भारत एक विविधताओं वाला देश है। यहां एक कहावत प्रचलित है कि “कोस कोस पर बदले वाणी, चार कोस पर पानी।” हमारे देश में इतनी विविधताएं हैं कि यहां स्थान परिवर्तन के साथ ही खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल सब कुछ बदल जाता है।
यही हमारे देश भारत की खूबसूरती भी है और कहीं-ना-कहीं यही वजह है जो विश्व भर में भारत को एक अलग पहचान दिलाती है परंतु इन सभी विविधताओं के बावजूद यदि कुछ स्थाई है, तो वह है भारतवर्ष के प्रत्येक कोने में फैली हुई जातिगत विभिन्नताएं।
जो कहीं-ना-कहीं हमारे देश भारत के विकास में मुख्य बाधक हैं। यूं तो कहने को कहा गया है कि भारत में विविधिताएं तमाम हैं परंतु विविधताओं के बावजूद एकता बनी हुई है। मगर सतही तौर पर जाकर आकलन करने पर हमें मालूम होता है कि असल में हमारी विविधताओं के साथ-ही-साथ एकता भी खंडित हो जाती है।
जातिगत भेदभाव के चंगुल में जकड़ा हुआ है लोकतंत्र
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक को यह मूल अधिकार मिला है कि उसके साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर किसी के साथ भी भेदभाव नहीं किया जाएगा परंतु संविधान का यह अधिकार न्यायालय एवं न्यायिक प्रक्रियाओं से ज़मीन पर नहीं आ पाया है।
आज भी जब हम ज़मीनी स्तर पर इसकी हकीकत को देखते हैं तो पाते हैं कि लोगों के बीच जातिगत भेदभाव अपने चरम पर हैं। अनुसूचित जनजाति, जिन्हें समाज में दलित की उपमा दी गई है, लोग असल में उन्हें अछूत मानते हैं और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। हमारे जिस आदर्श एवं सभ्य समाज ने जिन लोगों को अछूत की संज्ञा दे रखी है, उनकी आबादी भारत की कुल आबादी का 16.6 फीसदी है।
नहीं मिल पाता है अदालतों में भी न्याय
किसी समस्या का होना बड़ी समस्या नहीं है बल्कि मुख्य समस्या है कि किसी समस्या का समय रहते हुए निवारण ना होना। जातिगत भेदभाव के मामलों में जो मुख्य समस्या है, वह यह है कि इस ओर देश के नागरिकों के मूल अधिकारों के सरंक्षक कहे जाने वाले न्यायालयों का भी कोई ध्यान नहीं हैं और ऐसे सभी जातिगत भेदभाव के मामलों को एक अनिश्चितकाल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।
असल में हमें देश की अदालतों में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली लोकोक्ति बिल्कुल चरितार्थ होती दिखाई देती है। यदि हम आंकड़ों की बात करें, तो हमारे देश के न्यायालयों में जातिगत भेदभाव की घटनाओं से संबंधित कुल 2.9 करोड़ मामले किसी-ना-किसी कारणवश अनिश्चितकाल के लिए लंबित हैं।
कुछ एक मामले ऐसे हैं, जो कि पिछले 60 सालों से लंबित हैं। वर्तमान समय के न्यायालयों की कार्यपद्धति के हिसाब से आकलन करने पर यह रिपोर्ट आई है कि ‘भारत के न्यायालयों में लंबित पड़े सभी मामलों को न्याय दिलाने में 324 साल लग जाएंगे। यह आंकड़ा जितना ही हास्यास्पद है, उतना ही ज़्यादा निंदनीय भी है।’ ऐसे कई मामले न्यायालयों में एक लम्बी समय सीमा से लंबित पड़े हुए हैं, जिनमें न्याय मिलने की आस में उनके परिवारों की दो-दो पीढियां खत्म हो चुकी हैं।
पिछड़े राज्यों में और बुरी है यह स्थिति
यूं तो जातिगत भेदभाव की जड़ें भारतवर्ष की संस्कृति में प्रारम्भ से ही बसी हुई हैं परंतु फिर भी विकास योजनाओं से वंचित देश के पिछड़े कहे जाने वाले राज्यों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्थिति ज़्यादा भयावह है।
आंकड़ों के अनुसार, अदालतों में एक लम्बे समय से लंबित पड़े कुल 96 प्रतिशत मामले भारत के 28 राज्यों में से केवल 6 राज्यों से हैं, जबकि बाकी के 4 प्रतिशत मामले शेष 22 राज्यों से हैं।
जनसंख्या की दृष्टि से सबसे सघन राज्य उत्तरप्रदेश इस मामले में सबसे आगे है। इसके साथ-ही-साथ महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात तथा उड़ीसा ये कुल छह राज्य ऐसे हैं, जहां देश में जातिगत भेदभाव एवं प्रताड़ना के मामले सबसे ज़्यादा हैं।
केवल यूपी (उत्तर प्रदेश) में ही 26 हज़ार ऐसे मामले हैं, जो पिछले 30 सालों से अदालतों में लंबित हैं। सम्पूर्ण भारत के 66 हज़ार मामले ज़िला अदालतों में पिछले 30 साल से लंबित हैं जबकि 60 लाख ऐसे मामले हैं, जो 5 सालों से किसी-न-किसी अदालत में लंबित हैं।
समय से न्याय ना मिल पाना दे रहा है भेदभाव को बढ़ावा
‘निडर व्यक्ति निरंकुश हो जाता है।’ यह पंक्ति यूं तो सदैव सही नहीं होती है परंतु लोकतंत्र में यह पंक्ति सदैव कारगर साबित होती है। शायद यही वजह है कि लोकतंत्र में मज़बूत विपक्ष के होने का महत्व बताया गया है, क्योंकि कमज़ोर विपक्ष के होने पर शासक निरंकुश हो जाता है।
जातिगत भेदभाव के मामलों में भी ठीक यही स्थिति है। असल में अदालतों द्वारा मामलों को टालने के कारण लोगों के दिमाग में यह बात बैठ चुकी है कि अदालतें कुछ नहीं करेंगी, उन्हें सज़ा नहीं मिलेगी और इसका परिणाम है कि शोषक वर्ग बिना किसी सज़ा के भय से आज भी कमज़ोर और वंचित लोगों को शोषित कर रहा है और जनजाति समूह को हर रोज़ प्रताड़ित कर रहा है।
भरण-पोषण के लिए सहनी पड़ती हैं जातिगत टिप्पणियां
हमारे देश की आज़ादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की जीवनचर्या में नाममात्र का भी बदलाव नहीं आ पाया है। वे आज भी अपने भरण-पोषण एवं अपने परिवार के पालन के लिए बंधुआ मज़दूर बनकर जीवन जीने को मज़बूर हैं।
आज भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में तथाकथित उच्च तबके के लोग इन समुदायों के निम्न एवं कमज़ोर लोगों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव करते हैं तथा अपने घरों और खेतों में काम करवाने के दौरान उनके घर की महिलाओं का यौन शोषण करने से भी परहेज़ नहीं करते हैं।
जठराग्नि (पेट की आग) ऐसी आग है, जो व्यक्ति को कुछ भी सहने को मज़बूर कर देती है, जिसका परिणाम यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सेठ और जमींदार लोग इन लोगों को शोषित कर रहे हैं। यदि कोई व्यक्ति थोड़ी हिम्मत करके इन का विरोध भी करता है, तो कानून और प्रशासन को अपनी जेबों में लेकर बैठे ये लोग उल्टे उन्हें ज़्यादा प्रताड़ित करते हैं।
जातिगत भेदभाव विकास में भी है बाधक
हमारा देश भारत यदि आज भी विकसित राष्ट्रों की सूची में नहीं आ पाया है, तो कहीं-ना-कहीं उसका एक प्रमुख कारण जातिगत भेदभाव भी है। देश में जातिगत भेदभाव की स्थिति यह है कि ‘कई बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में ऐसे तमाम केस उभरकर आते हैं कि अछूत जाति का बताकर कर्मचारी को नौकरी से निकाला।’
आखिर कहीं-ना-कहीं कर्मचारी अपने आपको इस स्थिति में बहुत असहज महसूस करता है तथा उसे कभी भी अपमानित हो जाने का डर सताता रहता है। ऐसे में एक डरा हुआ कर्मचारी कंपनी के लिए अपना शत-प्रतिशत किसी भी स्थिति में नहीं दे पाता है। यही कारण है कि कई बड़ी कंपनियां जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए सभी कर्मचारियों को एक साथ बैठाकर पार्टी ऑर्गेनाइज करती हैं, ताकि लोगों के मन में से एक-दूसरे के प्रति जातिगत भेदभाव खत्म हो सके।
मानवाधिकार आयोग ने जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए बढ़ाए हैं कदम
देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के मानवाधिकारों के लगातार उल्लंघन को देखते हुए मानवाधिकार आयोग ने सरकार और न्यायालय को इस विषय में संज्ञान लेने के लिए कुछ सुझाव दिए हैं।
पी सी आर अधिनियम के कार्यान्वयन पर सलाह देते हुए ए के श्रीवास्तव (मुख्य सचिव,मानवाधिकार आयोग) ने कहा है कि,
*नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 को पूर्णतः सख्ती के साथ लागू किया जाए।
*अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
*अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1995 के तहत 30 दिन के अंदर प्रताड़ना की जांच की जाए और दोषी पर कार्यवाही की जाए।
*अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम 1995 नियम 12 (1) के तहत प्रताड़ित हुए अभियुक्त को राहत राशि का तुरंत भुगतान किया जाए।
*अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम 1989 के तहत लंबित मामलों के ज़ल्द निवारण हेतु विशेष अदालतों की व्यवस्था की जाए।
*अधिनियम 1989 के तहत जातिगत भेदभाव मिटाने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियान और सेमिनार आयोजित किए जाएं।
*अधिनियम 1989 के तहत इस मामले में उच्च स्तर पर ज़िम्मेदारों के संलिप्तता की कारणों की समीक्षा की जाए।
यदि उपयुक्त सभी कानूनों को कठोरता पूर्वक न्यायालयों द्वारा संज्ञान में लाया जाए तो संभव है कि देश में जातिगत भेदभाव की स्थिति में काफी बदलाव आए और देश के विकास में बाधक इस जातिगत भेदभाव की भयावह समस्या से छुटकारा मिल पाए।
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नोट- कृष्ण कांत त्रिपाठी, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवम्बर 2021 बैच के इंटर्न हैं। वर्तमान में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हॉस्पिटैलिटी एवं मैनेजमेंट कोर्स में अध्ययनरत हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, वर्तमान में देश में बढ़ती हुई जातिगत विभेदता, इसके मुख्य कारकों एवं देश की अदालतों में अनिश्चितकाल के लिए लंबित पड़े न्यायिक मामलों, देश की लचर और कमज़ोर न्याय कार्यप्रणाली पर प्रकाश डाला है।