“आधुनिक समाज में साक्षरता आत्मरक्षा का एक बुनियादी उपकरण है। इसके बिना, बच्चे ना केवल आर्थिक तंगी के शिकार होते हैं बल्कि आजीवन शक्तिहीनता और शोषण के भी शिकंजे में रहते हैं।” यह कथन इंडियन एक्सप्रेस में “Where Is The Strategy For Dealing With Learning Loss During Covid?” विषय के साथ प्रकाशित अपने आर्टिकल में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ ने लिखा था। हम हाथ में यह आर्टिकल लिए बैठे एक अलग दुनिया में थे। हम स्कूल में थे और सीख रहे थे, समझ रहे थे, एक-दूसरे को बता रहे थे।
आज लाइब्रेरी में एक अलग रौनक थी। दरियां उठाकर नीचे की धूल हटाई जा रही थी। किताबों को सही लहज़े से लगाया जा रहा था। इंतज़ार तो था, लेकिन किसी मेहमान का नहीं। हम उन्हें मेहमान कैसे कह सकते हैं! वे तो एक प्रमुख हिस्सा हैं हमारे एनपीएस परिवार का, हमराही हैं। उनका नाम आशुतोष उपाध्याय है। वे विज्ञान की पहेलियों और हमारे मन की जिज्ञासाओं को खेल-खेल में हल करने वाले हैं जैसे ही सबने सुना कि सर आ चुके हैं, वहां बैठे सभी की आंखें चमक उठीं। हम सब की उनसे बात करने की उत्सुकता हमारी आंखों में झलकने लगी।
आखिरकार सर आ गए। कमरे की सारी खिड़कियां बंद कर दी गईं। कमरे में अंधेरा कर दिया गया लेकिन इस अंधेरे का भी अपना एक महत्व है। हम सभी जानते थे कि इस अंधेरे के कारण ही हमारा मन प्रकाशमान होगा। प्रोजेक्टर से निकली रोशनी दीवार पर टंगे पर्दे पर पड़ी। पहले ही दृश्य ने हमारी नज़रें अपनी ओर खींच ली। इंसान और बारकोड! कार्टून से हमें समझ में आया कि कैसे इस ‘आधुनिक’ दुनिया में सभी का मूल्य निर्धारित है। आज एक इंसान, इंसान से ज़्यादा बार कोड बनकर रह गया है। हमने अपनी नज़र ऊपर उठाई तो देखा “समाज, समाज व्यवस्था और शिक्षा” बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था। आज हम सब के साथ बातचीत का यही विषय था।
“समाज एक बायोलॉजिकल ट्रेट है। अधिकतर सभी जीवों में सामाजिक जीवन जीना प्राकृतिक गुण होता है।” सर ने कहा। समाज हमारी ज़रूरत है। अगर हम यह मानते हैं कि हमारा समाज से कोई ताल्लुक नहीं है और हम अकेले ही काफी हैं, तो हम सबसे बड़े भ्रम में हैं।
हमारे खाने, पीने, रहने, पहनने से लेकर बड़े-से-बड़े फैसले समग्र रूप से हमारा समाज ही तय करता है। यह बात संज्ञेय है कि समाज ‘प्राकृतिक’ होता है यानी सभी समाज एक-दूसरे से अलग होंगे। सभी की अपनी-अपनी अलग सुंदरता होगी। इस तर्ज पर हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि विविध समाजों को श्रेष्ठता का बिल्ला थमाकर वर्गीकृत करना कितना औचित्यपूर्ण है।
इस वर्गीकरण की नींव वह सोच है, जो इस बात को नकारती है कि समाज प्राकृतिक है और सामाजिक जीवन हमारा जैविक गुण है। यही सोच उस व्यवस्था को जन्म देती है, जो कुछ लोगों के भले के लिए हज़ारों का नुकसान करने को तैयार होती है। आशुतोष सर के शब्दों में – “व्यवस्था बनाने में हमेशा ताकतवर व्यक्तियों की ही चलती है। इसलिए वे अपने पक्ष में व्यवस्था बना देते हैं”। सर के अनुसार, हमारी सामाजिक व्यवस्था 4 अन्याय के स्तंभों पर टिकी है। लैंगिक, जातीय, आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव और प्रकृति के साथ भेदभाव। हमारी सामाजिक व्यवस्था में चारों तरह के भेदभाव गहराई से अपनी जड़ जमाए हुए हैं।
इस व्यवस्था की छाप आप हमारी शिक्षा प्रणाली में भी साफ तौर पर देख सकते हैं। हमारी शैक्षिक व्यवस्था “प्रिवलेज” लोगों को मौके देती है। अच्छे सामाजिक और आर्थिक स्टेटस वाले बच्चे महंगे और आलीशान स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि मज़दूर वर्ग के बच्चों के लिए खस्ता पड़े सरकारी स्कूल ही उनका आखिरी सहारा होते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का ही एक आईना है। आशुतोष सर का कहना है- “अमूमन स्कूल वैसे ही नागरिक पैदा करते हैं जिनकी एक व्यवस्था को ज़रूरत होती है।”
सुबह ज्यां द्रेज़ के आर्टिकल को पढ़ने के बाद मेरा दिमाग अलग ही मोड में था। कोरोनावायरस से बचने के लिए हुए लॉकडाउन के कारण बच्चों की शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस स्थिति को बेहतर समझने के लिए जब एक सर्वेक्षण कराया गया तब पता चला कि ऑनलाइन पढ़ाई तक सबसे अधिक दलित और आदिवासी बच्चों की पहुंच नहीं है, जिनको अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए पढ़ने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। हमें लग सकता है कि यह तो उनका व्यक्तिगत मामला है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। उनकी यह स्थिति हमारी सामाजिक व्यवस्था की ही देन है जिसने कभी उन्हें समानता के मौके ही नहीं दिए। समाज में उन्हें दोयम दर्ज़े का माना और समाज के अंतिम हाशिए पर आंका जाता है।
चाहे वह भीमराव अंबेडकर हों, ओमप्रकाश वाल्मीकि हों या हज़ारों अन्य बच्चे हों, उन्हें हर कदम पर शिक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है शायद इसलिए ज्यां द्रेज़ ने साक्षरता को “आत्मरक्षा का एक बुनियादी उपकरण” कहा है। अगर उनके पास यह उपकरण आ गया तो वे अपनी सामाजिक स्थिति में बदलाव ना भी ला सके तब भी खुद को उस निर्दयी व्यवस्था से तो बचा पाएंगे जो उनके हित की बात ही नहीं करती है।
आशुतोष सर ने कहा कि “हमारा समाज एक दूब की तरह है, जो हमारी सामाजिक व्यवस्था के अंदर गहराई तक समाई हुई है।” समाज में तभी बदलाव आ सकता है, जब वह सामाजिक व्यवस्था सभी वर्गों को समग्र रूप में स्वीकार करे और जब एक वर्ग को दूसरे वर्ग के शोषण से खुद को बचाने के लिए किसी टूल की ज़रूरत ना पड़े!!
नोट- रिया नानकमत्ता, उत्तराखंड की निवासी हैं। वे अभी नानकमत्ता पब्लिक स्कूल की कक्षा 11वीं में मानविकी की विद्यार्थी हैं। रिया को लिखना, किताबें पढ़ना, लोगों से मिलना, बातें करना, अपने आसपास की चीज़ों को एक्सप्लोर करना और बोलना बहुत पसंद है।