जीवन का सबसे बड़ा सुख है स्वतंत्रता। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक व्यक्ति स्वतंत्रता का ही ख्वाब संजोए रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक इच्छा रहती है कि वह स्वतंत्र ही पैदा हो और स्वतंत्र ही मृत्यु को प्राप्त हो।
बहुत लोगों का यह ख्वाब सच भी होता है मगर बहुतायत में लोग ऐसे होते हैं, जो परतंत्र हीं जन्म लेते हैं और परतंत्रता की बेड़ियों में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें अपनी पूरी ज़िन्दगी में स्वतंत्रता का सूरज ही नहीं दिखाई पड़ता है।
बिना किसी बंदिशों के खुले आसमान में घूमते स्वतंत्र पक्षियों को विचरण करते देखकर उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न होती है। वे भी उन्हीं पक्षियों के भांति ही स्वतंत्रता चाहते हैं।
मगर परतंत्रता की जड़ें इतनी मज़बूत होती हैं, जो बड़ी मुश्किलों से खुलती हैं। उसके लिए तमाम कुर्बानियां और बलिदानों को देना पड़ता है और उन्हीं बलिदानियों को परतंत्र राष्ट्र के स्वतंत्रता का नायक कहा जाता है।
भारत अपनी स्वतंत्रता का पचहत्तरवां साल मना रहा है। भारत ने दो सौ सालों तक अंग्रेज़ों की गुलामी झेली है। इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए लाखों की संख्या में देश के नायकों ने अपना बलिदान दिया है, तब जाकर कहीं उनकी आने वाली पीढ़ियों ने स्वतंत्र भारत में जन्म लिया और उन्हें स्वतंत्र राष्ट्र में उदित होते सूर्य को देखने का सौभाग्य मिला।
स्वतंत्रता की आहुति है बलिदान
स्वतंत्रता के नायकों ने देश को आज़ाद कराने के आंदोलनों में आहुति रूपी अपना जीवन का बलिदान सिर्फ-और- सिर्फ इसलिए दिया ताकि उनके बाद उनकी नई पीढियां स्वतंत्र राष्ट्र में सूर्य को उदित होते हुए देखें।
हम सबने स्वतंत्र राष्ट्र में आज़ादी के सूर्य को उदित होते हुए भी देखा,परंतु दुर्भाग्य यह है कि हम भूल गए हैं कि इस स्वतंत्र राष्ट्र में आज़ाद उदित हो रहे सूर्य को देखने के लिए हमारे पूर्वजों ने अनगिनत की संख्या में अपने प्राणों का बलिदान दिया है।
कृतज्ञता मनुष्य होने का प्रथम गुण है
मनुष्य का एक सद्गुण होता है कृतज्ञ बने रहना मगर मनुष्य दुर्गुणों से ज़्यादा प्रभावित होता है और वह कृतघ्न हो जाता है। यह जानते हुए भी की कृतघ्नता जायज़ नहीं है लेकिन लोग इससे नहीं चूकते हैं।
जिन स्वतंत्रता नायकों ने हमारे देश और जन-जन की स्वतंत्रता की खातिर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए क्या उनके प्रति हमारा दायित्व यही है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर चन्द स्लोगनों, पोस्टर, मोमबत्ती जलाकर नारे लगाएं।
आज वर्तमान में स्थिति यह बन चुकी है कि जिन भावी पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य की खातिर स्वतंत्रता के नायकों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था। अब वही भावी पीढ़ी उनके बलिदान को पूरी तरह से भूल चुकी है। उन्होंने अपने नायक बदल लिए हैं।
अब इस पीढ़ी के नायक स्वतंत्रता सेनानी ना होकर फिल्मी दुनिया के चमकते सितारे हो चुके हैं, जो की पूरी-की- पूरी पीढ़ी को सतही सच्चाई से परे हवा में उड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं और जब तक वो स्थिति का आंकलन कर पा रहे हैं, तब तक वे धड़ाम से गिर चुके होते हैं।
इस पीढ़ी को दस स्वतंत्रता सेनानियों के शुद्ध नाम और स्वतंत्रता प्राप्ति में उनके द्वारा दिए गए अमूल्य योगदान याद नहीं हैं, मगर फिल्मी दुनिया के सौ सितारों के नाम मुंहजुबानी याद हैं और उनकी किस साल कौन सी फिल्म किस डेट को आई थी? सब भलीभांति याद है।
सरकारों की मूकबधिरता भी है ऐतिहासिक विरासतों के पतन का कारण
यह कोई बड़ी समस्या नहीं है कि इस पीढ़ी ने अपने स्वतंत्रता के नायकों को भूलना शुरू कर दिया है। इससे इतर सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनकी इस भूल को सुधारने के लिए सरकारों के द्वारा प्रयत्न बहुत ही कम किए गए हैं।
इसके साथ-ही-साथ हमारे समाज एवं घर परिवार के बदलते परिवेश ने भी इसमें बहुत बड़ा योगदान दिया है। आज घरों में अभिभावक बच्चों से चंद घंटे बैठकर बातें नहीं करते, उन्हें अपनी भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में इतनी फुरसत नहीं है कि वो अपने बच्चों से अपने देश के स्वर्णिम इतिहास से जुडी हुई अमूल्य स्मृतियों को साझा कर सकें, ताकि उनके अंदर भी अपने इतिहास पुरुषों के बारे में जानने की ललक उत्पन्न हो।
भावनाओं में बह रहा भारत का भविष्य
भारत एक भावना प्रधान देश है। यहां भावनाओं का प्रवाह सागर की लहरों से भी तेज़ होता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जो भारतीयों के भावना प्रवाह को सत्यापित करेंगे। इसका जीता जागता उदाहरण है भारत की आयरन लेडी कहलाए जाने वाली स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद शोक की भावना में बहकर पूरे देश में व्यापक रूप से हिंसा शुरू हो जाना।
इसके अलावा भी ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जो दर्शाते हैं कि भारतीयों के मन में यदि कोई बात बैठा दी जाए, तो उनसे पहाड़ भी उठवाया जा सकता है।
वर्तमान पीढ़ी भी भाव रहित है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। इसमें भी भाव का प्रगाढ़ प्रवाह है, मगर इस भाव के प्रवाह की दिशा एवं गति एकदम भिन्न है।
इन्हें स्वतंत्रता के महान नायकों की बजाय फिल्मी सितारों से ज़्यादा लगाव है। इन्होंने अपने जीवन के आदर्श किसी स्वतंत्रता सेनानी के बजाय फिल्मी सितारों को बनाना शुरू कर दिया है।
अब वो अपने चहेते सितारे के लिए इतने भावुक हैं कि वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, फिर ऐसे परिदृश्य में यह नहीं कह सकते हैं कि भावनाओं के अभाव में नई पीढ़ी का रुझान स्वतंत्रता के महान नायकों एवं अपने देश के स्वर्णिम इतिहास से हट चुका है। असल बात यह है कि नई पीढ़ी को उस प्रकार से चीज़ों को दिखाया ही नहीं गया है कि उनके अंदर भी अपने देश के महान स्वतंत्रता नायकों एवं स्वर्णिम इतिहास को जानने की जिजीविषा जागृत हो।
भारतीयता और भारत का संरक्षक है इतिहास
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नायक असल में भारतीय संस्कृति की भी धरोहर हैं। अतः भारत की संस्कृति और इतिहास को बचाए रखने के लिए अब यह आवश्यक हो चुका है कि गुमराह हो चुकी इस नई पीढ़ी को पुनः भारतीयता और भारतीय संस्कृति से अवगत कराया जाए तथा पर्दे के नायकों से हटाकर वास्तविक नायकों के बारे में रुझान जागृत किया जाए।
यदि ऐसा करने में हम सफल हुए, तो यही स्वतंत्रता के नायकों को सच्चे शब्दों में श्रद्धांजलि होगी और उनके बलिदानों का सच्चा सम्मान होगा अन्यथा कहीं-ना-कहीं हम उनकी उम्मीदों के साथ विश्वासघात करेंगे, जिन उम्मीदों के साथ हमारे नायकों ने स्वतंत्र राष्ट्र की कामना के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था।
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नोट- कृष्ण कांत त्रिपाठी, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवम्बर 2021 बैच के इंटर्न हैं। वर्तमान में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हॉस्पिटैलिटी एवं मैनेजमेंट कोर्स में अध्ययनरत हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, वर्तमान में आधुनिकता की चकाचौंध में देश की युवा पीढ़ी द्वारा विस्मृत होते देश के स्वर्णिम इतिहास पर प्रकाश डाला है।