मैं अक्सर हिंदी फिल्मों को आम तौर पर एक बार ही देखता हूं। कभी-कभी तो फिल्मों को फास्ट फॉरवर्ड करके ही देखना ज़्यादा ज़रूरी समझता हूं, जहां फिल्मों के माध्यम से सरकार की नीतियों और संदेशों को जारी किया जाता हो, शायद मेरी सरकारी नीतियों वाली टिप्पणी पर एक आम दर्शक अपनी सहमति ना प्रकट कर सके इसके लिए यहां बताना बहुत ज़रूरी है कि हिंदी फिल्मों के माध्यम से 1984, 2002 के कत्लेआम पर कोई भी फिल्म ईमानदारी से नहीं बनाई गई है।
हां, मैं गुलजार की माचिस, समीर ओर हंसल मेहता की शाहिद जैसी इन फिल्मों के प्रयास की सराहना करता हूं लेकिन मेरी इनसे वही शिकायत है कि ये फिल्में कहीं-ना-कहीं एक निजी किरदार और उसकी समस्याओं तक ही सीमित रहती हैं।
इस से ज़्यादा बड़ी समस्याओं पर एक ईमानदार तस्वीर दिखाने में कहीं भी और कोई भी सक्षम नहीं है, जहां सरकार, व्यवस्था, सरकारी राजनीति और कत्लेआम के कारणों को बिना सरकारी चश्मे के दिखाया जा सके।
लेकिन मैं यहां दो पाकिस्तानी फिल्मों का उदाहरण भी ज़रूर देना चाहूंगा लेकिन इसके पहले भारतीय चश्मे से पाकिस्तान को समझना बहुत ज़रूरी है, जहां हमारी सरकारी व्यवस्था और लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तम्भ हमारी देश की मीडिया में पाकिस्तान की छवि एक तालिबानी ओर इस्लामिक कट्टरवादी देश के रूप में दिखाई जाती है।
जहां इशारों-ही-इशारों में पाकिस्तान के माध्यम से भारत के मुस्लिम समुदाय पर निशाना बनाया जा सके और हमारी जनता बढ़ती हुई बेलगाम महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य तंत्र की बदहाली, कमजोर और लचर न्यायिक प्रणाली, जहां न्याय मिलने में लोगों की ज़िन्दगियां लग जाती हैं। इन महत्वपूर्ण मुद्दों से अपना ध्यान हटा कर अल्पसंख्यक समुदाय को अपना निशाना बना सके। इस श्रेणी में मुस्लिम और सिख दोनों समुदाय आते हैं।
पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है और वहां भी अल्पसख्यक समुदाय जैसे कि अहदिया मुस्लिम समुदाय, शिया मुस्लिम समुदाय, हिंदू, सिख, ईसाई सभी आते है और जहां आए दिन इन अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों के हनन की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार और मीडिया में कट्टरवाद का प्रचार बहुत ही निम्न स्तर पर है।
वहीं पाकिस्तानी फिल्म निर्माण में दो बहुमूल्य फिल्में हैं, जिनका मैं निजी रूप से बहुत बड़ा प्रशसंक हूं। मसलन खुदा के लिए ओर हल्ला बोल, जहां दोनों फिल्मों में इस्लाम को बहुत सहज दिखाया गया है और इस्लाम के नाम पर हो रहे कट्टरवाद को नकारा गया है।
मसलन खुदा के लिए फिल्म में एक नौजवान जींस की पेंट पहन कर भी नमाज अदायगी की रस्म अदा कर सकता है। इस फिल्म में बेटे और बेटी की चाहत पर भी सवाल किए गए हैं, जहां एक ऐसे इस्लाम की परिभाषा दी गई है जो समाज में अपने योगदान के लिए जाना जाए और जहां महिलाएं भी शिक्षा और व्यापार में अपना योगदान बढ़-चढ़ कर अदा कर सकें। इन दोनों फिल्मों का पाकिस्तान में विरोध नही हुआ था और जहां तक मुझे याद है इन फिल्मों का भारत में भी बहुत सराहा गया था।
वहीं हम अगर भारतीय फिल्म निर्माण को समझें तो 90 के दशक तक सरकारी व्यवस्था, भ्रष्ट होती जा रही न्यायिक, राजनीतिक व्यवस्था पर सवाल होता था, जहां फिल्म का नायक ओर खलनायक अपने-अपने किरदारों के नाम से एक ही समुदाय से अपनी पहचान रखते थे।
अक्सर जहां खलनायक ठाकुर, गब्बर, गुप्ता इत्यादि नाम से होते थे या कोई नेता होता था, जिसके बदन पर खाकी लिबास ओर टोपी दोनों मौजूद रहते थे, लेकिन यहां भी भारतीय समाज में मौजूद धार्मिक जात-पात, पुरुष, महिला में सामाजिक अंतर ओर खलनायक के रूप में धार्मिक लिबास सभी गैर मौजूद रहते थे।
इसके पश्चात धारावाहिक रामायण ओर महाभारत के आने के बाद और 1993 में आई मणिरत्नम की फिल्म रोजा, जिसमें खलनायक एक मुस्लिम कट्टरपंथी था, जिसे देख कर मैं भी निजी रूप सहम गया था और उसके पश्चात मुझे याद नहीं कि कोई फिल्म हमारी भ्रष्ट होती सरकारी व्यवस्था पर बनी हो।
कुछ फिल्में हैं जैसे कि फायर जहां दो महिलाओं के जिस्मानी सम्बन्धों को दिखाया गया है और देश में इस फिल्म का हिंदू कट्टरवादी समुदायों ने बहुत ज़्यादा विरोध किया था, क्योंकि इस फिल्म में मौजूद दोनों महिलाएं साड़ी के लिबास में मौजूद थीं, जहां उनकी मांग में भरा सिन्दूर और गले में मंगल सूत्र दोनों ही इस बात का परिचय दे रहे थे कि इस फिल्म के किरदारों में दोनों महिलाएं हिंदू धर्म से जुड़ी हुई हैं।
वहीं दोनों महिलाओं के पतियों के किरदार अपने-अपने नाम से उच्च हिन्दू जाति के समुदाय के होने से परिभाषित हो रहे थे। यहां यह समझना ज़रूरी है की अशोक नाम का पुरुष किरदार, एक स्वामी जी के कहने पर अपनी पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से कतराता है।
इसके बाद दो महिलाएं, जो आपस में शारीरिक सम्बन्ध बनाती हैं इसका कारण कहीं-ना-कहीं उनके पति हैं, जो कि एक उच्च हिन्दू जाति से सम्बन्ध रखते हैं। इसी कारण के चलते इस फिल्म का विरोध हिंदू संगठनों के द्वारा बहुत ज़्यादा किया गया था, लेकिन विचार करने बात यह है कि क्या ये फिल्म आज अगर सिनेमाघरों में आती तो क्या इसका स्वागत भी विरोध से होता?
हां, ज़रूर लेकिन इस से भी बड़ा सवाल यह है कि इस फिल्म को बनाने की शायद कोई हिम्मत भी नहीं करता और शायद इस फिल्म का आज भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड से पास होना भी मुश्किल था। आपको याद रहे कि इस फिल्म का निर्देशन दीपा मेहता ने किया था, जो कि खुद एक महिला हैं और जिनका जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ है।
यहां हमें यह समझने की ज़रूरत है कि भारतीय समाज में हिंदू संगठनों का बोल बाला है, जो कि पुरुष प्रधान है और वह अपनी जातियों के नाम पर अपने आप को उच्च होने का गुणगान करता है लेकिन फिल्म फायर को भारतीय सेंसर बोर्ड ने भारतीय सिनेमाघरों में दिखाने की सरकारी और कानूनी अनुमति दी थी।
उसी के अनुसार हमारे देश की सरकारी व्यवस्था, जो हमारे संविधान को सामाजिक रूप से संचालित करने में अपना सबसे बड़ा योगदान देती है। उस का विफल हो जाना या देश की राजनीति में संवेदनशील मुद्दों पर बनी फिल्मों पर रोक लगाना क्या हमारे भारतीय लोकतंत्र को अंदर से खोखला दिखाता है?
यह स्वीकार्य होना चाहिए कि भारतीय समाज में बोलने की आज़ादी नाम मात्र है और वह संविधान की किताब में लिखी गई सुनहरी स्याही से ज़्यादा कुछ नहीं है, क्योंकि इसको लागू करवाने वाली व्यवस्था में धार्मिक कट्टरता, पुरुष प्रधानता और उच्च जाति का बहुत बड़ा योगदान है।
इसलिए फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी सामाजिक, राजनीतिक प्रश्नचिन्हों की फिल्मों का निर्माण होना बहुत ही मुश्किल या नाम मात्र है। वहीं एक आम नागरिक की पहचान में भी हमारे संविधान का कोई बहुत बड़ा योगदान नहीं हैं, क्योंकि व्यवस्था इसके लिए ना कभी ईमानदार थी, ना है और ना ही होने की कोई उम्मीद है।