“तू कल भी काला था और आज भी काला ही है।” इश्क़ फिल्म का यह एक डायलॉग सुनकर हंसी आई? मुझे भी आई थी लेकिन कई बार ऐसा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से देखने को मिलता रहा है हिंदी सिनेमा में जब हम फिल्म के भाव से बाहर आते हैं, तो पता चलता है कि यह एक कामेडी डायलॉग नहीं, बल्कि ‘नस्लवाद’ यानि कि रेसिज़्म है।
इस डायलॉग में रंगभेद साफ-साफ दिखता है। मसला यह है कि यह एक फिल्म की कहानी या डायलॉग भर नहीं है, बल्कि हर घर, मुहल्ले, परिवार, स्कूल, कॉलेज की कहानी है। जिस प्रकार यह इतिहास में दर्ज़ है, उसी प्रकार वर्तमान में यह उभरकर दिखता भी रहा है।
हम कहते हैं फिल्में समाज का आईना होती हैं और सुना है आईना सच का प्रतिबिंब है। ठीक उसी प्रकार हिंदी सिनेमा ने भी झूठ नहीं बोला! समाज की बनी हुई धारणा को ना तो बदलना चाहा, बल्कि उसे खूब लाइम लाइट भी प्रदान किया और समाज की इन धारणाओं से उसे प्रोत्साहन भी प्रदान किया।
आप याद कीजिए कितनी बार आपने अपने किसी दोस्त को ‘कालिया’, ‘गोरिल्ला’, ‘कालू’ और ‘भैंस’ जैसे उपनामों से संबोधित किया और खूब हंसी भी उड़ाई, बल्कि सुनने वाले भी हंसे होंगे और अभी भी घरेलू स्तर पर शादी इस बात पर अटक जाती है कि लड़की या लड़का गोरा नहीं है। कुछ वाक्यांश जो मैने इस संबंध में सुने हैं-
अरे! काले लड़के से शादी मत करो, बच्चे काले पैदा होंगे।
तू अपनी काली जुबान बंद रख।
अरे पिंक कलर क्यों ले रहे हो, वो काला/काली है, उस पर अच्छा नहीं लगेगा।
ना जाने ऐसे कितने ही कथन समाज के हिस्से हैं। क्या ये सभी एक परंपरागत कथन मात्र हैं? क्या ये उत्पीड़न के तरीके नहीं हैं कि हम किसी को काला इसलिए बोलते हैं, क्योंकि उसकी त्वचा गोरी नहीं है। हमें यह समझना चाहिए कि इसमें उसका या किसी और का कोई रोल नहीं है और यही झलक हिंदी सिनेमा में सालों से देखने को मिलती आ रही हैं।
जैसे- लगभग हर फिल्म में हिरो/हिरोइन का गोरा होना और नकारात्मक रोल अदा करने वाले का काला होना और तो और यदि कोई फिल्म इस प्रकार है, जिसमें काले लोगों का रोल निभाना भी है तो भी फेयर फेस वाले को ही उस रूप में मेकअप करके उनसे ही वो (काले कैरेक्टर) रोल अदा करवाना है!
उड़ता पंजाब याद है?
एक फिल्म जिसका नाम है ‘उड़ता पंजाब’ जिसमें पिंकी (आलिया भट्ट) एक बिहारी प्रवासी के रूप में हैं, जो पंजाब मज़दूरी करने आई हैं। फिल्म में पिंकी (आलिया भट्ट) जो एक काली और गरीब लड़की के रूप में चित्रित हैं, उनका फेस इसलिए काला है, क्योंकि वो गरीब हैं और बिहार से हैं।
गली ब्वॉय भूल गए?
इसी प्रकार एक और फिल्म है गली ब्वॉय, उसमें भी मुराद (रणवीर सिंह), जो एक मुम्बई की झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं इसलिए रणवीर सिंह को अपना चेहरा काला बनाना पड़ा, जिससे वो गरीब और झुग्गी में रहने वाले के जैसे लगें। क्या वास्तव में कोई काले फेस वाला इस किरदार को नहीं निभा सकता था?
ऐसी तमाम हिंदी फिल्में हैं, जिनमें आपको काले व्यक्ति का रोल हास्यास्पद और नकारात्मक दिखेगा।
शोले फिल्म को कैसे भूला जा सकता है!
फिल्म ‘शोले’ जो लगभग आज भी उतनी ही पसंद की जाने फिल्म है, जितनी पहले की जाती थी। उसमें ‘गब्बर’ का एक साथी, जिसे केवल उसके फेस के कारण ‘कालिया’ नाम से बुलाया जाता था। (यहां फिल्म की कास्टिंग पर कोई प्रश्न नहीं है।)
हिंदी सिनेमा में काले लोगों को नकारात्मक केवल डायलॉग या नाम से ही नहीं फिचर किया गया है, बल्कि सिनेमा के एक अहम भाग संगीत में भी यह बार-बार दिखता रहा है।
गोरी हैं कलाइयां।
गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा।
चिटिया कलाईयां वे।
गोरीया चुरा ना मेरा जिया।
गोरे रंग पर ना इतना गुमान कर गोरा रंग तेरा ढल जाएगा।
काले लोगों के प्रति एक अलग धारणा बनाने में संगीतों ने भी अपनी अहम भूमिका निभाई है। इन सभी धारणाओं और फिचर के कारण समाज में हिरोईक (जैसे फिल्मों में हीरो/हीरोइन दिखती हैं) रूप में दिखने की होड़ मच जाती है, जिसमें हिंदी सिनेमा के कलाकारों ने जाने-अंजाने में खूब समर्थन दिया। यह विज्ञापनों में अक्सर देखने को मिलता ही रहता है।
जैसे- एक लड़का/लड़की, जो लड़की/लड़के पर अपना प्रभाव डालने का प्रयास करते हैं, उन्हें लकड़ियों/लड़कों की तरफ से कोई आकर्षण नहीं मिलता है, तभी एक फिल्मी एक्टर/एक्ट्रेस का आगाज़ होता है और एक विशेष प्रकार की फेस क्रीम दी जाती है, जिसे लगाते ही वो बिल्कुल गोरे/गोरी हो जाते हैं, जिससे वे सभी (जिसे वे आकर्षित करना चाहते हैं) उनकी ओर आकर्षित होने लगते/लगती हैं।
ऐसा कई बार विज्ञापनों में आज भी देखने को मिल रहा है, जहां हिंदी सिनेमा में काले लोगों को हमेशा नकारात्मक (गरीब, बेसहाय और खराब सकल वाला) रूप में फिचर किया जाता है। सिनेमा हमेशा लोगों की दिलचस्पी को ध्यान में रखकर बनाया जाता है और लोगों की दिलचस्पी उसके सामाजिक विन्यासों से ही बनती हैं।
‘काला दिवस’ भी इत्तेफाक नहीं!
हम सबने क्रिकेट लगभग देखा ही होगा। अभी तो आईपीएल भी चल ही रहा है, जिसमें देश-विदेश के सभी खिलाड़ी उपलब्ध रहते हैं। कई बार कैरेबियाई अथवा कुछ अफ्रीकी खिलाड़ियों को हम देखकर इसलिए हंसते हैं, क्योंकि वे काले हैं और हमारी ये प्रतिक्रिया उन्हें देखकर अपने आप बन जाती है, क्योंकि व्यवहार में हमें ऐसा दिखाया अथवा बताया जाता रहा है।
जैसे धार्मिक धारावाहिकों में राक्षसों का काला रहना उनके कपड़े काले रहना, काली बिल्ली का सामने से जाने पर बुरा होना, ये सभी फैक्टर हमारी मानसिकता को कितना प्रभावित करते हैं, इसका कोई डेटा उपलब्ध नहीं है लेकिन हिंदी सिनेमा ने जिस प्रकार से इसे प्रोजेक्ट किया है, वह छुप नहीं सकता है।
आज हमारे देश में ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर चर्चा ज़ोरों पर हैं। इसमें भी ऐसी कई सारी घटनाएं हैं, जिन्हें काले दिवस के रूप में जाना जाता है। जैसे- जब भी भारत में इमरजेंसी का ज़िक्र होता है, उसे काले दिवस के तौर पर याद किया जाता है। इन सभी सामाजिक विन्यास के चलते हिंदी सिनेमा ने भी खुद को अलग नहीं रखा और काले लोगों को अक्सर नकारात्मक तौर पर फिचर किया गया है। इन सबके बीच निश्चित रूप से इस भेद को मिटाने के लिए हिंदी सिनेमा ने कई प्रयास भी किए हैं।