लोग अक्सर यह गलत सोच रखते हैं कि टीबी जैसी खतरनाक बीमारी की जांच आसान है। टीबी से मेरी लड़ाई की कहानी इस बात का सबूत है।
उन दिनों मैं बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रही थी। जब मुझे कमज़ोरी महसूस होने लगी और मेरी तबीयत ख़राब रहने लगी, उस समय मेरी उम्र 16 वर्ष थी। मेरी खांसी बंद होने का नाम नहीं ले रही थी। फ़ैमिली डॉक्टर ने कुछ दवाइयां दीं, जिससे मुझे कुछ राहत मिली लेकिन यह राहत ज़्यादा दिन तक नहीं रही, मेरी खांसी उसके बाद भी बनी रही। फिर डॉक्टर ने मुझे छाती का एक्स-रे कराने की सलाह दी। करीब एक महीने बाद जब यह पता लगा कि मुझे टीबी है, तो मेरे माँ-पापा और मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि मेरे साथ ऐसा हो सकता है।
जांच के तुरंत बाद डॉक्टर ने इलाज शुरू कर दिया। फिर भी काफ़ी समय तक मेरी तबीयत खराब रही । दवा से मुझे कोई आराम नहीं मिला जिस कारण हमने दूसरे डॉक्टर के पास जाने का फ़ैसला किया। वही कहानी जारी रही, मैं दिन-ब-दिन और बीमार होती जा रही थी।
कुछ महीनों की जांच के बाद, डॉक्टर ने मेरे माता-पिता को बताया कि मुझे मल्टी ड्रग-रेसिस्टेंट -टीबी है जो कि टीबी का गंभीर रूप है। फिर मुझे सर्जरी की सलाह दी गयी। हालांकि टीबी जल्दी पकड़ा गया था, लेकिन एमडीआर टीबी (MDR TB) को पहचानने में समय लगा। मुझे कभी भी ड्रग ससेप्टिबिलिटी टेस्ट कराने की सलाह नहीं दी गई और शायद इसी वजह से बीमारी पकड़ने में देरी हो गयी।
आज जब इतने सालों बाद हम कोविड-19 से जूझ रहे हैं, तब भी मुझे और मरीज़ों से टीबी की विलम्बित जांच की वहीं कहानी सुनने को मिलती है। जबकि अब हमारे पास जांच की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं। लेकिन इन सुविधाओं को मरीज़ों तक पहुँचाना अब भी एक बड़ी चुनौती है। क्यों? सरकारी केंद्रों की जांच मुफ़्त तो है लेकिन वहां तक जाना महंगा है। साथ ही कोविड-19 का डर लोगों में अब भी बना हुआ है जिसकी वजह से वह घर से बाहर निकलना नहीं चाहते। निजी क्षेत्र में जांच महंगी भी है और अक्सर जांच गलत होने की सम्भावना रहती है। मरीज़ों को इस कारण बेहतर जांच मिलना मुश्किल हो रहा है।
डब्लू.एच.ओ. के अनुसार लॉकडाउन के दौरान भारत की टीबी नोटिफ़िकेशन में लगभग 42% की गिरावट आई है। इसका मतलब ऐसे बहुत से टीबी के केस हैं जिन्हें हम पकड़ ही नहीं पाए। सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी के साथ काम करते हुए, टीबी सर्वाइवर्स और विशेषज्ञों के नेतृत्व में हमने लॉकडाउन के दौरान टीबी मरीज़ों के लिए एक ‘वर्चुअल हेल्प-डेस्क’ शुरू किया जो आज भी चल रहा है। हेल्प डेस्क से आये सभी मामलों का विश्लेषण करने पर यह पता चला कि मरीज़ जांच की सुविधा तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। निजी क्षेत्र में महंगी जांच और सरकारी अस्पतालों में जांच के लिए लंबा इंतज़ार दोनों ही मरीज़ के लिए जांच तक पहुँचने में बाधा बन जाता है।
साथ ही टीबी की जांच में बाधा इसलिए भी आ रही थी क्योंकि जिस सीबीनैट (CBNAAT) मशीनों से टीबी की जांच होती है उन्हें कोविड -19 की जांच में भी लगा दिया है। इसका असर यह हुआ कि टीबी मरीज़ों को जांच के परिणाम के लिये और लम्बा इंतज़ार करना पड़ा। इस कारण लोगों को घबराहट और चिंता होने लगी, जो हमें हेल्प डेस्क पर प्राप्त कुछ प्रश्नों में भी दिखाई दी।
सरकार ने, हाल ही में, उन इलाकों के लिए एक्टिव केस खोजने का ऐलान किया है, जहाँ टीबी होने की संभावना ज़्यादा है और जहाँ तक पहुंचना मुश्किल है। सरकार का यह कदम सराहनीय है, लेकिन इससे भी ज़रूरी बात यह है कि हमें शहर में रहने वाले लोगों के बारे में भी सोचने की ज़रूरत है, खास कर उन लोगों के बारे में जो निजी क्षेत्र में जांच और इलाज के लिए जाते हैं क्योंकि करीब 50% टीबी मरीज़ निजी क्षेत्र में ही देखभाल कराते है।
एक सर्वाइवर और पेशेंट एडवोकेट होने के नाते, मैं यह जानती हूँ कि जांच और सेहत से जुड़ी घबराहट के साथ जीना क्या होता है। कोविड-19 महामारी ने मरीज़ों के लिए इन चुनौतियों को और बढ़ा दिया है। इसके लिए क्या किया जा सकता है? यह ज़रूरी है कि टीबी जांच की रफ़्तार धीमी न हो- बल्कि इसे और मज़बूत किया जाना चाहिए। सबसे पहले, टीबी प्रोग्राम को विश्वसनीय जांच जैसे कि एक्सपर्ट एमटीबी/आरआईएफ टीबी टेस्ट के माध्यम से बेहतर जांच प्रदान करना और जांच की पहुँच बढ़ानी चाहिए।
डीआर-टीबी (DR-TB) का जल्दी पता लगाने के लिए महत्त्वपूर्ण है। टेस्ट को किफ़ायती बनाने के लिए इसमें निजी क्षेत्र को शामिल करने की ज़रूरत है। टेस्ट की सुविधा को बढ़ाने के लिए और साधन लगाने होंगे। हमें जांच को तेज़ और बेहतर बनाने के लिए नई तकनीकों को प्रयोग करना चाहिए और इनकी उपलब्धि बढ़ानी चाहिए। इसके अलावा, टीबी और कोविड -19 दोनों के लिए समाज में और घनी आबादी वाली जगहों पर सक्रीय रूप से मामलों की खोज कर, उनका जल्द ही इलाज करना चाहिए।
जांच को प्राथमिकता देने के लिए सरकार और भारत के निजी क्षेत्र को एक साथ काम करना होगा। टीबी को हराने के लिए हम सबको एक जुट होने की ज़रूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मरीज़ केवल आंकड़े नहीं हैं, वे जीते जागते इंसान हैं। इसके साथ ही नए टीबी मरीज़ों को सही समय पर सही जांच और इलाज, और सम्मान सहित देखभाल मिले, यही टीबी को हराने की तरफ़ पहला कदम है।