नवरात्र चल रहें हैं! देश के अलग-अलग राज्यों व शहरों में दुर्गा पूजा बड़े ही धूमधाम से की जा रही है लेकिन पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है और सबसे खास बात यह है कि इसी क्षेत्र में सबसे अधिक देवी के मंदिर हैं और दूसरी तरफ इसी राज्य में हमारे महाद्वीप का सबसे बड़ा वेश्यालय भी मौजूद है।
ये समझना कितना मुश्किल है, जहां एक तरफ औरत रूपी देवी की पूजा होती है, तो वहीं दूसरी तरफ एक औरत अपने देह का व्यापार करती है। दुर्गा पूजा के दौरान इन्हीं वेश्यालय की गलियों की मिट्टी से दुर्गा मूर्ति का निर्माण किया जाता है। इस मिट्टी के बिना मूर्ति अधुरी रहती है।
जहां एक तरफ इन वेश्यालयों की मिट्टी को पवित्र माना जाता है, वहीं दूसरी ओर यहां रहने वाली औरतों को अपवित्र माना जाता है, जिसके साये मात्र से हम अपने आस-पास का वातावरण अशुद्ध मानते हैं। मन घृणा से भर जाता है।
मेरा एक सवाल है इस समाज से जब एक मर्द दूसरी औरत के पास जाता है, तो वो पवित्र और समाज में रहने लायक होता है। अगर एक औरत ऐसा करे, तो वो बदनाम और अपवित्र क्यों हो जाती है?
भारत में वेश्यावृति आज से नहीं, बल्कि कई सदियों से चली आ रही हैं। वेद-पुराणों में उल्लेख मिलता है कि अप्सरा देवलोक में नृत्य और संगीत के माध्यम से देवताओं का मनोरंजन करती थी। इन अप्सराओं का इस्तेमाल संत ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए किया जाता था।
उस वक्त भी इन्हे एक देवी के समान दर्जा नहीं दिया गया था। इनका एक अलग लोक था, गंधर्वलोक! इन्हें वहीं रहना पड़ता था। प्राचीन भारत की बात करें, तो राजदरबार में भी कुछ महिलाएं होती थीं, जो नृत्य और संगीत से राजा का मनोरंजन करती थी, जिसे आज हम तवायफ कहते हैं। वे हालातों के आगे इतना मजबूर हो गई हैं कि उन्हें अपना जिस्म बेचना पड़ रहा है।
“वेश्या पैदा नहीं होती है, बनाई जाती है या खुद बन जाती है।” यह मंटो की महज़ एक लाइन नहीं है, यह वो हकीकत है जो आपसे और आपकी सोच से कोसों दूर है। वेश्यावृति किसी औरत का शौक नहीं होता, उसकी मजबूरी उसे इस दलदल में धकेल देती है और कुछ महिलाओं को ज़बरदस्ती इसका हिस्सा बना दिया जाता है।
जहां उन्हें नफरत और हिकारत के अलावा कुछ नहीं मिलता। दुनिया के तमाम रिश्तों से दूर ना तो वे किसी की माँ होती हैं, ना बहन, ना बेटी, ना पत्नी और ना ही दोस्त! यहां तक कि उन्हें एक औरत का दर्जा तक नही मिलता है। उनकी पहचान सिर्फ ‘वेश्या’ शब्द में सिमटकर रह जाती है।
मंटो ने कहा है, “हर औरत वेश्या नहीं होती लेकिन हर वेश्या औरत होती है।” हम एक ऐसे देश और समाज में रहते हैं जहां एक औरत इतनी बेबस हो गई है कि उसको अपने देह का व्यापार करना पड़ रहा है, जिसका कोई अस्तित्व नहीं रहता है। हर दिन उसे लोगों के मुंह से गलियां सुननी पड़ रही हैं।
उर्शी (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “25 साल से मैं इस पेशे से जुड़ी हूं। वक्त और हालात ऐसे हो जाते हैं, तो यह सब करना पड़ता है। पति के एक्सीडेंट के बाद घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा था, बच्चे भी छोटे थे। पढ़ना-लिखना आता नहीं था, झाड़ू पोंछा लगाकर सिर्फ खुद का ही पेट भर सकती थे, बच्चों का नहीं।”
वो आगे कहती हैं, “काम की तलाश में इधर-उधर घूमते थे तो एक आंटी ने कहा काम चहिए तुम्हें तो शाम को इस पार्टी के साथ जाना है। 1000-2000 रुपयों का हमें लालच दिया जाता था। अब जिसको कुछ सालों से 50-100 रुपए देखने को नहीं मिले, तो वह इतने पैसे देखकर खुश हो जाता है। ऐसे हालात में इंसान इस धंधे में आ जाता है, क्योंकि उन्हें बाल बच्चे भी पालने हैं। अधिकतर सेक्स वर्कर्स की यही कहानी है।”
उर्शी आगे कहती हैं कि जब बच्चों को यह पता चलता है कि उसकी माँ एक सेक्स वर्कर है, तो उन्हें शर्म आती है और कहते हैं, “इससे अच्छा होता हमें ज़हर देकर मार दिया होता तो आज यह सब हमें देखने को नहीं मिलता।”
अजमेर में सेक्स वर्कर्स के उत्थान के लिए काम करने वाली सुल्ताना कहती हैं कि कुछ महिलाएं होती हैं, जिनके पति कुछ नहीं करते हैं। वे अपने परिवार और बच्चों से छिपकर यह काम करती हैं और कुछ महिलाओं के पतियों को मालूम रहता है। वे शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं और खुद कहते हैं, “जा धंधा करके आ।” हम अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि देवी जैसी इन औरतों की स्थिति कैसी होती होगी?
कोविड-19 के दौरान सेक्स वर्कर्स की ज़िन्दगी ठहर सी गई है। इनकी एक बड़ी संख्या भुखमरी की तरफ बढ़ रही है। इनकी ज़िंदगी बद-से-बदतर हो रही है। इनके पास ना खाने के लिए खाना है और ना ही राशन खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे! सरकारी मदद की तो बात ही छोड़ दीजिए। उर्शी कहती हैं, “हमें अपने छोटे-छोटे जेवर और घर का सामान बेचकर 2 वक्त की रोटी नसीब हुई।”
सुल्ताना कहती हैं, “एआईएनएसडब्ल्यू (NINSW) संस्था से बीच-बीच में मदद होती रही है। बाकी किसी ने हमारी स्थिति जानने की कोशिश नहीं की। हम मर रहे हैं, तो मर रहे हैं।”
मैं उन औरतों के बारे में सोच रही हूं, जो उम्र के एक पड़ाव के बाद उन्हें इस पेशे से अलग कर दिया जाता है और तब उनके पास गुज़ारे के लिए कुछ नहीं होता है। इसी के चलते कुछ भीख मांगकर अपना पेट भरती हैं, तो कुछ यूं हीं भटकती रहती हैं। इनके लिए किसी भी तरह की कोई सरकारी नीतियां नहीं बनाई गई हैं।
10 मार्च 2014 को ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स ने एक संगठन बनाकर देश के 16 राज्यों में एक कैंपेन चलाई थी। इस कैंपेन में 90 सेक्स वर्कर्स शामिल थीं। वे सरकार और देश का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहती थीं कि समाज के बाकी लोग जिस तरह काम और रोज़गार करते हैं, उन्हें सम्मान दिया जाता है मगर हमें नहीं!
हम भी दूसरे कामों की ही तरह देह व्यापार करते हैं, इसलिए हमें भी दूसरे कर्मचारियों की तरह पेंशन मिलनी चाहिए और यौन कार्य को भी सार्वभौमिक पेंशन योजना के तहत लाया जाना चाहिए। हालांकि इनकी किसी भी मांग को अभी तक पूरा नहीं किया गया है।
इसी सिलसिले में उर्शी ने कहा, “जैसे एक वकील का पेशा होता है, वैसे ही यह हमारा पेशा है। रोज़गार है हमारा! जब एक किसान मज़दूर आवाज़ उठाता है, तो सबका ध्यान उन पर जाता है, तो हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों?”
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 30 लाख से अधिक महिलाएं देह व्यापार में लिप्त हैं, जिनमें 36 प्रतिशत महिलाएं वे हैं, जो 18 वर्ष से पहले इस पेशे से जुड़ गई थीं।
वहीं, ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2 करोड़ सेक्स वर्कर्स हैं, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस पेशे में शामिल हैं।
खूबसूरती में खुलूस होना नामुमकिन है।
बदसूरती हमेशा पुर-ख़ुलूसहोती है।- इस्मत चुग़ताई
पश्चिम बंगाल में स्थित सोनागाछी (कोलकात्ता) एशिया का सबसे बडा रेडलाइट एरिया माना जाता है। इसके बाद मुंबई में स्थित कमाठीपुरा, दिल्ली में स्थित जीबी रोड, ग्वालियर में स्थित रेशमपुर, नागपुर स्थित गंगा-जमुना, आगरा में स्थित कश्मीरी मार्केट, इलाहबाद में स्थित मीरगंज, पुणे में स्थित बुधवार पेठ, मेरठ में स्थित कबाड़ी बाजार आदि ये सभी वेश्यावृति के लिए प्रसिद्ध हैं।
मैं शहर-शहर घूमती रही
एक ऐसा शहर ढूंढती रही,
जहां जिस्म का व्यापार ना हो
अफ़सोस! मैं नाकाम रही।
नोट: शिप्रा, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवंबर 2021 बैच की इंटर्न हैं।