हम एक ऐसे युवा देश भारत की बात कर रहे हैं, जहां 4 करोड़ से अधिक युवा कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अध्ययन करते हैं। इसी देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आजकल पठन-पाठन से ज़्यादा नारों की आवाज़ आती है और अधिकांश विद्यार्थी अपनी कक्षाओं में अध्ययन करने के बजाय सड़कों पर ज़्यादा विरोध-प्रदर्शन करते दिखते हैं और पढ़ाई से ज़्यादा एक-दूसरे से विचारधाराओं की लड़ाई होती है।
व्यवस्था से युवावस्था का टकराव आम बात है। यदि हम बीते कुछ समय को याद करें तो विश्वविद्यालयों की व्यवस्था का विद्यार्थियों ने कई बार पुरजोर विरोध किया है जिसके चलते देश की मुख्यधारा की राजनीति में छात्र आंदोलनों और प्रदर्शनों की खूब चर्चा भी हुई है। इस दौरान हमें जेएनयू, आईआईएमसी, आईआईटी बॉम्बे और उत्तराखंड के प्राइवेट आयुर्वेदिक कॉलेजों में फीस बढ़ोतरी को लेकर छात्रों के जबरदस्त प्रदर्शन देखने को मिले। नागरिकता कानून के खिलाफ छात्रों के प्रदर्शन के दौरान जामिया विश्वविद्यालय में हुई हिंसक घटनाओं को कौन भूल सकता है और बीएचयू में मुस्लिम प्रोफेसर का मामला भी शायद ही कोई भूल पाएगा।
छात्रों को पढ़ाई करनी चाहिए, आंदोलन नहीं
जब भी इस देश के किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज में विद्यार्थी अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन या आंदोलन करते हैं तो अक्सर हमें यह बात सुनने को मिलती है कि ‘विद्यार्थी विश्वविद्यालयों में पढ़ने आते हैं, आंदोलन करने नहीं।’ इस कथन के बारे में जब हमने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मानवेश नाथ दास से बात की तो उन्होंने हमें बताया कि उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विद्यार्थियों का प्रथम उद्देश्य शिक्षा ग्रहण करना है लेकिन वर्तमान में खराब व्यवस्था और संसाधनों की कमी के खिलाफ अगर विद्यार्थी प्रदर्शन करते हैं तो यह उनका अधिकार भी है। विद्यार्थियों को आंदोलन की सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए वरना विरोध विद्रोह की शक्ल ले लेता है।
विश्वविद्यालय सिस्टम की खुशहाली या बदहाली
हमें छात्र प्रदर्शनों और आंदोलनों में एक नारा हमेशा सुनने को मिलता है, ‘कुलपति हटाओ’ ‘विश्वविद्यालय प्रशासन मुर्दाबाद’ भी एक आम नारा है। इन नारों से लगता है कि प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों की सीधी लड़ाई सिस्टम और सिस्टम के मुखिया से है। विश्वविद्यालय प्रशासन का अमूमन कहना होता है कि कुछ ही विद्यार्थी अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, इनका पढ़ने-लिखने से कोई नाता नहीं है। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों को किसी भी तरह की समस्या नहीं है। प्रशासन के इस बयान के बाद विद्यार्थी प्रदर्शनों को सीमित कर दिया जाता है। विचारधारा, सिस्टम और सिस्टम के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों की भी होती है। आखिर लोकतांत्रिक देश में लड़ाई विचारधारा की ही है।
क्या छात्र आंदोलनों के पीछे राजनीतिक विचारधाराओं का हाथ है?
विद्यार्थी आंदोलनों की संख्या में लगातार होती बढ़ोतरी कई तरह के सवाल भी खड़े करती है जैसे प्रदर्शनकारी छात्रों को फंडिंग हो रही है? लड़ाई विद्यार्थियों हितों के लिए नहीं बल्कि विचारधाराओं की हो रही है? छात्र आंदोलनों के पीछे राजनीतिक पार्टियों का हाथ हैं? इन सवालों को जब हमने प्रोफेसर मानवेश नाथ दास के सामने रखा तो उन्होंने हमें बताया कि छात्र आंदोलनों के परदे के पीछे की कहानी कुछ और ही है।
छात्र आंदोलन के नाम पर राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटी सेंकने का काम करती हैं। पिछले कुछ आंदोलनों की जांच पड़ताल में यह बात स्पष्ट भी हुई है कि विश्वविद्यालयों में देश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों के छात्र संगठन सक्रिय हैं, जो छात्र आंदोलनों के नाम पर पार्टी के एजेंडे को सिद्ध करने का काम कर रहे हैं। छात्र संगठनों की विश्वविद्यालयों के भीतर अंदरूनी लड़ाई सदाबहार ही है।
आज के दिन जेएनयू, डीयू और देश के कई विश्वविद्यालयों में कॉलेजों को खोलने को लेकर कई छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर बीते कुछ समय में छात्र आंदोलनों का मुख्य चेहरा रहे जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं और यह रिपोर्ट भी लिखी जा रही है कि यह एक ऐसा संयोग है, जिसमें छात्र आंदोलनों की वर्तमान स्थिति, भविष्य और इतिहास तीनों को आसानी और बारीकी से समझा जा सकता है।
नोट- मनोज, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-अक्टूबर 2021 बैच के इंटर्न हैं। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के मास कॉम के कोर्स में अध्ययनरत हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, वर्तमान में हमारे देश के विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों की विचारधारा की विद्यार्थियों में सक्रियता की ओर प्रकाश डाला है।