90 के दशक तक जो लोग इस धरती पर आए, उन्होंने बहुत सी चीजें ऐसी देखीं, बहुत कुछ महसूस किया जो 2012 या 2010 के बाद जन्में लोग या अब 2020, 2022 के बाद जन्में लोग नहीं देख पाएंगे। मिस करेंगे, उन्हें इसके बारे में पता नहीं होगा।
ये कोई बुराई या अपराध नहीं है और ना ही इसमें उनका दोष है। समय चक्र अपनी रफ्तार पर है, समय तेज़ या धीमा नहीं होता, वो अपनी ही स्पीड से चलता है, बात ये है कि हम व्यस्त हैं, हमारी प्राथमिकताएं तेज़ी से बदलती हैं। चलिए आज इस पर बात करते हैं कि क्या-क्या ऐसा है जो ये पीढ़ी मिस करेगी।
पहले दोस्ती होती थी, अब फ्रेंडशिप
मैं 1992 में पैदा हुआ, एक छोटे से शहर में! गल-मोहल्ले के सारे हमउम्र लड़के और लड़कियां दोस्त थे। उनके घर खाना-पीना, वहीं पढ़ना और कभी-कभी सो जाना, सब कुछ रहा। वो फीलिंग गज़ब की थी, सिर्फ साथ में स्कूल में पढ़ने वाले, ट्यूशन में पढ़ने वाले ही दोस्त नहीं थे, बल्कि मोहल्ले में सबसे दोस्ती थी, वहां जाति धर्म की दीवारें नहीं थीं।
सब्ज़ी बेचने वाले का बेटा भी दोस्त था, बर्तन धोने वाले का लड़का भी दोस्त था और कचहरी के अर्दली की लड़की भी दोस्त थी लेकिन आज की फ्रेंडशिप ‘स्तर’ तलाशती है और भी कई मानक हैं। इसलिए आज की फ्रेंडशिप उस दोस्ती के मज़े कभी नहीं ले पाएगी।
तब मोहल्ले थे, कॉलोनी या सोसायटी नहीं
जिस पीढ़ी की बात कर रहा हूं, वो इन दिनों घर में नहीं, बल्कि फ्लैट में रहती है या फ्लैट में शिफ्ट होने की जद्दोजहद में है। गलियों में नहीं, पॉश कॉलोनी में रहती है। जहां शाम होते ही सन्नाटा होता है, यहां पड़ोस में चाची बुआ या ताऊ जी नहीं, बल्कि अवस्थी अंकल, मीना आंटी या सक्सेना जी की फैमिली होती है।
लेकिन हम जहां रहते थे, वो मोहल्ला था। जहां सबकी छतें आपस में जुड़ी थीं। अगर बाहर वाले कमरे में पापा बैठे हों, तो हम संजय दादा के घर की छत से होकर मिथुन की छत पर चढ़ते और जीने से उतरकर गली पार करके खेलने निकलने चले जाते थे, जहां ममता बुआ सबकी बुआ थी और निधि दीदी के मामा सबके मामा थे।
रोली दीदी दिन भर दीदी थी। शाम को पढ़ाती थी तो मिस हो जाती थी। चौराहे पर बैठे मुन्ना चाचा मोहल्ले के CCTV थे। तो बजरंगी 5 साल के बच्चे के लिए भी दादा थे और 80 साल के बुज़ुर्ग के लिए भी! शाम को लाइट जाते ही सब छत पर होते थे, सबकी छतों पर खाना होता था, एक कटोरी तरोई की सब्ज़ी देकर दूसरी छत से एक तश्तरी तहरी आ जाती थी, क्योंकि ये घर कहने को पड़ोसी थे मगर परिवार से बढ़कर थे।
पब्जी वाले क्या जानें ‘कोड़ा बदाम छू’
आज सारे गेम्स स्मार्टफोन्स में हैं लेकिन हमारे वक्त पंडित जी के चबूतरे पर कबड्डी होती थी, ये जो आज खूब बातें होती हैं ना, लड़का-लड़की बराबर वाली। अरे! हमारे वक्त ये सब सोचना ही नहीं पड़ता था। हर घर के सारे बच्चे साथ-साथ पकड़म-पकड़ाई खेलते थे, खो-खो के तो हम मास्टर थे।
बरफ पानी, आइस पाइस, हत्थी पकाओ से ही शुरू होते थे। पूरे दिन खेल-कूद कर जब लाइट चली जाए और घर में हौंके जाएं, तो सब छत पर इमरजेंसी में पढ़ते थे और जब कोई देख ना रहा हो तो चुपचाप बैटरी का तार हटा देते थे। अब तो इमरजेंसी बन्द, कैसे पढ़ें? अब सुबह पढ़ेंगे ये कहकर गली में छुई छुवल्ला शुरू हो जाता था लेकिन आज की जेनरेशन इन सब खेल को कहां खेल पाएगी! हम हैरी पॉटर के दौर नहीं, बल्कि शक्तिमान के समय वाले हैं।
वो मौज इन्हें कहां मिलेगी!
आज सब कुछ स्मार्ट है, स्मार्ट फोन स्मार्ट टीवी, स्मार्ट वॉच और तो और, क्लास भी स्मार्ट लेकिन हमारे दौर में स्कूल ना जाने का सबसे तगड़ा बहाना था पेट दर्द, क्योंकि बुखार जुखाम एक मिनट में पकड़ आ जाता था और सरदर्द के बहाने में 75 कोने का मुंह बनाना पड़ता था।
लेकिन पेट दर्द में बस पेट पकड़कर लेटे रहो। घड़ी की सुई जैसे ही स्कूल टाइम से एक घंटा आगे हो जाए, फिर मौज काटो। जिस दिन ना जाओ, उस दिन शाम को 10 मिनट ज़्यादा पढ़ लो और स्कूल का गोला मार लो। पापा जब सो रहे हों तो नींद में ही टीचर की शिकायत, रिपोर्ट कार्ड पर साइन करा लो लेकिन आज पेरेंट्स के व्हाट्सएप्प ग्रुप हैं। हर हफ्ते पीटीएम (पेरेन्ट्स टीचर मीटिंग) हैं, इसलिए ये मौज भी नहीं मिलेगी।
और आखिर में आज की पीढ़ी ‘कमिटेड’ हो सकती है, ‘सिंगल’ हो सकती है लेकिन इश्क़ नहीं कर सकती, चिट्ठियां नहीं लिख सकती, व्हाट्सएप्प पर ब्लॉक कर सकती है लेकिन धूप में स्कूल के बाहर इंतज़ार नहीं कर सकती। पिज़्ज़ा खिला सकती है लेकिन बैग में चुपचाप चॉकलेट नहीं छुपा सकती।