साल 1964 आज़ाद भारत की राजधानी दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में हलचल थी। देश के कुछ बुद्धिजीवी लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। उस अस्पताल में आने वालों में सबसे चर्चित नाम तब के प्रधानमंत्री स्व. श्री लाल बहादुर शास्त्री और राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का था।
उस समय अस्पताल में एक ऐसी शख्सियत का इलाज चल रहा था, जिन्होंने इसी दिल्ली में स्थित असेम्बली में बम फेंक इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया था। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलते वक्त बटुकेश्वर जी ने कहा था कि ‘आप हम क्रान्तिकारियों को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते हैं जिनके हाथ में बंदूक है, मगर आप हमारे विचारों पर कभी ध्यान नहीं देते हैं।’
यह एक ऐसा व्यक्ति बोल रहा था, जिसके विचारों ने अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव हिला कर रख दी थी और शायद बटुकेश्वर दत्त सही ही कह रहे थे। हमने क्रान्तिकारियों के विचारों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया, हम उन्हें एक ऐसे नायक के तौर पर देखते हैं, जो किसी भी हालत में अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों को रोक नहीं सकता, चाहे उसके ऊपर जितना भी जुल्म हो।
वो अपनी आज़ादी की लड़ाई को नहीं छोड़ सकता लेकिन हम यह देखना नहीं चाहते हैं कि वो व्यक्ति किस विचार से प्रभावित होकर यह कार्य कर रहा है। ऐसा कौनसा विचार है, जिसने एक व्यक्ति को अडिग और निर्भय बना दिया है।
कानपुर का मॉल रोड, जब हमारा देश भारत ब्रिटिश हुकूमत का गुलाम था। एक नौजवानों का झुंड जा रहा था, इस झुंड को पता था कि वो अपने ही देश की कुछ सड़कों पर नहीं जा सकते, क्योंकि वो सड़कें विदेशियों के लिए आरक्षित हैं लेकिन इस बात से एक बच्चा अनभिज्ञ था, वो मॉल रोड कानपुर के आरक्षित रोड पर चला गया।
अपने अंतिम दिनों में दिल्ली अस्पताल में भर्ती बटुकेश्वर दत्त।
उस बच्चे को अंग्रेज़ सिपाहियों ने मारना शुरु कर दिया। इस दर्दनाक दृश्य को नौजवानों के झुंड में खड़ा एक शख्स देख रहा था। उस कांड ने किशोर बटुकेश्वर के मन में इतना गहरा घर किया कि कुछ सालों बाद उन्होंने दिल्ली स्थित असेंबली में बम ब्लास्ट कर दिया।
इस कांड के बाद से ही बटुकेश्वर दत्त एन्टी कोलोनियल गतिविधियों में संलिप्त हो गए। इसी दौरान सुरेशचंद्र भट्टाचार्य, जो प्रताप के संपादक हुआ करते थे, की मदद से बटुकेश्वर सचिंद्रनाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आए।
बटुकेश्वर दत्त को एक सही मौका मिल गया और वो एचएसआरए में प्रख्यात हो गए और जिस समय बटुकेश्वर दत्त एचएसआरए में शामिल हुए थे, ठीक उसी समय दो और क्रांतिकारी संगठन में शामिल हुए थे। उन दोनों की पहचान शहीद-ए-आजम भगत सिंह और भगत सिंह को शहीद-ए-आजम का खिताब देने वाले कमलनाथ तिवारी के रूप में थी।
उस समय तीनों ही इस बात से अनजान थे कि उन्हें देश में होने वाली सबसे बड़ी क्रांतिकारी गतिविधि असेंबली बम ब्लास्ट में मुख्य किरदार निभाना है।
भारत के अंग्रेज़ी संसद में ट्रेड डिस्प्युट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल पर चर्चा हो रही थी, तभी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंक दिया और अंग्रेज़ी में ‘लॉन्ग लिव मदरलैंड’,’लॉन्ग लिव रेवेलुशन’ और ‘डाउन विथ इम्पेर्लिस्म’ जैसे नारे लगाने लगे। इस कृत्य से अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई।
उस समय किसी ने सोचा भी नहीं था कि भारत के अंग्रेज़ी संसद में बम भी फेंका जा सकता है। अंग्रेज़ी हुकूमत इतना घबरा गई कि एचएसआरए के सभी सदस्यों को लाहौर षड़यंत्र के तहत कटघरे में खड़ा कर दिया गया। इसमें कुल 18 क्रांतिकारियों को इसमें शामिल किया गया, उनके खिलाफ मुकदमा शुरु हुआ।
इस षड़यंत्र में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा मिली और बाकियों को उम्रकैद हुई। बटुकेश्वर दत्त को भी उम्र कैद हुई, सारे क्रान्तिकारियों के साथ बटुकेश्वर दत्त को भी अंडमान के सेल्युलर जेल (काला पानी) भेजा गया। वहां भी बटुकेश्वर दत्त ने भूख हड़ताल में भाग लिया, अंग्रेज़ों के लाख जुल्म के बाद भी उनका अनशन नहीं टूटा और आखिर उन्हें पॉलिटिकल प्रिजनर (राजनैतिक कैदी) का दर्ज़ा मिला।
लाहौर षड़यंत्र के आरोपियों के रूप में बटुकेश्वर दत्त।
उन्हें उनके बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण पटना जेल से 1938 में रिहा कर दिया गया। 1938 में कमलनाथ तिवारी को भी जेल से रिहाई मिली थी, जिन्होंने असेम्बली बम ब्लास्ट में गन कॉटन, बारूद और बम बांधने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जेल से निकलने के बाद बटुकेश्वर दत्त और कमलनाथ तिवारी भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए।
बटुकेश्वर दत्त के अंतिम दिन बहुत ही कष्ट में गुज़रे। अंग्रेज़ों की अमानवीय प्रताड़ना के परिणामस्वरूप उन्हें कैन्सर हो गया था। अंग्रेज़ी शासन का उनके प्रति इतना अमानवीय व्यवहार था कि जब उन्हें देखने उनके पुराने साथी कमलनाथ तिवारी अस्पताल पहुंचे, तो उन्हें वेंटिलेटर पर देख, तिवारीजी ने अपने बेटे से कहा कि ‘ये सब मैं जेल में झेल चुका हूं, अगर मेरे लिए इसकी ज़रूरत पड़े तो मुझे ज़हर दे देना’। 20 जुलाई, 1965 को यह महान क्रांतिकारी अपनी देह को छोड़ हमेशा के लिए अनंत शून्य में विलीन हो गया।