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कविता: जातियों में छुप गई भूख, तो धर्म ने सब लिया लूट

मंदिर के बाहर गरीब महिलाएं

मंदिर के बाहर लोगों से पैसे लेकर गुजारा करती महिलाएं

जातियों में छुप गई भूख

तो धर्म ने सब लिया लूट,

मसरूफ है नियति का अभियंता

कौन है ये मेरा नीति नियंता?

 

कभी टोपी लगाता नेता है

कभी फाइलों में अटका फीता है,

कभी कागज़ों में मिलता विधाता है

पर ज़मीन पर नजर नहीं आता है,

 

इस विधाता को ढूंढते-ढूंढते

खुद की खोज में

अरबों रुपये डूब गए मेरे

पावन गंगा की गोद में,

 

ना मेरा चेहरा बदला

ना मेरे भगवान का,

ये आस्था का दोष है

या इंसान की पहचान का,

 

ये नियति का चक्र कौन तोड़ेगा

लोगों के तंत्र में लोगों को कौन जोड़ेगा,

कौन विष पीएगा शिव के वेश में

भोग बढ़ गए हैं योगियों के देश में,

 

मैं किस योग का रास्ता चुनूं

सामने बड़ा खाली मंज़र है,

कहीं गोदामों में सड़ते अनाज

और कई जगह ज़मीन बंजर है,

 

कहीं बाढ़ है तो कहीं प्रकोप है

जाति-धर्म से दूर प्रकृति का कोप है,

जिसका नियंता तो इंसान ही था

कैसे बनी ये नियति बेरोकटोक है,

 

क्योंकि उससे पहले तो

कई दीवारों का मायाजाल है,

जिनसे घर तो कोई बना नहीं

गृहस्थी ज़रूर बेहाल है।

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