Site icon Youth Ki Awaaz

छत्तीसगढ़: आज़ादी के 75 सालों बाद भी स्वच्छ जल से वंचित हैं आदिवासी समुदाय

आज़ादी के 75 सालों के बाद भी स्वच्छ जल से आज भी वंचित हैं आदिवासी समुदाय

आधुनिकता के इस दौर में जब शहर के तकरीबन हर दूसरे-तीसरे घर में लोग आरओ का फिल्टर पानी पीते हैं तो वहीं देश के ग्रामीण इलाकों में कुछ ऐसे भी गाँव हैं, जहां वर्षों से सरकारी तंत्र की अनदेखी के कारण लोगों को पीने के लिए साफ पानी तक नसीब नहीं हो रहा है।

सरकार द्वारा पेयजल को लेकर प्रति वर्ष लाखों रुपया खर्च ज़रूर किया जाता है लेकिन इसका लाभ देश में ग्रामीण अंचल को मिल रहा है या नहीं, इसकी निगरानी व्यवस्था अब भी पूर्णरूप से कमज़ोर है। मसलन छत्तीसगढ़ के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासी परिवार आज भी पीने के साफ पानी जैसी अपनी मूलभूत आवश्यकता के अभाव में पीढ़ियों से अपना जीवन जीते आ रहे हैं।

रोज़ाना सूरज के उजाले के साथ घर की महिलाएं हाथ में पानी का बर्तन लिए एक किलोमीटर पैदल चलकर नदी किनारे पहुंचती हैं फिर झरिया (नदी किनारे की ज़मीन) खोदकर प्यास बुझाने के लिए पानी निकालती हैं। वह पानी भी साफ नहीं रहता है, इसीलिए वे उस पानी को घर ले जाकर पहले उसको छानती हैं और फिर पीने लायक बनाती हैं।

यह स्थिति है छत्तीसगढ़ में दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा ज़िला स्थित पोंदुम ग्राम पंचायत के बुरकापारा क्षेत्र की है, जो आज देश की आज़ादी के सात दशक बाद भी पीने के साफ पानी के लिए तरस रहा है। यहां आज तक कोई भी सरकार ग्रामीण आदिवासियों के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था नहीं करा पाई है।

दंतेवाड़ा ज़िला मुख्यालय से महज़ 11 किलोमीटर की दूरी पर लगभग 3 हज़ार की जनसंख्या वाला गाँव है पोंदुम। यह गाँव दो भागों में बंटा हुआ है, जिसमें पोंदुम 1 तथा पोंदुम 2 क्षेत्र हैं। गाँव के आधे हिस्से में तो पेयजल की व्यवस्था थोड़ी ठीक-ठाक है लेकिन पोंदुम 2 के बुरकापारा क्षेत्र में पेयजल की कोई भी व्यवस्था नहीं है। 

तीन तरफ से घिरे हुए गाँव के एक भाग में डंकनी नदी, दूसरी तरफ एक नाला और तीसरी तरफ रेल पटरी है। ग्रामीण यहां से पानी लाने या तो डंकनी नदी जा सकते हैं या फिर रेलवे पटरी को पार करके मौजूद एक हैंडपंप तक पहुंच सकते हैं लेकिन उसके लिए भी उन्हें एक से डेढ़ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। अन्य मौसम में तो ग्रामीण नदी के पानी से जैसे-तैसे अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेते हैं लेकिन बारिश के मौसम में जब नदी का पानी बहुत गंदा होता है तो उनके सामने यह समस्या और विकराल हो जाती है। इसलिए यहां के लोग बरसात के दौरान घर की छप्पर से गिरने वाले पानी को बर्तनों में इकट्ठा करके पीने के लिए उपयोग में लाते हैं।

इस तरह से बुरकापारा में 30 आदिवासी परिवारों के लगभग 90-100 लोग रोजाना पानी की जद्दोजहद में लगे रहते हैं, बावजूद उन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल पाता है तो दूसरी तरफ गंदा पानी पीने से उनके स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

वर्तमान में स्थिति यह है कि पानी की तलाश में गाँव की 60-70 वर्षीय वृद्ध महिलाओं को भी अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी लाने नदी जाना पड़ता है। बुरकापारा की वार्ड पंच मंगों मण्डावी के साथ-साथ अन्य महिलाएं आयते मण्डावी, बुधरी, लक्में और पायकों ने बताया कि हमारे क्षेत्र में एक भी हैंडपंप नहीं है। इसलिए पानी के जो भी स्रोत हैं, वे यहां से बहुत दूर हैं। 

महिलाओं ने बताया कि रोज़ाना हम लगभग एक किलोमीटर से ज़्यादा दूर जाकर पानी लाते हैं। नदी का पानी कभी-कभी थोड़ा साफ रहता है तो कभी बहुत गंदा, फिर भी हम मज़बूरी में उसी पानी का उपयोग करते हैं। बुरकापारा निवासी एवं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता लक्ष्मी मण्डावी कहती हैं कि हमें पानी की बहुत ही ज़्यादा समस्या है। हमें घर की हर ज़रूरतों के लिए नदी से ही पानी लाना पड़ता है और पानी लाने में ही हमारे दिन का आधा समय चला जाता है। मैं उसके बाद ही अपना आंगनबाड़ी का कार्य कर पाती हूं। इससे हमें शारीरिक थकान के साथ- साथ मानसिक थकान भी बहुत होती है और पीने के लिए स्वच्छ पानी नहीं मिलने से विभिन्न बीमारियों का खतरा भी बना रहता है।

वहीं इस समस्या के संबंध में पोंदुम पंचायत के सरपंच भानुप्रताप कर्मा ने बताया कि बुरकापारा क्षेत्र में 5 बार बोर खनन (बोरिंग) का कार्य किया जा चुका है लेकिन इस इलाके में ज़मीन के अंदर चट्टान होने के कारण बोर खनन में पानी नहीं निकलता है। इसलिए यहां पानी की समस्या है, जबकि गाँव के अन्य जगहों में पानी के लिए हैंडपंप लगाए हुए हैं।

उन्होंने आगे बताया कि पंचायत को नलजल योजना के लिए राशि मिल गई है, कोरोना का प्रकोप कम होने पर हम पाइप लाइन के द्वारा एक स्थान पर टंकी बनाकर पानी पहुंचाने का कार्य शुरु करेंगे। पेयजल के अभाव पर बात करते हुए स्थानीय कुम्मा मण्डावी ने बताया कि बुरकापारा के साथ-साथ गाँव के अन्य जगहों अलीकोंटा, घोरकुट्टा और दरशाबलुम गाँव के लोग भी नदी के पानी का उपयोग करते हैं।

पेयजल के लिए सबसे ज़्यादा महिलाओं को परेशानी उठानी पड़ती है, क्योंकि घर का सारा काम वही करती हैं। उन्होंने बताया कि हमारी इस भयावह समस्या से ज़िला कलेक्टर को भी अवगत कराया जा चुका है। उनके आदेश के बाद एक हैंडपंप खनन गाड़ी आती है। एक जगह खोदकर देखती है और पानी नहीं निकलने पर चली जाती है। इस तरह सालों से हमारी यह समस्या जस-की-तस बनी हुई है। उन्होंने बताया नदी से भी पाइप लगाकर पानी यहां तक पहुंचाया जा सकता है लेकिन स्थानीय प्रशासन ने वह भी नहीं किया है।

इस संबंध में दंतेवाड़ा ज़िले के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के सहायक अभियंता देवेन्द्र आर्मो ने बताया कि पोदुंम के बुरकापारा क्षेत्र ड्राई जोन में आता है, इसलिए वहां बोर खनन सफल नहीं हो रहा है। हालांकि, एक पुराने हैण्डपंप को फिर से शुरू करने का प्रयास किया जा रहा है। हमारी तकनीकी टीम ने वहां दौरा कर काम भी शुरू कर दिया है। इसके अलावा पाइपलाइन से पानी पहुंचाने की भी वहां कार्य योजना तैयार की गई है, जिस पर ज़ल्द  ही टेंडर की प्रक्रिया भी पूरी की जाएगी।

छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा स्थित पोदुंम गाँव का बुरकापारा ही ऐसा एकलौता स्थान नहीं है, जहां पेयजल का अभाव हो बल्कि राज्य में कई ऐसे गाँव हैं, जहां लोग बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं और ग्रामीण नदी-नाले का दूषित पानी पीने को मज़बूर हैं। बस्तर ज़िले के नारायणपुर विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले ग्राम पंचायत कुंगारपाल, भालूगुड़ा पारा में निवासरत लगभग 400 परिवार भी झरिया का पानी पीने को विवश हैं, क्योंकि गांव में पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं है।

इसी तरह कांकेर ज़िले के ग्राम पंचायत लोहतर के आश्रित ग्राम पिड़चोड़ के स्कूलपारा के ग्रामीण मुहल्ले में भी हैंडपंप नहीं होने के कारण महिलाएं रोज़ाना एक किलोमीटर दूर स्थित कुएं से पानी लाती हैं। उन्होंने प्रशासन को पेयजल समस्या के समाधान के संबंध में आवेदन किया है लेकिन किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है।

देश का कोई भी राज्य या गाँव हो, 21वीं सदी में भी लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलना दुर्भाग्य है। ऐसे हालातों को देखकर सरकार के सर्वांगीण विकास के दावे पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है। भारत सरकार की जल जीवन मिशन वेबसाइट के अनुसार, प्रदेश में 19 हज़ार से ज़्यादा गाँव हैं, जिनमें से 6 हज़ार से ज़्यादा गाँवों में पाइप लाइन वाटर कनेक्शन नहीं हैं।

वहीं 61 फीसदी गाँवों में ही कनेक्शन काम कर रहे हैं। इस रिपोर्ट की मानें तो प्रदेश के तकरीबन 13 हज़ार 900 से ज़्यादा गाँवों में कनेक्शन 100 फीसदी नहीं है यानी वहां आधे लोगों तक ही पानी पहुंच पाया है। पेयजल स्त्रोतों की गुणवत्ता को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जारी आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ का स्थान 14वां है यानी 91.1 फीसदी घरों के पेयजल स्रोतों में सुधार हुआ है।

छत्तीसगढ़ में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में पेयजल व्यवस्था ज़्यादा बेहतर नज़र आती है, जो कि 97 फीसदी तक सही है। वहीं इस मामले में राष्ट्रीय औसत 89.9 फीसदी है। इस आधार पर छत्तीसगढ़ का औसत राष्ट्रीय औसत से 2 फीसदी तक ज़्यादा है।

हालांकि, यदि हम ज़मीनी हकीकत देखें तो वह सरकार के आंकड़ों से मेल नहीं खाती है, जबकि केन्द्र सरकार की जल जीवन मिशन एवं राज्य सरकार की अमृत मिशन जैसी योजनाएं केवल पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ही चलाई जा रही हैं। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ के दुर्गंम स्थानों पर रहने वाले ग्रामीणों को पीने के लिए साफ पानी का नहीं मिलना सरकार के विकास के दावों और व्यवस्था दोनों को ही कटघरे में खड़ा करता है।


नोट- यह आलेख रायपुर, छत्तीसगढ़ से सूर्यकांत देवांगन ने संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2020 के अंतर्गत लिखा है।

Exit mobile version