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उत्तराखंड के वन विभाग की नीतियों से आजीविका पर संकट, पलायन की मुख्य वजह

उत्तराखंड के वन विभाग की नीतियों से आजीविका पर संकट, पलायन की मुख्य वजह

कोरोना काल में जब सारा देश इस लड़ाई से जूझ रहा था। कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से लोगों को खाने-पीने की कठिनाइयां आ गई थीं, उस समय भी गाँवों में रहने वाले लोगों के पास कुछ संसाधन मौजूद थे, जिससे कि उनके परिवार की आजीविका चल सके।

देश में लॉकडाउन लगने के बाद देश-विदेशों से जब प्रवासी अपने घरों को लौटे, तो वे अपने गाँवों में ही रह कर स्वरोज़गार करना चाहते थे। हालांकि, उत्तराखंड के लोगों की मुख्य आजीविका जल, जंगल और ज़मीन है लेकिन वन विभाग के वनों पर हस्तक्षेप के कारण लोगों की आजीविका पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।

वन विभाग की तमाम बंदिशों के चलते प्रवासी अपना स्वरोज़गार शुरू नहीं कर पा रहे हैं और पुनः रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने पर मज़बूर हैं।

उत्तराखंड के जनजीवन का मुख्य आर्थिकी स्रोत वहां की प्राकृतिक सम्पदा है

पूर्व काल से ही उत्तराखंड की मुख्य आर्थिकी का स्रोत ना तो कृषि है, ना पशुपालन और ना ही पूर्ण रूप से दस्तकारी है। इन तीनों का मिलाजुला स्वरूप ही यहां के लोगों की आजीविका का साधन है। यह तीनों व्यवसाय जंगलों पर ही निर्भर हैं।

जल है, तो जंगल है, जंगल है, तो पशुपालन है और पशुपालन है, तो यहां के लोगों की आर्थिकी है। समाज के लोगों की वनों पर निर्भरता के कारण वनों के संरक्षण, संवर्धन, उपयोग और उपभोग करने के नियमों और पौराणिक रीति-रिवाज़ों की श्रृंखला बेहद जटिल और लंबी है। 

 यह सर्वविदित है कि जंगलों पर सबसे अधिक महिलाओं का ही फोकस रहता है, क्योंकि इसका सीधा संबंध उनके सिर एवं पीठ के बोझ से जुड़ा हुआ है। इसलिये वनों से सबसे अधिक लगाव महिलाओं को ही है। 

ज़िला चमोली के दशोली ब्लाक के दूरस्थ गाँव बमियाला की पार्वती देवी बताती हैं कि ‘जब वन विभाग का वनों पर हस्तक्षेप ज़्यादा नहीं था, तो महिला मंगल दल तथा गाँव के ग्रामीण अपने गाँव के आसपास की खाली पड़ी भूमि पर स्वयं ही वृक्षारोपण किया करते थे और अपने मवेशियों के लिए कास्तकारी निसंकोच करते थे लेकिन जब से लोगों को नियमों और कानूनों में बांधा गया है, तब से हमारी आजीविका के स्रोत प्रभावित हुए हैं।’

पूरे भारत के लिए हिमालयी क्षेत्र का बड़ा महत्व है इसलिए उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां से निकलने वाली जीवनदायनी नदियों को देव नादियां, यहां उगने वाले वृक्षों को देववृक्ष, पुष्पों को ब्रहमकमल, वन्य प्राणी कस्तूरा मृग को शिव द्रव्य कहकर धार्मिक भावना से जोड़ा गया है, ताकि मानव की आस्था और श्रद्धा के साथ-साथ स्वतः ही इन जीवनदायी संसाधनों का संरक्षण भी हो सके और लोगों की आजीविका इन संसाधनों के साथ आगे बढ़ सके।

उत्तराखंड में वनों के संरक्षण में वन पंचायतों का योगदान 

उत्तराखंड में वनों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए पूर्व काल से वन पंचायतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अपने गाँवों के आसपास के जंगलों में काश्तकारी के साथ-साथ खाली स्थानों पर वृक्षारोपण कर उनका विकास करना गाँव वालों की ज़िम्मेदारी होती थी।

इससे ना केवल प्रकृति का संरक्षण होता था, बल्कि लोगों को रोज़गार भी मिलता थे। केदारनाथ वन्य जीव प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी अमित कुवंर बताते हैं कि ‘भारतीय वन अधिनियिम 1927 की धारा 28.1 के तहत समुदाय को सैंचुरी क्षेत्र तथा वनों में काश्तकारी करने के लिए विभाग की अनुमति लेनी पड़ेगी। 

 वन्य जीवों की रक्षा के लिए भारत सरकार द्वारा नियम कानून बनाए गए हैं। उन कानूनों की रक्षा करना वन विभाग का काम है। उन्होंने कहा कि ग्रामीणों की मांग पर लोगों को उनके हक दिए जाते हैं लेकिन बिना अनुमति के सैंचुरी क्षेत्र में किसी प्रकार की घुसपैठ नहीं की जा सकती है।’ 

यह बात सच है कि उत्तराखंड में वन पंचायतें अधिनियमों और नियमों के बीच पिसती गई हैं। इस कारण लोगों के हक, हकूक और अधिकार धीरे-धीरे कम किए गए हैं। ग्रामीणों के अधिकार कम होने से स्थानीय समुदाय के लोगों का वनों से धीरे-धीरे रुझान कम होता गया। 

वन विभाग के हस्तक्षेप से आजीविका पर पड़ा है प्रभाव 

धीरे-धीरे रूझान कम होने तथा विभिन्न विभागों के गैर ज़रूरी हस्तक्षेप के कारण लोगों ने अपने जंगलों के बजाय अपनी निजी भूमि चारा पत्ती वाले वृक्षों का रोपण कर घासों के उत्पादन में काम करना शुरू किया। सरकारी नियमों के चलते जब लोगों को जंगलों से मिलने वाले हक, हुकूको में कटौती की गई, तब पशुपालन पर भी इसका असर पड़ा और पशुपालन कम होने से लोगों की आजीविका भी घटती गई, जिसके बाद आय के साधन जुटाने के लिए लोगों का शहरों की ओर पलायन होना शुरू हुआ है।

 उत्तराखंड के पंचायती वन समुदाय और वन व्यवस्था की अनूठी परंपरा रही है। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1931 में इसे स्थानीय ग्रामवासियों तथा क्षेत्रवासियों के भारी दबाव के बाद लागू किया था। 

वर्तमान समय में राज्य में करीब 12 हज़ार से अधिक वन पंचायतें गठित हैं, जो राज्य की लगभग 14 प्रतिशत वन भूमि का प्रबंधन में सहयोग प्रदान करती हैं। यह अधिकांश वन भूमि सिविल भूमि है और वन पंचायतों के स्वामित्व में है।

वन पंचायत जैसी अनूठी और कारगर वन प्रबंधन व्यवस्था की प्रशंसा यदा-कदा सरकारी तथा गैर सरकारी कार्यक्रमों में होती रही है। हालांकि 90 सालों में इन पंचायतों के स्वरूप, अधिकार एवं कार्यक्रमों में बड़े स्तर पर बदलाव हुए हैं।  

इन बदलावों ने ग्रामीण समुदाय की आजीविका एवं उनके जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। इसके बाद 2001 तथा 2005 में भी इस नियमावली में परिवर्तन किया गया लेकिन उन्हें भारतीय वन अधिनियम 1927 की उपरोक्त धारा के तहत ही अनुसूचित किया गया है।

वन अधिनियम के नियमों ने स्थानीय लोगों के अधिकारों को छीन लिया है 

वन अधिनियम की यह धारा वन विभाग को ग्राम वन बनाने व उसके प्रबंधन हेतु नियम तक बनाने का अधिकार प्रदान करती है। इन नियम कानूनों के चलते जब समाज के लोगों को वनों से कुछ लाभ ही प्राप्त नहीं हो रहा, तब वन पंचायत संगठन ने इन नियम कानूनों का विरोध करते हुए सरकार के सामने कुछ मांगे रखीं।

 इनमें उत्तरांचल वन पंचायती नियमावली 2005 को निरस्त कर जनपक्षीय वन अधिनियम बनाए जाने, अधिनियम बनने तक वन पंचायत नियमावली 1931 को लागू  करने,पंचायती वनों के विकास एवं उपयोग के लिये पृथक निदेशालय की व्यवस्था करने तथा पंचायती वनों को वन विभाग के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त करने जैसी मांगे प्रमुख हैं। 

लेकिन इन मांगों पर सरकार की ओर से कोई निर्णय नहीं लिया गया है। स्थानीय ग्रामीणों को जंगलों पर हक, हकूकों के नहीं मिलने से इसका सीधा असर उनकी आजीविका पर पड़ा है। कोरोना काल में जब देश-विदेश में रोज़गार करने वाले लोग अपने पुस्तैनी घरों को लौट आए थे, तब ये लोग अपने गाँवों में कृषि, बागवानी और पशुपालन करना चाह रहे थे, लेकिन वनों पर विभाग के हस्तक्षेप देख और कई नियम कानूनों के चलते उन्हें दोबारा रोज़गार के लिए बाहर जाने पर विवश होना पड़ा।

उत्तराखंड वन पंचायत सरपंच संगठन के पूर्व संरक्षक प्रेम सिंह सनवाल बताते हैं कि संगठन के विरोध के बाद भी वन पंचायतों को अधिकार संपन्न नहीं बनाया गया है। वन पंचायतों पर केस स्टडी तैयार करने वाले मंडल गाँव के सामाजिक कार्यकर्ता उमाशंकर बिष्ट बताते हैं कि ‘जब हम लोग गाँवों में लोगों की वनों पर निर्भरता का सवाल पूछ रहे थे, तो लोगों का सीधा जवाब था कि कई नियमों और कानूनों के कारण हमारे हक छिन गए हैं। इससे उनके परिवार की आजीविका प्रभावित हो रही है।’

बहरहाल, यदि सरकार नियमों व कानूनों में कुछ ढील दे, तो पुनः ग्रामीणों की आजीविका आगे बढ़ सकती है।  उत्तराखंड वासियों को उम्मीद है कि यदि भविष्य में कभी ऐसा संकट आए तो लोग अपने गाँवों में ही स्वरोज़गार के ज़रिये अपनी आजीविका संचालित कर सकते हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या इन डेढ़ वर्षो में लोगों की आर्थिकी पर आए सकंट को देखते हुए कुछ सकारात्मक निर्णय सामने आ सकते हैं?

क्या सरकार नियमों में इतनी ढ़ील दे सकती है कि लोग वनों का बिना कोई दुरूपयोग किए उससे आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकें? सरकार को इस पर ज़ल्द फैसला लेने की ज़रूरत है, ताकि राज्य से पलायन का दर्द खत्म किया जा सके।

नोट- यह आलेख गोपेश्वर, उत्तराखंड से महानंद सिंह बिष्ट ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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