भगवान बुद्ध की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश का सिद्धार्थनगर ज़िले का एक छोटा सा कस्बा और तहसील डुमरियागंज है। केवल डुमरियागंज तहसील ही नहीं पूरा सिद्धार्थनगर उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े हुए ज़िलों में शुमार होता है।
डुमरियागंज और पूरे ज़िले की हालत यह है कि ‘यहां पर कारोबार का कोई साधन नहीं है और लोग केवल खेती पर निर्भर हैं, जिसकी वजह से यहां से पलायन और बेरोजगारी की समस्या हमेशा लगी रहती है।’ नेपाल बॉर्डर के साथ सटे होने की वजह से डुमरियागंज तहसील और सिद्धार्थ नगर ज़िला तस्करी के मामलों में भी अक्सर चर्चा में रहता है।
राप्ती नदी की वजह से अक्सर यहां पर बाढ़ की समस्या देखने को मिलती है। इस साल भी बाढ़ ने इस इलाके के बहुत सारी जगहों को अपनी चपेट में ले लिया था। यूं तो कहने को डुमरियागंज ‘विधानसभा सीट’ भी है और ‘लोकसभा सीट’ भी है और समाजवादी पार्टी, बीजेपी और बसपा तीनों के प्रत्याशी यहां से चुनकर आते रहे हैं मगर जब बात विकास की और इस इलाके की तरक्की करवाने की होती है, तो सभी नेता मौन धारण कर लेते हैं।
पर्यटन की खस्ता हालत
ऐतिहासिक महत्व वाले ज़िले को टूरिज्म का गढ़ होना चाहिए था, मगर टूरिज्म तो दूर की बात है यहां के रहने वाले लोग भी अपनी खस्ता हालत को देखते हुए पलायन करके दूसरे इलाकों में रोजी-रोटी के लिए चले जाते हैं, जिसमें दिल्ली और महाराष्ट्र प्रमुख हैं।
लोगों की आजीविका का एकमात्र साधन खेती है। मगर हर साल बाढ़ की वजह से किसान बदहाली के हालत में जी रहा है। सरकारों की तरफ से हज़ारों वादे और मुआवजे का ऐलान किया जाता है मगर आप जब ग्राउंड पर जाकर देखेंगे, तो आपको केवल वहां जीरो दिखाई देगा।
बात अगर पढ़ाई के मामले की जाए, तो यहां पर कोई भी बड़ा कॉलेज, स्कूल नहीं है जिसको आप शिक्षा के पैमाने पर A ग्रेड का कह सकें ठीक वैसे ही जब बात सेहत सेवाओं की होती है, तो डुमरियागंज अपनी बेबसी पर खून के आंसू बहाता है।
डुमरियागंज की राजनीति
अगर हम बात राजनीति की करें, तो ‘डुमरियागंज विधानसभा’ उत्तर प्रदेश की उन गिनी चुनी विधानसभाओं में से है, जहां पर 2012 के चुनाव में पहली बार पीस पार्टी चुनाव जीती थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के राघवेंद्र प्रताप सिंह, बीएसपी की सैयदा खातून से केवल 171 वोटों के मार्जिन से जीतकर इस इलाके की नुमाइंदगी उत्तर प्रदेश विधानसभा में करते हैं।
अगर हम ऐतिहासिक तौर पर इस जगह की बात करें, तो बेगम हजरत महल जब अपने सैनिकों के साथ नेपाल गई थी, तो उनकी फौज इसी डुमरियागंज में अमरगढ़ ताल पर रुकी थी और कुछ अर्से बाद अंग्रेज़ों की भारी-भरकम सेना के साथ यहीं पर लड़ाई हुई थी, जिसमें बेगम हजरत महल के बहुत सारे सैनिकों की मौत हो गई थी। ठीक इसी तरह मुंशी प्रेमचंद ने 7 साल तक यहां के गवर्नमेंट स्कूल में विद्यार्थियों को पढ़ाया था।
डुमरियागंज की आबादी
अगर डुमरियागंज इलाके के आबादी की बात जाए, तो 2011 की जनगणना के हिसाब से तकरीबन 30,000 के आसपास की आबादी है, जिसमें से 54 फीसद हिंदू और 43 फीसद मुसलमान हैं और बाकी आबादी दूसरे धर्मों के लोगों की है, जिसमें बौद्ध धर्म के अनुयायियों की गिनती ज़्यादा है।
अगर बात डुमरियागंज विधानसभा और तहसील की आबादी की जाए, जिसके तहत 419 गाँव आते हैं, तो यहां की आबादी लगभग आधार एस्टीमेट 2021 के हिसाब से 4,75000 के आसपास है।
यहां पर आदमी-औरत के अनुपात में भी बहुत अंतर नहीं है। तहसील की आबादी के हिसाब से यहां पर 60 फीसद आबादी हिंदू समुदाय और 38 फीसद आबादी मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखती है लेकिन खास बात यह है कि यहां पर दलितों की भी एक बड़ी गिनती 15 फीसद आबादी रहती है।
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सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि डुमरियागंज की केवल 8 फीसद आबादी ही शहरों में रहती है बाकी 92 फीसद आबादी आज भी गाँव-देहातों में निवास करती है।
आबादी के अनुपातों को अगर और आसानी से समझना हो, तो हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि हिंदुओं में एक बड़ी आबादी ब्राह्मण, ओबीसी और यादव समुदाय से संबंधित है। इसके अलावा दलित भी अच्छी आबादी में हैं। बात अगर मुस्लिम समुदाय की की जाए, तो यहां पर खान, मलिक और अंसारी समुदाय अच्छी आबादी में रहते हैं।
आज़ादी के आंदोलन में अब्बासी भाईयों का योगदान
अगर बात आज़ादी आंदोलन की जाए, तो डुमरियागंज के बयारा गाँव के निवासी मौलवी बिस्मिल्लाह के चार पुत्र थे, लेकिन जिसमें दो बेटे ऐसे थे, जिन्होंने स्वयं को भारत की आज़ादी में समर्पित कर दिया।
एक का नाम काजी अदील अब्बासी व दूसरे का नाम काजी जलील अब्बासी था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व डुमरियागंज के पहले विधायक काजी अदील अब्बासी एक प्रसिद्ध पत्रकार थे, जिनकी अंग्रेजी, उर्दू, फारसी भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी।
वे अपनी शिक्षा पूरी कर अपनी कलम लेकर जंग-ए-आज़ादी के मैदान में कूद पड़े, जिससे अंग्रेज बेचैन हो गए थे। महात्मा गांधी के अहिंसा एवं असहयोग आंदोलन में अहम किरदार निभाने वाले अदील अब्बासी जमींदार समाचार पत्र के भी संपादक थे।
जब काजी जलील ने लखनऊ आंदोलन का नेतृत्व किया था, तब पं जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘मुझे ऐसे नौजवानों पर गर्व है, अब भारत गुलाम नहीं रहेगा।’
काजी जलील स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य, मंत्री और अंत में डुमरियागंज लोकसभा सदस्य बने। स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाले इन दो सगे भाइयों का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है और दोनों के नाम आज़ादी के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज़ हैं। सिद्धार्थनगर ज़िले के सृजन में भी इनका अहम योगदान रहा है।
निष्कर्ष
ऐतिहासिक अमीरी के बावजूद आज का सच यह है कि डुमरियागंज पलायन, शिक्षा, बुनियादी आधारभूत सेहत सेवाओं और बाढ़ से बर्बाद फसलों की समस्याओं से हर रोज़ एक जंग लड़ रहा है। नेताओं के वादों से इतर सच में डुमरियागंज विकास का दीदार कब करेगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
बाकी सब खैरियत है!!!