आज मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बिहार के मुख्यमंत्री बने 15 साल हो गए हैं। जदयू और पूरी बिहार सरकार धूमधाम से इस मौके को मना रही है और मंत्रियों द्वारा दावा किया जाता है कि बिहार के विकास में तो चार चांद लग गए हैं लेकिन क्या वास्तव में बिहार में विकास हुआ है? क्या वास्तव में बिहार के दलितों और पिछड़ों को न्याय मिला है?
आईए देखें बिहार के विकास की पड़ताल
पहले कार्यकाल में नीतीश ने न्याय के साथ विकास के नारे के साथ किया था कमाल। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो उन्होंने न्याय के साथ विकास का नारा दिया था। पहला पंचवर्षीय कार्यकाल उनका वाकई सराहनीय रहा, जिसमें उन्होंने सामाजिक न्याय से लेकर विकास के नए-नए आयाम को गढ़ा था।
इस दौड़ मे दलितों और अति पिछड़ों में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ, उनको लगा था कि एक सरकार आई है, जो हमारे कल्याण की बात करती है, हमारे न्याय के लिए काम कर रही है।
फिर चाहे वह दलितों, अति पिछड़ों और महिलाओं को लेकर पंचायत में आरक्षण को अमलीजामा पहनाना हो या फिर बच्चियों को साईकिल देना, छात्रवृत्ति इत्यादि योजनाओं को मज़बूती के साथ लागू करना हो।
वहीं, दलितों को दो भाग में बांटकर दलित और महादलित बनाना, यह नीतीश कुमार की बिहार राजनीति का मास्टर स्ट्रोक था।
2010 विकास के नारे को जनता ने दिया था भारी समर्थन
जब दलितों और अति पिछड़ों! जिसमें अति पिछड़े मुसलमानों की भी बड़ी संख्या है, उन्होंने भाजपा से गठबंधन होने के बावजूद नीतीश कुमार को न्याय के साथ विकास के नारे पर विश्वास करते हुए उनको 2010 के चुनाव में भारी बहुमत से पुनः मुख्यमंत्री बनाया लेकिन आगे जाकर प्रधानमंत्री पद की चाहत ने नीतीश को विकास के रास्ते से भटकाया।
2013 की ही बात थी, जब एनडीए से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा कर दी गई और वह नाम था नरेंद्र मोदी, तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भारी धक्का लगा और उन्होंने एनजीए छोड़ने का ऐलान कर दिया।
2014 के लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड अकेले चुनाव मैदान में उतरी और बिहार में 2 सीटों पर सिमट कर रह गई! बावजूद इसके बड़ी संख्या में भाजपा के गठबंधन के दलों के लोग लोकसभा में पहुंचे और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें। वहीं, करारी हार के बाद इस्तीफा देकर नीतीश ने नैतिकतावादी होने का सबूत भी दिया।
मांझी को लाकर दलित हितैषी का तमगा माँझा
2014 के चुनाव की हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और गुमनाम जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया, जो कि लोगों के लिए सबसे बड़े आश्चर्य की बात है।
मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश सबसे बड़े दलित हितैषी नेता बन गए थे। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के निर्णय से नीतीश कुमार सिद्धांतिक सामाजिक और वैचारिक तौर पर मज़बूत होते दिखे उन्होंने एक तरफ सांप्रदायिकता को निशाना बनाया, तो दूसरी तरफ न्याय के साथ विकास का नारा देते हुए, दलित हितैषी होने का तमगा भी पाया।
फिर एक बार दलित विरोधी छवि में उभरे
2015 के चुनाव से कुछ महीनों पहले को भाजपा के साथ हिचकोले खाते देख, नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया और खुद मुख्यमंत्री बन बैठे। इस बात को भाजपा और मांझी ने पूरे बिहार में फैलाया और कहा कि नीतीश कुमार दलित विरोधी हैं।
वहीं, मांझी को हटाने के बाद जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने लगातार दलित विरोधी निर्णय लेने चालू कर दिए। दलितों के बड़े नेता जीतन राम मांझी और रामविलास पासवान के दलित विरोधी खेमे में होने के कारण नीतीश कुमार को लगा कि अब दलितों के वोट हमको मिलने वाले नहीं हैं।
जब नीतीश ने बदले जातीय समीकरण
बस इसी सोच के बाद नीतीश कुमार ने भाजपा के जनाधार में सेंध लगाने के लिए जातियों के दर्ज़े में परिवर्तन करना शुरू कर दिया। इसी के तहत नीतीश कुमार ने पिछड़ों की बड़ी जाती जैसे तेली, तमोली इत्यादि को अति पिछड़ा वर्ग कि सूची में डाल दिया और अति पिछड़ों में से बड़ी जाति तांति, ततमा, लोहार और खतवे को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति मे गैर कानूनी तरीके से डाल दिया।
इस निर्णय के बाद नीतीश कुमार का आठ से 12% अति पिछड़ा मतदाताओं में प्रभाव बढ़ा! जिन जातियों को एससी-एसटी और अति पिछड़ा में नीतीश ने शामिल किया। यानि भाजपा का परंपरागत वोटर को अब नीतीश ने जातियों के दर्ज़े में बदलाव के साथ इसमें भारी सेंधमारी कर दी।
2015: राजद, जेडीयू कांग्रेस महागठबंधन को मिला भारी बहुमत
2015 का जब बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ और राजद कांग्रेस का महागठबंधन बना, तब बिहार के सामाजिक और जातिगत समीकरण के समरूप नीतीश कुमार भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापस आए।
सत्ता में आने के बाद नीतीश ने एक बार फिर बड़े-बड़े दलित विरोधी निर्णय लिए। 2015 में सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार ने फिर से दलित विरोधी कार्य करने शुरू कर दिए, इस बार उनका निशाना था दलितों का उच्च शिक्षा में विकास करने वाला सबसे बड़ा केंद्र! प्रायोजित योजना पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप।
नीतीश कुमार ने 2016 में एससी-एसटी पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना में ट्यूशन फीस तथा अन्य अनिवार्य शुल्क की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी और कहा छात्रों को 2000 रू से लेकर 75000 रू तक अधिकतम छात्रवृत्ति मिलेगा।
इस निर्णय ने बिहार के लाखों गरीब दलित और आदिवासी छात्रों को उच्च शिक्षा से वंचित कर दिया और लाखों की संख्या में छात्र फीस नहीं भर पाने के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर घर बैठ गए, तबाह हो गए।
2015 के बाद अब तक नहीं हुआ राज्य में अनुसूचित जाति जनजाति आयोग का गठन
इसके बाद लगातार नीतीश कुमार की सरकार दलितों और आदिवासियों के अधिकारों पर हमला करने लगी 2015 के बाद अभी तक बिहार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन नहीं हुआ है।
राज्य आयोग के अस्तित्व में नहीं होने के कारण बिहार में हो रहे दलितों पर अत्याचार और दमन से पीड़ित दलित, अपनी शिकायत उचित फोरम तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं और इससे भारी संख्या में दलितत न्याय से वंचित हो रहे हैं।
15 साल में 5 साल बेमिसाल लेकिन 10 साल मे बिहार हुआ बदहाल
यदि हम पूरा 15 साल का कार्यकाल देखें, तो नीतीश कुमार के 15 साल में पहला 5 साल उनका न्याय के साथ विकास के लिए अपने स्थान पर ठीक रहा है परंतु दूसरे टर्म से लेकर अभी तक नीतीश कुमार ने बिहार का बेड़ा गर्क करने के आलावा कुछ भी नहीं किया है।
विकास के पैमाने पर सबसे निचले पायदान पर खड़ा बिहार मज़दूरों की फैक्ट्री के अलावा और कुछ नहीं रह गया है। आज बिहार मज़दूर सप्लायर राज्य बन कर रह गया है। बिहार में बेरोज़गारी बेइंतहा बढ़ रही है, नवयुवक क्रिमिनल बन रहे हैं। शराबबंदी कानून ने बड़े पैमाने पर बिहार के युवाओं को अपराधी बनने पर विवश किया है।
देश के आर्थिक सुधारों का बिहार को कोई लाभ नहीं
जिस 15 साल की हम बात कर रहे हैं, उसी 15 साल में मध्य प्रदेश, उड़ीसा जैसे राज्य, जिनको विमान राज्य कहा जाता था, वह आज विकास के पैमाने पर बहुत आगे निकल गए हैं और वहां के लोगों को ज़्यादा संख्या में पलायन करने की ज़रूरत नहीं पड़ रही है।
किसानों, युवाओं, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और हम साफ कहें, तो गरीबों की बदहाल स्थिति और विकास के पैमाने पर सबसे निचले पायदान पर स्थित बिहार चीख-चीख कर कह रहा है कि नीतीश कुमार आपने 15 साल में हमे बदहाल करने के सिवाय कुछ नहीं किया।
दलित और आदिवासियों के विकास के दृष्टिकोण को देखते हुए नीतीश कुमार का 15 साल दलितों के ऊपर दमन और अत्याचार का सबसे सुनहरा साल रहा है इसलिए हम कह सकते हैं कि नितीश कुमार के 15 साल में बिहार के दलित हुए बदहाल।