पलायन एक पीड़ा है। आप अपने दिल पर हाथ रख कर सोचिए कि आखिर कौन भला अपनी माँ, मातृभूमि और प्रकृति की गोद से उठकर कहीं और जाना चाहेगा?
पलायन एक जगह को छोड़कर दूसरी जगह में बस जाने तक ही सीमित नहीं है। यह मज़बूरियों के बीच होने वाली ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें शख्स बेहतर जीवनयापन करने के लिए नई संभावनाओं की तलाश में निकल पड़ता है और अपने पीछे परिवार, घर-बार और पहाड़ छोड़ता चला जाता है।
देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में बोलते हैं कि ‘पहाड़ का पानी और जवानी, पहाड़ों के ही काम आ रही है। उस समय रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव के बीच जीवनयापन कर रहे पहाड़ी लोग सोचते होंगे कि प्रधानमंत्री जी पहाड़ियों के मन की बात जानते ही नहीं हैं।’
करीब 21 साल पहले राज्य आंदोलनकारियों के बलिदान की बदौलत उत्तर प्रदेश से अलग होकर पर्वतीय राज्य उत्तरांचल बना। संयुक्त राज्य उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड बनने के पीछे मुख्य पहलू पर्वतीय भू-भाग और इसकी सांस्कृतिक पहचान रहे हैं।
अक्सर सुनने को तो यह भी मिलता है कि संयुक्त प्रांत की राजधानी लखनऊ थी, जहां से पहाड़ी इलाका काफी दूर होने के कारण कई तरह की समस्याएं सामने आती थीं। इन समस्याओं से परेशान होकर राज्य के आंदोलनकारियों ने पहाड़ी भू-भाग को अलग राज्य बनाने की मांग की, ताकि विकास योजनाएं भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए बनाई जाएं और पहाड़ों का तेज़ गति से विकास हो।
कई सपनों के बीच उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। लोगों को उम्मीद थी कि अब विकास के कार्यों में तेज़ी आएगी, राज्य में रोज़गार के नए अवसर उपलब्ध होंगे, शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधित सुविधाएं बेहतर होंगी लेकिन पहाड़ी लोगों की ये उम्मीदें केवल ख्वाब बनकर रह गईं।
आप यकीन मानिए स्थिति कमोवेश समय के साथ बद-से-बदतर होती चली गई। विकास के नाम पर प्रदेश में केवल विस्थापन ही हुआ। राज्य के युवाओं को बेहतर शिक्षा और रोज़गार के लिए मज़बूरन अन्य राज्यों में पलायन करना पड़ रहा है।
स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा एक खोखले कंकाल की भांति नज़र आता है। प्राकृतिक संसाधनों की भूख को मिटाने के लिए बड़े-बड़े कारोबारी और कंपनियां पहाड़ी राज्य को नोंच-नोंच कर खाने में जुटे हुए हैं। राजनीतिक पार्टियों के सत्ताधारियों ने अपने-अपने समय पर इन पहाड़ और पहाड़ी लोगों के साथ खिलवाड़ किया है।
उत्तराखंड पलायन आयोग की रिपोर्ट
राज्य से पलायन की समस्या को देखते हुए त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने 17 सितंबर 2017 को पलायन आयोग का गठन किया था, जिसका मुख्य कार्य राज्य से हो रहे पलायन संबंधित आंकड़ों को एकत्रित करना था। इस आयोग ने राज्य के 13 ज़िलों के 7950 ग्राम पंचायतों में सर्वे करवाया।
वर्ष 2018 में पलायन आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट सरकार के समक्ष रखी। एक दिलचस्प वाकया यह भी है कि पलायन आयोग स्वयं शहरी क्षेत्र की ओर पलायन करता नज़र आ रहा है। आयोग का मुख्यालय पौड़ी ज़िले में बनाया गया था, लेकिन आयोग के अध्यक्ष स्वयं पलायन कर राजधानी में डेरा डाले हुए हैं।
पलायन का दर्द आंकड़ों की जुबानी
पलायन आयोग की पहली रिपोर्ट में जारी आंकड़ों ने कुछ हद तक पहाड़ों के असल दर्द और सच्चाई को बयां करने की कोशिश की। इन आंकड़ों के अनुसार, 2011 तक उत्तराखंड में 1034 गाँवों के निवासी अन्य राज्यों में पलायन कर चुके थे, जिनकी 2018 तक संख्या 1734 पहुंच चुकी है।
राज्य के 405 गाँव ऐसे हैं, जिनमें 10 से भी कम लोग रहते हैं। राज्य के लगभग 3.5 लाख से ज़्यादा घरों में कोई नहीं रहता है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दस साल से हर दिन औसतन 33 लोग गाँवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में प्रदेश के करीब 1000 गाँवों को भूतहा घोषित किया गया था।
पिछले दस वर्षों में उत्तराखंड के 3,946 गाँव भूतहा हो चुके हैं। यहां के 118,981 लोग पूरी तरह पलायन कर चुके हैं या फिर उनका बहुत कम गाँव आना होता है। इसके अलावा 6,338 गाँव ऐसे हैं, जहां से पलायन तो हुआ है लेकिन उन सब का गाँवों से रिश्ता बना हुआ है। ऐसे लोगों की संख्या 383,726 है।
पलायन की मुख्य वजहों में रोज़गार 52.43%, शिक्षा का अभाव 18.24%, चिकित्सा सुविधा का अभाव 7.84%, कृषि पैदावार की कमी 6.17%, जंगली-जानवरों से खेती का नुकसान 4.26%, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव 3.07%, एक-दूसरे की देखा-देखी पलायन 2.47% बताया गया है।
पलायन करने वालों में 35.69% राज्य के अन्य ज़िलों में गए, 28.72% राज्य से बाहर, 19.46% नजदीकी कस्बों में, 15.18% जनपद मुख्यालय में और 0.96% देश से बाहर गए।
सूखते पानी के स्रोत और बहता पानी
यह बड़ी विडंबना का प्रश्न है कि आखिर जिस राज्य में गंगा, यमुना, काली, राम गंगा, गोमती, टोंस, धौलीगंगा, गौरी गंगा, पिंडर नयार जैसी तमाम नदियां बहती हों और इसके बावजूद वहां कई गाँवों के लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। पहाड़ों की महिलाओं को कई किलोमीटर कठिन चढ़ाई-उतराई के पश्चात बड़ी मुश्किल से एक बर्तन पानी नसीब होता है। पहाड़ों से लोग रोटी के लिए ही नहीं अपितु पानी के लिए भी पलायन कर रहे हैं।
पहाड़ों का पानी नदियों के रूप में बहकर और झरनों के रूप में गिर रहा है। पहाड़ों में पानी के जो जल स्रोत हैं, वे पहाड़ों से निकल कर ढलान की तरफ बढ़ते हुए नदियों के माध्यम से मैदानी इलाकों में आ जाते हैं।
उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट कहती है कि ‘फिलहाल राज्य के 500 से अधिक जल स्रोत सूखने के कगार पर हैं। राज्य की 512 पेयजल परियोजना में पानी की आपूर्ति में 50 से 90% की कमी की बात कही गई है।’
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में पिछले 300 वर्षों में 150 जलस्रोत सूख गए हैं। पानी के संकट के पीछे जल प्रबंधन की ठोस व्यवस्था ना होना, जंगलों के कटान उपयोग में बदलाव और सड़कों का चौड़ा होना इसके मुख्य कारण हैं।
राजनीति की भेंट चढ़ता उत्तराखंड का विकास
21 साल का छोटा सा नवजवान राज्य उत्तराखंड में सत्ताधीशों ने बस अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का काम किया है। बहुत सी सरकारें आई-गई पर पलायन, शिक्षा, रोज़गार और स्वास्थ्य जैसी समस्याएं आज भी ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। उत्तराखंड राज्य मात्र 21 साल में ही 11 मुख्यमंत्रियों के कार्यकालों को देख चुका है, इसी साल ही राज्य में दो बार मुख्यमंत्रियों को बदला गया है। इस प्रदेश की राजनीति में पहाड़ों और मैदानों का संघर्ष हमेशा देखने को मिलता है।
उजड़ते पहाड़ और वीरान होते गाँव, आज देवभूमि उत्तराखंड की एक कड़वी सच्चाई है। पहाड़ों की खूबसूरती लोगों को यकीनन लुभाती है परंतु पहाड़ों की उन खूबसूरत वादियों की तस्वीरों के पीछे भी एक पहलू है, जो छुपाए नहीं छुपता है।
नौजवान शिक्षा के लिए, युवा नौकरी के लिए, मर्द रोटी के लिए, औरतें पानी के लिए और बुजुर्ग लोग आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए अपने गाँवों से शहरों की ओर निकल पड़े हैं। इस विकराल एवं भयावह स्थिति की गंभीरता आप केवल आंकड़ों तक ही मत आंकिए, क्योंकि सरकारी दावे और आंकड़े अक्सर झूठे ही निकलते हैं।
नोट- मनोज, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-अक्टूबर 2021 बैच के इंटर्न हैं। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के मास कॉम के कोर्स में अध्ययनरत हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, उत्तराखंड राज्य से हो रहे युवाओं के निरंतर पलायन के कारणों एवं वहां की आधारभूत समस्याओं, सरकार की अदूरदर्शिता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी एवं अन्य समस्याओं पर प्रकाश डाला है।