनाने के लिए कम से कम 25 फीसदी वोट पाना जरुरी होता है दलित या मुसलमानों की संख्या ही 20 फीसद या इससे ज्यादा है बाकी समुदाय महज 5 या 7 फीसदी तक ही सिमट जाते हैं यानी उनकी इतनी हैसियत या क्षमता नहीं कि वे अपने दम पर सरकार बना सकें।
मुसलमानों की राजनीतिक हैसियत।
यादवों की संख्या करीब 09 फीसदी है मगर उनके तीन लोग मुख्यमंत्री के कुर्सी पर आसीन हुए, दलित समाज से भले ही वह एक व्यक्ति रहा लेकिन दलितों की राजनीतिक सूझबूझ के कारण वो उसे चार बार मुख्यमंत्री बनाने में कामयाब रहे।
अब सवाल ये है कि जब 09 फीसद वाले यादव, तो आखिर बीस फीसदी मुसलमान कहाँ मात खा रहे हैं जो आज तक उत्तर प्रदेश में अपना मुख्यमंत्री बनाने मे असफल रहे? मुख्यमंत्री तो छोडिये उपमुख्यमंत्री भी न बना सके!
इसका उत्तर सिर्फ इतना है जिस समुदाय के लोगों ने अपनी लीडरशिप को आगे बढाया उन्होंने ही सरकारें बनाईं। लेकिन मुसलमान आजादी से आज तक दूसरों का बोझ ढोने मे लगे हुए हैं। आजादी से 1990 तक आंख बंद कर के कांग्रेस के वफादार बने रहे, बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद थोड़ी सद्बुद्धि आई मगर गलत दिशा की ओर निकल गई जिस का भरपूर फायदा मुलायम सिंह यादव, और कांशीराम/मायावती ने उठाया। मुसलमानों के समर्थन से मुलायम सिंह यादव तीन बार और उनका पुत्र अखिलेश यादव एक बार और वहीं मायावती मुसलमानों के समर्थन से चार बार मुख्यमंत्री बनीं।
मायावती तो एक बार कह सकती हैं कि मैं सिर्फ मुसलमानों के दम पर ही सीएम नहीं बनी हूं बल्कि मुझे मुख्यमंत्री बनाने में मेरे समाज यानी दलितों का बहुत बड़ा रोल रहा है।लेकिन मुलायम सिंह यादव जिस कम्युनिटी से आते हैं उसका उत्तर प्रदेश में सिर्फ 6 फीसद वोट है जिस के दम पर सिर्फ 20 -25 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकते हैं वो भी तब जब वो एकतरफा वोट करें। इससे मालूम होता है उनकी राजनीति मुस्लिम वोटों पर आधारित है, मुस्लिम वोटों के बिना उनकी राजनीति कुछ भी नहीं। मुस्लिम आबादी का एक बड़ा तबका एकतरफा समाजवादी को वोट करता है 14 से 15 प्रतिशत मुस्लिम वोट कुछ यादव और कुछ ओबीसी वर्ग के लोगों का वोट लेकर समाजवादी सत्ता हासिल करने मे कामयाब हो जाती है। अगर समाजवादी से मुसलमान अलग हो जाएं तो यकीन मानिए सपा एटा से इटावा तक सीमित हो जाएगी।
ओवैसी से गठबंधन क्यूँ नहीं?
असदुद्दीन ओवेसी एक पढ़े लिखे, बैरिस्टर और राजनीतिक सूझ-बूझ रखने वाले नेता हैं। उनकी सियासत मुस्लिमों के इर्द-गिर्द घूमती है हालांकि वो दलितों, पिछड़ों की भी बात करते हैं उनको टिकट देते हैं। कई कार्पोरेटर वगैरह भी दलित हैं। मगर उनकी असल ताकत मुस्लिम वोट बैंक ही है।
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी तकरीबन चार करोड़ है। जो 140 विधानसभा सीटों पर हार जीत का फैसला करते हैं। अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। बीजेपी और समाजवादी के बीच सीधी लड़ाई नजर आती है। बीजेपी को घेरने के लिए सपा ने आधा दर्जन से अधिक पार्टियों से गठबंधन किया है जिसमें महान दल जैसे छोटे दल भी हैं जिसको उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई जानता हो जिसकी जमीनी हकीकत शून्य मात्र है। जहां एक तरफ इस तरह की छोटी-बड़ी, नयी-पुरानी पार्टियों का जत्था है वहीं ओवेसी से गठबंधन करने से सपा सुप्रीमों अखिलेश यादव ने साफ मना कर सब को चौंका दिया है। इस इंकार की वजह अपना वोट बैंक खत्म हो जाने का डर है।
पिछले चुनाव के नतीजों से ये बात साबित हो चुका है कि यादवों का एक बड़ा हिस्सा अखिलेश यादव को छोड़कर भाजपाई हो रहा है या भाजपा की तरफ चला गया है। 2012 के चुनावों में समाजवादी पार्टी को यादवों का तकरीबन 83 फीसदी वोट मिला था जो 2017 में घट कर 53 फीसदी तक रह गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में ये आंकडा 29 फीसदी तक ही रह गया जिस के कारण उनके परिवार के लोग भी अपनी सीट न बचा सके, खुद अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव भी अपनी पुश्तैनी क्षेत्र कन्नौज की सीट गवां बैठी। अब अखिलेश को सिर्फ मुस्लिम वोटरों का सहारा है अगर ओवेसी से गठबंधन कर लिया जाए तो फिर मामला सीटों के बंटवारे पर फंसेगा। गठबंधन की सूरत में ओवैसी हिंदू बहुल क्षेत्र की सीट तो लेंगे नहीं, उन्हें जहां मुस्लिम वोटर अच्छी तादाद में होंगे वही सीट चाहिए होंगी जैसे रामपुर, बरेली, अमरोहा, संभल, मुजफ्फरनगर, आज़मगढ़, कानपुर वगैरह अब ओवैसी को ये सीटें देने का मतलब अपनी हरी भरी फसल ओवैसी को सौंपने जैसा है, जो अखिलेश कभी नहीं चाहेंगे। क्योंकि गठबंधन के बाद ओवैसी की पार्टी AIMIM की जीत यकीनी हो जाएगी क्योंकि सपा के ना होने और मुस्लिम पार्टी के अकेले होने की वजह से मुसलमान ओवैसी को खुल कर वोट करेंगे।
अब ये बात इतनी आसान नहीं है, जितनी दिख रही है 2022 का चुनाव आखिरी चुनाव तो है नही, पांच साल बाद फिर चुनावी बिगुल बजेगा और तब ओवैसी क्या उतनी ही सीटों पर सीमित रहेंगे? क्या वो ज्यादा सीटें नही मांगेंगे? और इसी तरह ओवैसी की पार्टी AIMIM दस से पंद्रह सालों में मुस्लिम बहुल इलाकों में काबिज हो जाएगी और समाजवादी पार्टी एटा से इटावा तक सीमित हो कर रह जाएगी, जहां वो जिला पंचायत और ब्लाक प्रमुख ही बना सकते हैं। मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब उन्हें छोड़ना पडेगा। बस इसीलिए सपा सुप्रीमों सब से गठबंधन कर सकते हैं लेकिन मुस्लिम लीडरशिप से नहीं।
और ये सोच सिर्फ अखिलेश यादव ही की नही है बल्कि ख़ुद को सेक्युलर कहने वाली सभी पार्टियों की यही विचारधारा है। उन्हें लगता है अगर मुस्लिम लीडरशिप कामयाब हुई तो उनकी राजनीति ही खत्म हो जाएगी। अब मुस्लिम लीडरशिप को खत्म करने के लिए इन पार्टियों के पास एक ही हथकंडा है जो वो आजादी से लेकर अब तक इस्तेमाल कर रहे हैं, वो मशहूर हथकंडा है मुस्लिम लीडरशिप को संघ और भाजपा का एजेंट बता दो।
इस बात को इतनी अच्छी तरह से जमीन पर उतारा जाता है कि आम मुसलमानों के दिल व दिमाग में ये बात घर कर जाती है कि मुस्लिम लीडरशिप को समर्थन करने से भाजपा सत्ता पर काबिज हो जाएगी। इसी डर से मुस्लिम समाज कभी भी अपने नेतृत्व की तरफ ध्यान नहीं देता बल्कि इन्हीं पार्टियों की झोली में भर भर कर वोट देता है। परिणामस्वरूप मुस्लिम लीडरशिप बनने से पहले ही खत्म हो जाती है। और मुसलमान पीढ़ी दर पीढ़ी इन पार्टियों को वोट करते हुए नजर आते हैं।
अब ये देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश के 20 फीसदी मुसलमान ओवैसी की पार्टी AIMIM के साथ जाते हैं या हमेशा की तरह बंट कर वोट करेंगे।