भगत सिंह भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी थे। चंद्रशेखर आज़ाद और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर उन्होंने देश की आज़ादी के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया था। उन्होंने सेंट्रल एसेंबली में बम विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलंदी प्रदान की थी।
उन्होंने असेंबली में बम फेंककर भागने से भी मना कर दिया था, जिसके फलस्वरुप 23 मार्च, 1931 को उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था। हमारे देश की आज़ादी के इस प्रयास के लिए आज भी उन्हें बड़ी गंभीरता से याद किया जाता है।
यूं तो भगत सिंह मात्र 24 साल की उम्र में ही देश के लिए कुर्बान हो गए लेकिन उनकी समझ और तर्क शक्ति उनके उम्र से काफी आगे थी। भगत सिंह जैसे-जैसे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होते गए, भारत समेत दुनिया भर में हो रहे अत्याचार और इससे निपटने के उपायों को जानने की उनकी जिज्ञासा भी बढ़ती गई।
इस समस्या का हल उन्हें पढ़ाई में दिखा। उन्होंने कम उम्र में ही काफी पढ़ाई की और अपने लेखों के ज़रिये भारत की स्थिति सुधारने का रास्ता बताते रहे।
वे भारत के बड़े-से-बड़े नेताओं को भी अपनी तर्क शक्ति के आधार पर जवाब देने से कभी पीछे नहीं हटे। उन्हें जब कभी एहसास हुआ कि हमारे देश के नेता गलत रास्ते पर जा रहे हैं, तो उन्होंने उनको अपने लेखों के माध्यम से जवाब दिया।
इसी क्रम में उनका एक लेख जुलाई, 1928 में ‘किरती’ के संपादकीय में छपा। इस लेख का विषय था ‘विद्यार्थी और राजनीति’ उस दौरान देश के कई नेताओं का मानना था कि पढ़ाई करने वाले नौजवानों को राजनीति में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
उन्हें सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। इसी का जवाब देते हुए उन्होंने यह लेख लिखा था। विद्यार्थियों के राजनीति में हिस्सा लेने का पूर्ण समर्थन करते हुए उन्होंने इस लेख में कई तर्क दिए थे और देश के नेताओं से कई सवाल भी किए थे।
उन दिनों काॅलेज में दाखिला लेने से पहले विद्यार्थियों से हस्ताक्षर करवाए जा रहे थे कि वे राजनीतिक कार्यों में हिस्सा नहीं लेंगे। इस पर भगत सिंह ने इसका कड़ा विरोध करते हुए लिखा था कि यही कारण है कि पंजाब इतना बलिदान देने के बावजूद राजनीतिक रूप से इतना पिछड़ा हुआ है। यह हमारी निकम्मी शिक्षा व्यवस्था को दर्शाता है।
उन्होंने अपने लेख में तर्क देते हुए कहा था कि ‘यदि विद्यार्थी और युवा जगत यदि अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेगा, तो उसे अपने देश की समस्याओं का ज्ञान कैसे होगा? अपने लेख में भगत सिंह उस वक्त के विद्यार्थियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इससे दूर रहने के कारण विद्यार्थी राजनीतिक रूप से कभी परिपक्व नहीं हो पाएंगें और इससे देश के युवा वर्ग की तार्किक और सोचने-समझने की शक्ति कम हो जाएगी।’
जब देश की बागडोर उनके हाथों में दी जाएगी, तब वे देश के सुधार के लिए बहुत पीछे रह जाएंगे इसके लिए उनका दिमाग परिपक्व ढ़ंग से देश की समस्याओं का निदान नहीं सोच पाएगा।
उनका मानना था कि विद्यार्थियों को राजनीति में अवश्य हिस्सा लेना चाहिए, जिससे उन्हें देश की परिस्थितियों का ज्ञान हो और उनके भीतर इसके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा हो सके। उनका कहना था कि इसके बिना विद्यार्थियों की शिक्षा निकम्मी साबित होगी।
उस वक्त राजनीति में हिस्सा नहीं लेने के लिए एक और तर्क का प्रयोग किया गया था। कुछ नेताओं का कहना था कि ‘विद्यार्थी राजनीति के अनुसार पढ़ें और सोचे ज़रूर लेकिन इसमें कोई व्यवहारिक हिस्सा ना लें। इससे वे और अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमंद साबित होंगे।’
इस तर्क का जवाब देते हुए भगत सिंह लिखते हैं “बात बड़ी सुंदर लगती है लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह सिर्फ ऊपरी बात है। व्यवहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु और सुभाषचंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यवहारिक राजनीति, पर कमीशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या यह राजनीति का दूसरा पहलू नहीं?
सरकारों और देशों के प्रबंध से सम्बन्धित कोई भी बात राजनीति के मैदान में ही गिनी जाएगी, तो फिर यह भी राजनीति हुई कि नहीं? कहा जाएगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ।”
यदि भगत सिंह के ऊपर लिखे हुए विचारों को आज के परिदृश्य में देखें, तो मेरी समझ से वे यही कहना चाहते थे कि ‘यदि सरकार से नाखुश होकर उसके खिलाफ कोई गतिविधि उदाहरण के तौर पर विरोध प्रदर्शन करेंगे तो सत्ताधारी दल इसकी गिनती राजनीतिक गतिविधियों मे करता है और छात्रों को इससे दूर रहने की सलाह देता है, जबकि उसके पक्ष में की जाने वाली गतिविधियों को राजनीतिक नहीं कहती और इसे वो बढ़ावा देती है। इसलिए बात सिर्फ सरकार की खुशी या नाराजगी की रहती है।’
भगत सिंह इसी तर्क के विरुद्ध सवाल पूछते हैं कि “क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए?” आपको बता दें कि भगत सिंह अपने लेखों में हमेशा एक नई सामाजिक व्यवस्था और समाज के सभी वर्गों के लिए बराबरी के लिए बात करते थे।
भगत सिंह की क्रांति के मायने
उन्होंने अपने कई लेखों में जिक्र किया है कि ब्रिटिश शासन से आज़ादी क्रांति का पहला पड़ाव है। इसके बाद हमारे देश में सामाजिक, न्यायिक, आर्थिक इत्यादि जैसे कई तरह के बदलावों के लिए क्रांति की आवश्यकता है।
क्रांति से उनका आशय कभी भी बम और पिस्तौल का इस्तेमाल करना या लोगों की जान लेना नहीं था। सेंट्रल असेंबली बम केस में सुनवाई के दौरान उन्होंने कोर्ट में अपने बयान में क्रांति का असली मतलब भी समझाया था।
आसान शब्दों में उनके अनुसार, “क्रांति का मतलब था पुरानी, दमनकारी और बेकार हो चुकी व्यवस्था को हटा कर समाज में नई व्यवस्था स्थापित करना। उनके अनुसार क्रांति एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है, ताकि जब भी कोई व्यवस्था समाज के लिए हानिकारक साबित होने लगे, तो लोग उसे हटाने के लिए एकजुट हो जाएं।”
इस लेख का मुख्य विषय विद्यार्थी और राजनीति है, इसलिए क्रांति पर ज़्यादा चर्चा नहीं करुंगा। आप पाठकगणों के लिए क्रांति को भगत सिंह के नज़रिए से एक अन्य लेख में पेश करुंगा।
नोट : इस लेख को लिखने के लिए भगत सिंह जी की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ के एक अध्याय ‘विद्यार्थी और राजनीति’ का सहारा लिया गया है।