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“जातिगत भेदभाव तो बाद में पता चला, बचपन में तो हम साथ खेलते थे”

मेरा बचपन गाँव में बीता। उस गाँव में अलग-अलग जाति और हिंदू-मुस्लिम सुमदाय के लोग साथ रहते थे। मैं जिस परिवार में पला-बढ़ा, वहां पर जाति-धर्म कोई खास मुद्दा नहीं रहा। हालांकि हमारे गाँव के कुछ घरों में जातीय भेदभाव देखने को मिल जाता है लेकिन मेरे जीवन में इसका कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा।

हो सकता है इसका कारण पारिवारिक माहौल हो या हमारे घर में काम करने वाले दलित समुदायों का हमारे प्रति प्रेम हो, जो अपनी थाली में मुझे खिलाते थे या हमारे लिए आम चोरी करते थे (मैं पेड़ पर चढ़ने से डरता हूं)। या हमारे वे साथी थे, जिनके साथ मैं खेलता और उनके घर में चोरी से उनकी रोटी खा लेता।

मेरी शुरुआती शिक्षा बगल के एक कस्बे में हुई, जो सिखों का स्कूल था। अब इसका सीधा सा अर्थ है कि वहां सिख ज़रूर पढ़ते होंगे लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि वहां सिख ही नहीं हिंदू, मुस्लिम और हर जाति के लोग बिना किसी भेदभाव के पढ़ते थे।

हां, हम सबकी लड़ाई भी होती थी लेकिन वह लड़ाई सीट या किसी और मुद्दे पर केन्द्रित होती थी। आगे की पढ़ाई राजधानी के एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में हुई लेकिन अभी भी मैं जाति-धर्म के संघर्ष की समझ से दूर रहा। जब हमें संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी के लिए दिल्ली आना पड़ा, तब मुझे महसूस हुआ कि हमारे पीछे जो सरनेम लगा है, वह बड़ा प्रभाव डालता है। हालांकि सकारात्मक या नकारात्मक यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है।

जब हमारे एक दोस्त ने मुझे बताया कि एक लड़का इसलिए तुमसे दोस्ती नहीं करना चाहता कि तुम तथाकथित सवर्ण वर्ग से आते हो, तो यह मेरे जीवन का पहला अनुभव था, जब मेरा जातिवाद से सामना हुआ था। इस घटना ने मुझे झकझोर दिया और मैं सोचने लगा कि जाति-धर्म अभी भी कितनी कट्टरता से लोगों के दिलों में ज़हर घोल रहा है। मैं यह नहीं कहता कि वह गलत है, उसने जो भोगा या देखा अपनी आंखों से उसका ही परिणाम था कि वो मुझसे दोस्ती नहीं करना चाहता था।

हालांकि, उसके बाद हमारी दोस्ती हुई और हम दोनों लगभग 6 वर्षों से मित्र हैं लेकिन मैं आसपास देखता हूं कि जो दूरियां लोगों में कम होनी चाहिए वह बढ़ती जा रही है। एक दूसरे की जाति, धर्म को नीचा दिखाने का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है, जिसमें सोशल मीडिया की भूमिका भी देखी जा सकती है। हम देखते हैं कि आज के युवा जो खुद को समाज से एक कदम आगे मानते हैं उनमें भी जाति धर्म इस तरह घुल चुका है कि वे एक दूसरे के जानी दुश्मन बन चुके हैं ।

हम यह कैसा समाज बना रहे हैं? क्या यही हमारे देशभक्तों का सपना था, जिन्होंने अपने प्राण खुशी-खुशी देश के लिए न्योछावर कर दिए। अगर उन्होंने ऐसा सोचा होता कि हिंदू-हिंदू के लिए लड़ेगा, मुस्लिम-मुस्लिम के लिए लड़ेगा, तो क्या हम आज आज़ाद होते?

यह हम सबको सोचना है कि हम अपने आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहेंगे, जाति-धर्म संघर्ष या शांतिमय भारत। यह आप सबको सोचना है?  और हां, नेता जनता को नहीं बरगलाते, हम सब खुद चाहते हैं तब वे हमें तोड़ते हैं। अगर हम ठान ले कि सभी देशवासी भाई -बहन हैं, ना कोई हिंदू ,ना मुस्लिम, ना दलित, ना सवर्ण, तो मुझे पूरा भरोसा है कि भारत एक शांतिमय देश होगा, जिसकी ख्याति पूरे विश्व में गूंजेगी।

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नोट- फोटो प्रतीकात्मक है।

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